मानव विकास के विभिन्न आयाम

इस लेख में अभिवृद्धि की प्रकृति (Nature of Growth), विकास की प्रकृति(Nature of Development), मानव विकास के विभिन्न आयाम (Different Aspects of Human Development) एवं अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों का शिक्षा में प्रयोग (Implication of the Principles of Growth and Development in Education) का बिन्दुवार अध्ययन करेंगे।

अभिवृद्धि की प्रकृति (Nature of Growth)

(1) वृद्धि एक क्रमिक प्रक्रिया है।
(2) वृद्धि की गति एवं मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
(3) शरीर की वृद्धि कोशिका की वृद्धि से होती है।
(4) शारीरिक वृद्धि सदैव नहीं होती है एवं एक ही गति से होती है।
(5) 18 वर्ष की आयु में मानसिक वृद्धि भी पूर्ण हो जाती है।
(6) 20 वर्ष की आयु में शारीरिक वृद्धि लगभग पूर्ण हो जाती है।
(7) आयु के साथ-साथ विकास की प्रक्रिया भी चलती रहती है।
(8) शैशवकाल में वृद्धि तीव्र, बाद में मन्द गति तथा 11 वर्ष की आयु में फिर तीव्र हो जाती है।
(9) आयु वृद्धि के परिणामस्वरूप शरीर के आकार में, शरीर के अवयवों के अनुपात, पुराने लक्षणों का समाप्त होना तथा नये लक्षणों का उत्पन्न होना आदि परिवर्तन होते हैं।

विकास की प्रकृति(Nature of Development)

(1) विकास प्रकृति द्वारा निर्धारित क्रम से होता है।
(2) विकास एक अनवरत् प्रक्रिया है। विकास की यह प्रक्रिया गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त चलती रहती है। इस प्रक्रिया से प्रत्येक प्राणी को गुजरना पड़ता है।
(3) शरीर के विभिन्न अंगों के लिए विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है।
(4) विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है। प्रारम्भ में नवजात शिशु की क्रियाएँ सम्पूर्ण शरीर के संचालन द्वारा होती हैं। कुछ काल बाद उसके हाथ-पैर, सिर, आँखों आदि की विशिष्ट क्रियाएँ होने लगती हैं।
(5) विकास एक निश्चित क्रम (Pattern) से होता है। यह एक व्यवस्था के अनुरूप ही होता है।
(6) विकास की गति और प्रकृति में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ होती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि एक ही दिन जन्म लेने वाले दो बच्चों का विकास समान गति एवं समान प्रकार से हो।
(7) विकास की प्रत्येक अवस्था की अपनी विशेषता होती है। शैशव, बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं परिपक्वावस्था की अलग-अलग विशेषताएँ एवं लक्षण होते हैं।

मानव विकास के विभिन्न आयाम
मानव विकास के विभिन्न आयाम

मानव विकास के विभिन्न आयाम
(Different Aspects of Human Development)

मानव विकास का क्षेत्र अति व्यापक है। इसमें शारीरिक, मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक, चारित्रिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक आदि सभी प्रकार के
पक्षों में विकास समाहित होता है। परन्तु शिक्षा मनोविज्ञान में मानव के विशेष रूप से बालक के शारीरिक, मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक एवं चारित्रिक पक्षों के विकास का अध्ययन किया जाता है। इन पक्षों का संक्षेप में वर्णन प्रस्तुत है-

शारीरिक विकास (Physical Development)

व्यक्ति के शारीरिक विकास का सम्बन्ध उसके शरीर के ढाँचे (Structure of the body), नाड़ी तन्त्र (Nervous system), शरीर के आन्तरिक संस्थान (Internal systems of the body), जैसे रक्त संचार संस्थान, पाचन संस्थान, आदि में माँसपेशियों (Muscles) और अन्त:स्रावी ग्रन्थियों (Endocrine Glands) में वृद्धि से बालक में संवेगात्मक स्थिरता, गामक क्षमता एवं अन्य परिवर्तन होते हैं। और ये परिवर्तन बालक के व्यवहार को प्रभावित करते हैं।

मानसिक विकास (Mental Development)

बालक के मानसिक विकास से तात्पर्य उसकी मानसिक क्रियाओं एवं योग्यताओं के विकास से होता है। इनके अन्तर्गत बुद्धि (Intelligence), संवेदना (Sensation), प्रत्यक्षीकरण (Perception), निरीक्षण (Observation), रुचि (Interest), ध्यान (Attention), कल्पना (Imagination), चिन्तन (Thinking), तर्क (Reasoning), निर्णय (Judgement), स्मृति (Memory), विस्मृति (Forgetting) आदि मानसिक क्रियाओं एवं योग्यताओं का विकास आता है और इन क्रियाओं एवं योग्यताओं के विकास से मानव व्यवहार प्रभावित होता है।

भाषायी विकास (Linguistic Development)

