वैसे तो समाजशास्त्र (Sociology) स्वयं एक नवीन विषय है किन्तु शैक्षिक समाजशास्त्र (Educational Sociology) का समाजशास्त्र की एक शाखा के रूप में विकास तो कुछ ही वर्षों पूर्व ही हुआ है जिसे जन्म देने का श्रेय जार्ज पायने (George Payne) महोदय को प्राप्त हुआ। इसलिए इनको शैक्षिक समाजशास्त्र का पिता (Father of Sociology) भी कहा जाता है।
इसके अतिरिक्त शैक्षिक समाजशास्त्र विकास में निम्नलिखित समाजशास्त्रियों का नाम उल्लेखनीय है—अमेरिका के ड्यूवी (Dewey), डेविड स्वेडन (David Sweden), पीटर्स (Peters), कुक (Cook), बोल्टन (Bolton), वालर (Waller), जार्ज काउण्ट्स (Geoge Counts), डैविस (Davis), टाबा (Taba), डोलार्ड (Dolard), स्लावासन (Slovsion), होविघर्ट (Hovighurt), रास फिनेर (Ross Finner), फ्रान्स के दुर्खीम (Durkheim), जर्मनी के मैक्स वेबर (Max Weber) तथा इंग्लैण्ड के क्लार्क (Clark), ओटावे (Ottoway), कार्ल माहीम (Karl Mannheim) इत्यादि।
पायने (Payne) महोदय ने 1928 ई. में दि प्रिन्सिपल ऑफ एजूकेशन सोशियोलॉजी (The Principles of Educational Sociology) नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने शिक्षा द्वारा सामाजिक प्रक्रिया के ज्ञान के अध्ययन को सामाजिक प्रगति का एक आवश्यक अंग माना।
ड्यूवी (Dewey) ने दि स्कूल एण्ड सोसाइटी (The School and Society) तथा डेमोक्रेसी एण्ड एजूकेशन (Democracy and Education) नामक पुस्तक में इस बात पर बल दिया है कि, “व्यक्ति द्वारा जाति की सामाजिक चेतना में भाग लेने से शिक्षा का पूर्ण विकास होता है।” भारत में भी शैक्षिक समाजशास्त्र का महत्व शिक्षा के क्षेत्र में दिन-प्रति-दिन बढ़ता चला जा रहा है और भावी शिक्षक के लिए इसका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो गया है।
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शैक्षिक समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definition of Educational Sociology)
जैसा कि नाम से स्पष्ट होता है कि शैक्षिक समाजशास्त्र एक प्रकार से समाजशास्त्र की एक शाखा है। अतः इसके अर्थ को समझने के लिए समाजशास्त्र के अर्थ को भी समझना आवश्यक है।
समाजशास्त्र का अर्थ (Meaning of Sociology)
समाजशास्त्र आंग्ल भाषा के सोशियोलॉजी (Sociology) का हिन्दी रूपान्तर है। सोशियोलॉजी शब्द की व्युत्पत्ति सोशियो (Socio) तथा लॉजी (Logy) शब्द से हुई है जिसका क्रमशः अर्थ समाज तथा शास्त्र या विज्ञान है।
इस प्रकार वार्ड (Ward) के शब्दों में, “समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है।” दूसरे शब्दों में, “समाजशास्त्र वह विज्ञान है जोकि व्यक्ति एवं समाज के समस्त सम्बन्धों तथा वैयक्तिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय सम्बन्धों, उनके कारणों, पारस्परिक प्रभावों तथा उनके परिणामों का अध्ययन करता है।”
हिलर (Hiller) ने समाजशास्त्र को परिभाषित करते हुए लिखा है, “समाजशास्त्र व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों, उनके एक-दूसरे के प्रति व्यवहार एवं इन व्यवहारों को नियन्त्रित करने वाले मापदण्डों का अध्ययन है।”
इसी प्रकार जिन्सबर्ग ने समाजशास्त्र की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखा है, “समाजशास्त्र मानवीय अन्तःक्रियाओं एवं अन्तर्सम्बन्धों, उनके कारणों एवं फलों का अध्ययन करता है।”
शैक्षिक समाजशास्त्र का अर्थ (Meaning of Educational Sociology)
प्रत्येक समाज में चाहे वह प्राचीन स्वरूप का हो या नवीन स्वरूप का, विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाएँ, जनसमूह, संस्थाएँ, समितियाँ इत्यादि होती हैं जो व्यक्ति एवं समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं; कोई जीविकोपार्जन सम्बन्धी, कोई मनोरंजन सम्बन्धी, कोई प्रशासकीय सम्बन्धी तो कोई शिक्षा सम्बन्धी। जो विज्ञान शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली प्रक्रियाओं, जन-समूह, संस्थाओं तथा समितियों का अध्ययन करता है उसे शैक्षिक समाजशास्त्र कहते हैं।
अब चूँकि शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकता व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए उत्तरदायी होती है, इसलिए शैक्षिक समाजशास्त्र को समाज के सभी आदर्शों, नियमों, समस्याओं, साधनों, परिस्थितियों एवं उनके व्यक्तित्व पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर समाज की उन्नति के लिए शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षा-पद्धति, पुस्तकें, अनुशासन, शिक्षालय, शिक्षक आदि का स्वरूप निर्धारित करना पड़ता है।
ओटावे (Ottoway) के अनुसार, शैक्षिक समाजशास्त्र का प्रारम्भ इस दृष्टिकोण को अपनाकर होता है कि “शिक्षा एक समाज में होने वाली क्रिया है एवं उसके उद्देश्य और विधियाँ उस समय की प्रकृति पर निर्भर होती हैं जिसमें कि वह क्रिया करती है।” (The Education is an activity which goes on in society and its aims and methods depend on the nature of the society on which it takes place.)
