काण्ट का शिक्षा दर्शन (Education Philosophy of Kant)

22 अप्रैल, 1724 में जर्मनी के कोनिग्सबर्ग में जन्मे इमैन्युएल काण्ट का लालन-पालन धार्मिक संस्कारों के मध्य हुआ। उन्होंने लैटिन, ग्रीक तथा धर्मशास्त्र का अध्ययन किया। जर्मन शिक्षा के इतिहास के विशेषज्ञ अठारहवीं शताब्दी को शिक्षणशास्त्र का युग के रूप में वर्णन करते हैं। उन्होंने शिक्षणशास्त्रीय दर्शन या शिक्षा दर्शन के रूप में शिक्षा में भी बहुत अधिक योगदान दिया। काण्ट ने शिक्षा पर स्वतंत्र रूप से कोई विचार प्रकट नहीं किए किन्तु इनके दार्शनिक चिंतन की तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा और आचार मीमांसा से शिक्षा सम्बन्धी अवधारणा की जानकारी उपलब्ध हो जाती है।

Immanuel Kant
Immanuel Kant

काण्ट की मान्यता थी कि वास्तविक शिक्षा वही है जो व्यक्ति को भौतिक जगत् को समझने में सहायक हो तथा उसमें धर्म के प्रति आस्था एवं ईश्वर के प्रति विश्वास उत्पन्न कर सके।

शिक्षा के उद्देश्य

काण्ट शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को जहाँ एक ओर उसे भौतिक जगत् का ज्ञान कराना चाहते थे तो दूसरी ओर उसे सत्संकल्पी जीव भी बनाना चाहते थे। तद्नुसार काण्ट ने शिक्षा के मुख्य उद्देश्य निम्नानुसार निर्धारित किए-

1. मनुष्य का शारीरिक विकास- काण्ट की मान्यता थी कि मनुष्य शरीर और मन का योग है। अस्तु प्रथम आवश्यकता है कि शिक्षा के द्वारा उसके शरीर का उचित विकास संभव हो सके।

2. मानसिक शक्तियों का विकास- काण्ट की मान्यता थी कि मनुष्य जो कुछ भी अपनी इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करता है, उसके वास्तविक स्वरूप को केवल तर्क द्वारा ही समझा जा सकता है। अस्तु उसकी मानसिक शक्तियों का शिक्षा के माध्यम से विकास किया जाए।

3. मनुष्य को वस्तुजगत् का वास्तविक ज्ञान कराना- काण्ट का विचार था कि मनुष्य जीवन के लिए वस्तुजगत् का ज्ञान आवश्यक है। अस्तु शिक्षा का उद्देश्य वस्तुजगत् का वास्तविक ज्ञान कराना होना चाहिए।

4. मनुष्य की धर्म के प्रति आस्था और ईश्वर के प्रति विश्वास पैदा करना- काण्ट की मान्यता थी कि शिक्षा का उद्देश्य धर्म के प्रति आस्था उत्पन्न करना तथा ईश्वर के प्रति विश्वास पैदा करना होना चाहिए। काण्ट का विश्वास था कि धर्म ही मनुष्य को नैतिक जीवन की ओर अग्रसर करता है।

5. मनुष्य में नैतिक गुणों का विकास- काण्ट मनुष्य में नैतिक गुणों का विकास अनिवार्य मानते थे। वे व्यक्ति से ऊपर उसका कर्त्तव्य मानते थे। इस दृष्टि से शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो मनुष्य में नैतिक गुणों के विकास को संभव बना सके।

काण्ट का शिक्षा दर्शन (Education Philosophy of Kant)
काण्ट का शिक्षा दर्शन (Education Philosophy of Kant)

शिक्षा की प्रक्रिया

काण्ट ने सभी आयु समूहों की शिक्षा पर अपने विचार प्रस्तुत किए अर्थात् शैशवावस्था से वयस्कावस्था तक निम्नलिखित प्रकार हैं:

  • बुनियादी शिक्षा
  • परिवार शिक्षा
  • विद्यालयी शिक्षा
  • विश्वविद्यालयी शिक्षा
  • सामान्य वयस्क शिक्षा तथा
  • वरिष्ठ नागरिक शिक्षा

काण्ट के विचारों के अनुसार बच्चे के मूल स्वभाव को कृत्रिम साधनों द्वारा नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। बच्चों को प्रसन्न होने, उदार हृदय होने की आवश्यकता होती है तथा उनकी निगाह सूर्य की भाँति तेजवान हैं। बच्चों में अपने अनुसार अग्रसर होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो सकती है यदि यह हानिकारक है जो इसे प्रतिबंधित किए जाने की आवश्यकता है प्रक्रिया के रूप में वे स्वयं को क्षति पहुँचा सकते हैं। परन्तु उनको नियंत्रित करने की प्रक्रिया में उन्हें धमकाया नहीं जाना चाहिए न तो उनको सभी चीजों को खेल के रूप में लेना चाहिए न ही सभी चीजों के साथ तर्क-वितर्क का प्रयास करना चाहिए।