बालक के भाषायी विकास से तात्पर्य है, उसके भावों एवं विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए जो ध्वन्यात्मक साधन उसके पास हैं जिसे भाषा कहते हैं, उसका विकास। बालक की वाक् शक्ति जन्मजात होती है परन्तु भाषा का विकास उसके वातावरण से अन्त:क्रिया द्वारा होता है। भाषा विकास का सम्बन्ध सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने के भाषायी कौशलों के विकास से होता है।

संवेगात्मक विकास (Emotional Development)

बालक के संवेगों के विकास को संवेगात्मक विकास कहते हैं। बालक में मूल प्रवृत्तियों के रूप में कोई न कोई संवेग छिपा होता है जैसे पलायन के पीछे भय। जब ये संवेग बालक के व्यवहार के स्थायी आधार बन जाते हैं तो इन्हें स्थायी भाव (Sentiments) कहा जाता है। जैसे-जैसे बालक का शारीरिक एवं मानसिक विकास होता है, उसके संवेगों में भी विकास होता है।

सामाजिक विकास (Social Development)

सामाजिक विकास से तात्पर्य व्यक्ति का समाज एवं उसकी शैली को सीखने और उसके साथ समायोजन करने से होता है। बालक जिस समाज में रहता है उसकी भाषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्पराएँ आदि को सीखने में उसे अपने आप से समायोजन करना होता है। जो बालक इनके लिखने एवं अभ्यास में अच्छा समायोजन कर सकता है वह सामाजिक रूप से अधिक विकसित कहलाता है। संक्षेप में सामाजिक परिस्थितियों से समायोजन सामाजिक विकास कहलाता है।

चारित्रिक विकास (Character Development)

चारित्रिक विकास से तात्पर्य सामाजिक एवं धार्मिक निर्देशों के अनुसार आचरण करना है। इसके लिए बालक को अपने ऊपर नियन्त्रण करना होता है। यह नियन्त्रण जितना खूबसूरती से व्यक्ति कर सकता है वह उतना ही चारित्रिक रूप से विकसित कहलाता है। सामाजिक विकास में समाज के रीति-रिवाजों, रहन-सहन, भाषा, परम्पराओं आदि को सीखना और प्रयोग करना होता है। चरित्र में सामाजिक एवं धार्मिक नियमों के अनुसार आचरण करना होता है।

अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों का शिक्षा में प्रयोग
(Implication of the Principles of Growth and Development in Education)

अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों की जानकारी अध्यापक और अभिभावक के लिए निम्नानुसार लाभप्रद हो सकती है-

1. विकास एक सतत् प्रक्रिया है अत: अध्यापक एवं अभिभावकों को चाहिए कि बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए धैर्यपूर्वक सतत् प्रयत्न करते रहें।

2. व्यक्तिगत विभिन्नता के ज्ञान से अध्यापकों एवं अभिभावकों के विकास की प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक बालक की उसकी स्वयं की क्षमता, योग्यता और सीमाओं के अन्दर विकास के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।

3. विकास क्रम के सिद्धान्त द्वारा हमें यह ज्ञात हो सकता है कि अमुक बालक की अमुक अवस्था तक क्या विकास होना चाहिए और इसके अनुसार हम बालक के लिए पर्यावरणीय अनुभवों का संगठन कर उस अवस्था तक की पूर्णता प्राप्त करने के लिए प्रयास कर सकते हैं।

4. सामान्य से विशिष्ट एवं समन्वय के सिद्धान्त का उपयोग अधिगम प्रक्रियाओं और अधिगम अनुभवों की योजना एवं संगठन करने के लिए कर सकते हैं जिससे बालक को विकास के सन्दर्भ में अधिकतम लाभ मिल सके।

5. परस्पर सम्बन्ध के सिद्धान्त के ज्ञान से अध्यापक एवं अभिभावक यह समझ सकता है कि बालक के व्यक्तित्व के किसी एक पक्ष के विकास की ओर ही अधिक ध्यान
नहीं देना है वरन् सम्पूर्ण विकास की ओर ध्यान देना है अन्यथा एक ही पक्ष के विकास के कारण विकास के अन्य पक्ष प्रभावित होंगे।

6. चक्राकार विकास के सिद्धान्त की जानकारी से अध्यापक एवं अभिभावक बालक के विकास के किसी स्तर तक उसके समायोजन के लिए पर्याप्त वातावरण प्रदान कर सकते हैं।

7. निश्चित दिशा के सिद्धान्त के आधार पर अध्यापक एवं अभिभावक बालकों के लिए उचित अधिगम अनुभव एवं पर्यावरणीय अवस्थाओं का संचालन कर सकते हैं और उस दिशा में विकास में वृद्धि कर सकते हैं।

8. वंशानुक्रम एवं पर्यावरण की अन्त:क्रिया के सिद्धान्त से बालक की सीमाओं की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और उन सीमाओं में अधिकतम विकास के लिए उचित एवं पर्याप्त पर्यावरणीय स्थितियों का निर्माण किया जा सकता है।

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