संक्षेप में शैक्षिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की वह शाखा है जो समाज की सम्पूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया का अध्ययन करते हुए शिक्षा के विभिन्न अंगों को निर्धारित करता है ताकि व्यक्ति एक श्रेष्ठ सामाजिक प्राणी बन सके।
शैक्षिक समाजशास्त्र की परिभाषाएँ (Definitions of Educational Sociology)
(1) ओटावे – संक्षेप में, शैक्षिक समाजशास्त्र वह विज्ञान है, जो शिक्षा एवं समाज के सम्बन्धों का अध्ययन करता है।
(2) हेन्सन — “शिक्षा का समाजशास्त्र शिक्षा तथा समाज के बीच के सम्बन्ध का वर्णन करता है। “
(3) रोसेक – “शैक्षिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र का वह पक्ष है जो कि आधारभूत शैक्षिक समस्याओं का समाधान करता है। “

शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्य
(Aims of Educational Sociology)
हैरिन्गटन के अनुसार
हैरिन्गटन (Harringtaon) महोदय ने शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्यों का उल्लेख किया है जिन्हें हम निम्न प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं-
(1) लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों को समझना।
(2) पाठ्यक्रम को सामाजिक रूप प्रदान करना।
(3) समाज के सन्दर्भ में शिक्षक के कार्यों को समझना।
(4) सामाजिक तत्वों का अध्ययन करना और बालक पर उनके प्रभावों को समझना।
(5) विद्यालय को प्रभावित करने वाले तत्वों का अध्ययन करना।
(6) सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को समझना एवं उन्हें पाठ्यक्रम में उचित स्थान देना।
(7) सामाजिक प्रगति के साधन के रूप में विद्यालय के कार्यों को समझना।
(8) इन उद्देश्यों की प्रगति हेतु अनुसन्धान की विधियों का प्रयोग करना।
बर्टन क्लार्क के अनुसार
बर्टन क्लार्क ने संक्षेप में शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्यों को इस प्रकार निर्धारित किया है-
(1) शिक्षा समाज को किस प्रकार प्रभावित करती है; इस तथ्य को समझना।
(2) शिक्षा समाज के लिए क्या कार्य करती है; इस तथ्य पर प्रकाश डालना।
(3) विद्यालय को प्रभावित करने वाली सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन करना।
ब्राउन के अनुसार
ब्राउन ने शैक्षिक समाजशास्त्र का एक ही उद्देश्य बताया है। आपके अनुसार शैक्षिक समाजशास्त्र का मुख्य उद्देश्य विद्यालय तथा महाविद्यालय के छोटे-छोटे उपसमूहों की मान्यताओं का अध्ययन करना है। आपके अनुसार ये उपसमूह शिक्षा के परिणामों को प्रभावित करते हैं।
शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता (Need of the Study of Educational Sociology)
शैक्षिक समाजशास्त्र में शिक्षा और समाजशास्त्र का व्यापक अध्ययन किया जाता है। इस विषय के अध्ययन के द्वारा निम्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है-
(1) शिक्षा एक आजीवन चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है। शैक्षिक समाजशास्त्र में मनुष्य के सभी समूहों का तथा इन समूहों का बालक की शिक्षा पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। शिक्षा के समस्त साधनों को अपने-अपने कर्त्तव्यों की जानकारी प्राप्त हो जाती है। परिणामस्वरूप बालक को अपनी शिक्षा हेतु सहयोग प्राप्त होता रहता है।
(2) शैक्षिक समाजशास्त्र में शिक्षा-प्रक्रिया की प्रकृति की व्याख्या की जाती है। इसके अध्ययन से अध्यापक एवं छात्रों को इसकी प्रकृति की स्पष्ट व्याख्या अध्ययन हेतु प्राप्त होती है।