बच्चों की स्वतंत्रता में बाधा नहीं डालना चाहिए परन्तु आवश्यक ध्यान देना चाहिए ताकि वे स्वयं को क्षति न पहुँचा सकें तथा अपने कार्यों द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता सीमित न कर सकें। बच्चों को खेल के साथ-साथ कार्य भी करना चाहिए। एक के लिए दूसरे को त्यागना आवष्यक नहीं है तथा उचित संतुलन बनाए रखना चाहिए।

शिक्षा की पाठ्यचर्या

काण्ट की मान्यता थी कि किसी भी देश की पाठ्यचर्या में भाषा, साहित्य, दर्शन, गणित, विज्ञान एवं तकनीकी, तर्कशास्त्र को स्थान दिया जाना चाहिए।

धर्म को वे शिक्षा की पाठ्यचर्या में शामिल करने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि वे यह मानकर चलते थे कि धर्म सीखने का विषय नहीं है, अपितु आस्था का विषय है।

शिक्षण विधियाँ

काण्ट ने सर्वाधिक बल ज्ञान के स्वरूप और उसे प्राप्त करने की विधियों पर दिया है। काण्ट के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का है- व्यावहारिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान। व्यावहारिक ज्ञान केवल इन्द्रियों के अनुभव से ही प्राप्त किया जा सकता है। इस हेतु मस्तिष्क की चार इन्द्रियाँ- संवेदनशीलता, बुद्धि, भावना और संकल्पशक्ति का क्रियाशील होना आवश्यक है। शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में काण्ट की मान्यता है कि-

1. सीखने के लिए मस्तिष्क और इन्द्रियों को क्रियाशील किया जाए।
2. इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण किया जाए।
3. इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त ज्ञान को तर्कबुद्धि द्वारा तर्क की कसौटी पर कसा जाए।
4. तर्क के आधार पर प्राप्त परिणामों की सत्यता को परखा जाए।

अनुशासन

अनुशासित व्यवहार एवं कार्य मनुष्य को संकट में पड़ने से रक्षा करते हैं। बच्चों को आरंभिक वर्षों में विद्यालय में अनुदेशन के लिए नहीं बल्कि शांत रहना सीखने तथा जो कहा जाए उसको करने हेतु भेजे जाने की आवश्यकता है। इस प्रकार वे स्वयं को अनुशासित करना सीखते हैं जो घर पर पढ़ाया जाना कठिन हो सकता है। इस कार्य को शिक्षा द्वारा संपादित करने की आवश्यकता है, जैसा कि ईश्वर ने मनुष्य को तर्क करने की पूर्व शक्ति प्रदान की है, तथा अपने अच्छे या बुरे का निर्णय केवल उन पर निर्भर करता है। शिक्षा के आधार को प्रकृति में सार्वत्रिक या अंतर्राष्ट्रीय करने की आवश्यकता है, ताकि वैश्विक शांति स्थापित हो।

कान्ट शाश्वत नैतिक नियमों में विश्वास रखते थे तथा उनके पालन को ही अनुशासन मानते थे। उसकी मान्यता थी कि ईश्वर में विश्वास और धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्ति ही शाश्वत नैतिक नियमों का पालन कर सकते हैं।

शिक्षक

काण्ट शिक्षक को अध्ययनशील, चिंतनशील तथा सादा जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति के रूप में देखना चाहते थे।

शिक्षार्थी

काण्ट लोकतंत्र के पक्षधर थे। इसी कारण वे शिक्षार्थियों को अध्ययन का क्षेत्र चयन करने की, तर्क और निष्कर्ष निकालने की स्वतंत्रता देना चाहते थे। उनका कहना था कि इसी से विद्यार्थी वास्तविक ज्ञान अर्जित कर सकेगा।

शिक्षा की प्रकृति एवं विद्यालय

सार्वजनिक बनाम निजी शिक्षा काण्ट ने अपना स्पष्ट मत व्यक्त किया है कि शिक्षा को राज्य द्वारा या निजी संस्थानों द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए। शिक्षा को शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि शासक शिक्षा प्रदान करते हैं तो उनके मन में राज्य के कल्याण की बात होगी तथा इसके द्वारा व्यक्तियों के विकास की बात नहीं होगी। उनको शिक्षा हेतु अनुदान प्रदान करना चाहिए परन्तु इससे लाभ का लक्ष्य नहीं होना चाहिए। निजी शैक्षिक संस्थानों को युवाओं के व्यक्तिगत विकास तथा सामाजिक विकास के लिए शिक्षित करना चाहिए।

काण्ट विद्यालय को व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक मानते थे किन्तु वे चाहते थे कि इन विद्यालयों में किसी भी प्रकार का ज्ञान ऊपर से नहीं थोपा जाना चाहिए।

काण्ट जनशिक्षा, स्त्रीशिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, धार्मिक और नैतिक शिक्षा देने के पक्षधर थे।

संक्षेप में काण्ट शिक्षा के द्वारा मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और व्यावसायिक विकास चाहते थे। उन्हें नागरिकता की शिक्षा देकर राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए।

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