शिक्षा, शिक्षण एवं सीखना (Education, Teaching and Learning)

शिक्षा, शिक्षण एवं सीखना

भूलवश लोग शिक्षा, शिक्षण एवं सीखना तीनों का एक ही अर्थ निकालते हैं। जिसका मुख्य कारण है कि ये तीनों सोद्देश्य प्रक्रियाएं हैं और मनुष्य के व्यावहार से सम्बन्धित हैं लेकिन तीनों अलग-अलग हैं। इनकी भिन्नता को समझने के लिए इन तीनों के अर्थ को अलग-अलग समझना होगा।

शिक्षा, शिक्षण एवं सीखना (Education, Teaching and Learning)
शिक्षा, शिक्षण एवं सीखना (Education, Teaching and Learning)

शिक्षा

शिक्षा को सामान्यतः हम ज्ञान एवं कौशल के रूप देखा जाता है लेकिन वास्तव में यह एक प्रक्रिया है और ज्ञान एवं उसके प्रक्रिया के परिणाम हैं विद्वानों ने इस प्रक्रिया की व्याख्या भिन्न रूपों में की है और इसे परिभाषित भी भिन्न रूपों में किया है। शिक्षा की विभिन्न परिभाषाओं एवं उन सबकी व्याख्याओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि-
शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से मनुष्य के अंदर की  विद्यमान शक्तियों को जागृत करके उनके व्यवहार में परिमार्जन किया जाता है

शिक्षण

शिक्षण को ज्ञान एवं कौशल के सम्प्रेषण के रूप में देखा जाता है। लेकिन यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सिखाने वाला सीखने वाले को प्रभावित करता है और सीखने में उसकी सहायता करता है। विद्वानों में शिक्षण को भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है और विभिन्न व्याख्याएं की हैं। हम शिक्षण के वास्तविक कार्य एवं रूप को ध्यान में रखकर हम शिक्षण का अर्थ कुछ इस प्रकार बता सकते हैं-

शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसमें सिखाने वाले, सीखने वालों के लिए विभिन्न विधियों, युक्तियों एवं साधनों द्वारा सीखने की परिस्थितियों का निर्माण करते हैं और सीखने वाले इसकी सहायता से सीखते हैं। शिक्षण का तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक सीखने वाले सीख नहीं जाते, उनके व्यवहार में वांछित परिवर्तन नहीं हो जाता है।

सीखना

सीखने का अर्थ सामान्यतः ज्ञान एवं कौशल के अर्जन के रूप में लिया जाता है। विद्वानों ने इसकी विभिन्न परिभाषाएं दी हैं और व्याख्याएं भी भिन्न-भिन्न की हैं। सीखने की विभिन्न व्याख्याओं एवं परिभाषाओं से हम निम्न निष्कर्ष पर पहुंचते हैं-

सीखने का अर्थ अनुभव, शिक्षण, प्रशिक्षण या अध्ययन द्वारा भिन्न-भिन्न तथ्यों को जानना और नई-नई क्रियाओं को करना और इन्हें बहुत समय तक धारण करना और आवश्यकता होने पर इनका प्रयोग करना है। सीखने का तब तक कोई अर्थ नहीं होता है जब तक उससे सीखने वालों के व्यवहार में इस प्रकार परिवर्तन नहीं हो जाता है।

शिक्षा, शिक्षण एवं सीखने में अंतर

1. शिक्षा के उद्देश्य समाज निश्चित करता है ये उद्देश्य व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों तरह के विकास से सम्बन्धित होते हैं। लेकिन शिक्षण एवं सीखने के उद्देश्य उसके अनुसार भी हो सकते हैं और उसके प्रतिकूल भी। हम कह सकते हैं कि शिक्षा विकासोन्मुख होती है लेकिन शिक्षण एंव सीखना विकासोन्मुख भी हो सकते हैं और प्रतिकूल भी।

2. शिक्षा द्वारा सदैव विकास ही होता है। लेकिन शिक्षण एवं सीखना विकास में बाधक भी हो सकते हैं और सहायक भी। समाज के सदस्यों को यदि हित की बातें सिखाते हैं तो वह विकास में सहायक हैं और यदि प्रतिकूल बातें सिखाते हैं तो वह उनके विकास में बाधक भी है।

3. वृहत अर्थ में शिक्षा के तीन पक्ष हैं- सिद्धांत, क्रिया एवं परिणाम। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षण शिक्षा का क्रियात्मक पक्ष है और सीखना परियात्मक।

4. शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षण और सीखना निहित होते हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि जहां शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रियाएं हों वहां शिक्षा भी हो। समाज में लोग उन क्रियाओं को भी सीखते-सिखाते हैं जो उनकी शिक्षा की परिधि में नहीं आते हैं।

5. शिक्षा, शिक्षण एवं सीखने का स्वरूप शासन तंत्र पर निर्भर करता है लेकिन शिक्षा प्रायः शासन तंत्र की चोरी होती है वहां शिक्षण शासन तंत्र पर आधारित होता है।

अनुदेशन एवं प्रशिक्षण में अंतर

अनुदेशन

अनुदेशन सामान्य रूप में शिक्षक द्वारा शिक्षार्थियों के सम्मुख तथ्यों को सीधे प्रस्तुत करने की क्रिया से लिया जाता है जिसका अर्थ है, शिक्षक-शिक्षार्थी के बीच अंतःक्रिया का नहीं होना, प्रश्नोत्तर नहीं होना एवं शंका का समाधान नहीं होना एवं तर्क-वितर्क का अभाव। लेकिन अनुदेशन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि सिखाने वाला सीखने वाले के सामने उपस्थित हो ही।

अब यह कार्य शिक्षण सामग्री, शिक्षण मशीनों, टेपरिकार्डरों, कम्प्यूटर आदि के द्वारा किया जाता है। अनुदेशन द्वारा अब तथ्यों का ज्ञान नहीं कराया जाता है अपितु क्रियाओं का भी ज्ञान कराया जाता है। अभिक्रमित अनुदेशन में सीखने वाले और सिखाने वाले में कोई सामाजिक अंतःक्रिया नहीं होती है इसलिए इन सभी को अभिक्रमित अनुदेशन कहा जाता है।

अनुदेशन की परिभाषा कुछ इस प्रकार से दी जा सकती है। अनुदेशन शिक्षण की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाले एवं सिखाने वाले को तथ्यों अथवा क्रियाओं का ज्ञान स्वयं अथवा किसी अन्य माध्यम से सीधे कराते हैं और सीखने वाले इन क्रियाओं को अपनी शक्ति के अनुसार सीखते हैं। सिखाने एवं सीखने वाले के बीच बहुत कम अंतःक्रिया होती है।

प्रशिक्षण का अर्थ

सामान्यतः कौशलों के विकास की प्रक्रिया को प्रशिक्षण कहा जाता है। इसलिए विद्वान अनुदेशन को बुद्धिपरक और प्रशिक्षण को क्रियापरक कहते हैं। आज कला, कौशल एवं व्यवसाय के क्षेत्र में इतना विकास हो चुका है कि उसके सिद्धांत पक्ष को समझे बिना उसमें दक्षता प्राप्त नहीं की जा सकती है।

प्रशिक्षण की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी जा सकती है-“प्रशिक्षण का अर्थ है सीखने वालों को किसी कला, कौशल अथवा व्यवसाय में अभ्यास के द्वारा निपुण बनाना।”

शिक्षा एवं अनुदेशन में अंतर

लोग अनुदेशन को ही शिक्षा मान लेते हैं लेकिन दोनों भिन्न है। कला के अंदर शिक्षक द्वारा छात्र तक विषय के ज्ञान को पहुंचाने की क्रिया अनुदेशन कहलाती है। छात्र अनुदेशन की सहायता से ज्ञानार्जन करता है। यह आवश्यक नहीं है कि अनुदेशन से छात्र शिक्षित ही हो जाए। एक ही अनुदेशन का अलग-अलग छात्रों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। अतः अनुदेशन एवं शिक्षा दोनों अलग-अलग है। अनुदेशन एक कृत्रिम एवं सीमित क्रिया है।

शिक्षा एक स्वाभाविक एवं व्यापक प्रक्रिया है। शिक्षा एक आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है जबकि अनुदेशन सीमित समय के अंतर्गत एक निश्चित उद्देश्य से किया जाता है। अनुदेशन में शिक्षक का लेकिन शिक्षा में शिक्षार्थी का स्थान महत्वपूर्ण होता है।

राबर्टसन ने ठीक कहा है, “अनुदेशन कक्षा के अंदर समाप्त हो जाता है लेकिन शिक्षा जीवन के साथ समाप्त होती है।”

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