(3) शैक्षिक समाजशास्त्र में समाज का स्वरूप और उसकी विभिन्न समस्याओं से परिचय करवाया जाता है। इन समस्याओं के समाधान हेतु शिक्षा के उद्देश्यों का गठन किया जाता है। इस प्रकार इस विषय के अध्ययन से अन्तर्दृष्टि विकसित होती है।
(4) शैक्षिक समाजशास्त्र में सामाजिक क्रियाओं के कारण और परिणाम का विश्लेषण किया जाता है इस ज्ञान को आधार बनाकर शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण में सहायता प्राप्त की जा सकती है।
(5) शिक्षा की शिक्षण विधियों पर मनोविज्ञान का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । परन्तु शिक्षण विधियों के सिद्धान्तों की रचना समाजशास्त्र के अध्ययन के बिना सम्भव नहीं है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इस बात को समझे बिना शिक्षण विधियों के उचित सिद्धान्तों की रचना नहीं की जा सकती है।
(6) अध्यापक तथा विद्यार्थी की भूमिका शिक्षा प्रक्रिया में कैसी होनी चाहिए इसका विश्लेषण शैक्षिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है।
(7) शिक्षा के अनुशासन की अनेक अवधारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं। शैक्षिक समाजशास्त्र में इसकी सामाजिक अवधारणा स्पष्ट की जाती है। शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन से पाठक को यह ज्ञान प्राप्त होता है कि अनुशासन एक सामाजिक भावना है। यह भावना सामाजिक संस्थाओं में भाग लिए बिना नहीं पनप सकती है।
शैक्षिक समाजशास्त्र का क्षेत्र
(Scope of Educational Sociology)
शैक्षिक समाजशास्त्र के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों ने अपने विचार इस प्रकार प्रस्तुत किए हैं –
(1) ब्राउन—”शैक्षिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र के सिद्धान्तों को शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर लागू करता है।”
(2) रोसेक – “शैक्षिक समाजशास्त्र के क्षेत्र में सब सामाजिक प्रक्रियाएँ आ जाती हैं।”
उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट होता है कि शैक्षिक समाजशास्त्र का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है। इसके अन्तर्गत जिन विषयों का अध्ययन किया जाता है उनमें से कुछ प्रमुख विषय निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षक का समाज में स्थान।
(2) शिक्षक और शिक्षार्थी में पारस्परिक सम्बन्ध।
(3) समाज की आवश्यकताएँ, समस्याएँ, प्रेरणाएँ।
(4) समाज की छोटी-छोटी इकाइयाँ और उनके परस्पर सम्बन्ध।
(5) सामाजिक जीवन का व्यक्ति एवं शिक्षालय पर प्रभाव।
(6) स्थानीय सामाजिक संस्थाओं तथा शिक्षालयों में सम्पर्क।
(7) शिक्षालयों में उत्तम शिक्षा द्वारा प्रजातान्त्रिक भावना को प्रोत्साहन।
(8) व्यक्ति और समाज की प्रगति के लिए पाठ्यक्रम में वांछित परिवर्तन
(9) अन्वेषण तथा आलोचनात्मक चिन्तन को प्रोत्साहन देना।
(10) प्रेस, रेडियो, चलचित्र, दूरदर्शन आदि का सामाजिक प्रक्रिया में मूल्यांकन।
(11) शिक्षा-पद्धति का निर्धारण करना।
(12) सामाजिक प्रगति तथा सामाजिक नियन्त्रण के साधनों की खोज करना।
ब्रूबेकर (Brubacker) ने शैक्षिक समाजशास्त्र के क्षेत्र को चार भागों में विभक्त किया है
(1) शिक्षा-प्रणाली का समाज के अन्य अंगों के साथ सम्बन्ध।
(2) विद्यालय में अन्तर्मानवीय सम्बन्ध।
(3) शिक्षण प्रक्रिया का सामाजिक मनोविज्ञान अथवा विद्यार्थियों एवं शिक्षकों के व्यवहार एवं व्यक्तित्व पर पड़ने वाला प्रभाव।
(4) समुदायों में विद्यालय।