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इरिक्सन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धान्त (Erikson’s Theory of Psychosocial Development)
इरिक्सन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धान्त मनोविज्ञान के व्यक्तित्व सिद्धान्तों में अपना एक विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इरिक्सन फ्रायड की तरह बालक के व्यक्तित्व विकास की क्रमबद्ध अवस्थाओं (Sequential Stages) में विश्वास करते हैं। लेकिन वह फ्रायड की मनोलैंगिक अवस्थाओं तक ही सीमित नहीं थे बल्कि उन्होंने अपने व्यक्तित्व सिद्धान्त में व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में होने वाले सामाजिक अनुभवों को सम्मिलित करके एक बेहतर (Better) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त में इरिक्सन द्वारा व्यक्ति के पूरे जीवन काल की अवस्थाओं का उल्लेख किया है अत: कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त को जीवन अवधि विकास सिद्धान्त (Life-span development theory) का नाम भी दिया है।
इरिक्सन का मानना है कि विकास की प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति द्वन्द्वों (Conflicts) का अनुभव करते हैं जिसे संकट (Crisis) की स्थिति कहा जाता है। यह मनोसामाजिक चुनौती उसे उस मोड़ (Turning point) पर खड़ा कर देती है जहाँ पर उसे उचित निर्णय लेकर अपने विकास की दिशा निर्धारित करनी होती है। यदि वह इस संकट से उभर कर एक स्वीकार्य समाधान निकालने में समर्थ हो जाता है जो उसमें सकारात्मक मनोसामाजिक गुण (Positive psychosocial trait) विकसित होता है और यदि वह इस उलझन से निकलने में असफल (Failure) रहता है तो वह नकारात्मक मनोसामाजिक गुण (Negative social trait) से ग्रस्त हो जाता है।
इरिक्सन ने पूरे जीवन काल को विकास की दृष्टि से आठ अवस्थाओं में विभक्त किया है। इन सभी अवस्थाओं का क्रमवार वर्णन निम्नांकित है-
बुनियादी विश्वास बनाम अविश्वास (Basic Trust vs Mistrust)
यह बालक के विकास की प्रथम मनोसामाजिक अवस्था है जो जन्म से लेकर 18 महीने की आयु तक चलती है। यह अवस्था बच्चे के विकास की आधारभूत अवस्था होती है। क्योंकि इस अवस्था में बच्चा पूर्णत: अपनी देखभाल करने वालों पर निर्भर रहता है। यदि बालक देखभाल करने वाले माता-पिता, भाई-बहिन तथा अन्य सगे-सम्बन्धियों से भरपूर प्यार पाता है तथा सुरक्षा का अनुभव करता है तो उसमें विश्वास का भाव जागृत होता है और यदि वे उसे रोता-बिलखता देखकर उपेक्षा करते हैं तो बच्चे में उनके प्रति अविश्वास (Mistrust) विकसित होता है। विश्वास का अनुभव करने वाला व्यक्ति अपने आपको संसार में सकुशल, सुरक्षित तथा निरापद अनुभव करता है जबकि दूसरी ओर अविश्वास से ग्रस्त बच्चा भयभीत रहता है तथा दूसरों पर शक करता है। जब विश्वास तथा अविश्वास दोनों एक साथ उत्पन्न होकर बच्चे के लिए उलझन (Crisis) की स्थिति पैदा कर देते हैं तो वह असमंजस में पड़ जाता है। जो बच्चा इस संकट का सफलतापूर्वक समाधान कर लेता है तो उसमें एक विशेष प्रकार की मनोसामाजिक शक्ति (Psychosocial Strength) विकसित हो जाती है जिसे इरिक्सन ने आशा (Hope) की संज्ञा दी है। यह आशावान बच्चा वयस्क होने पर सांस्कृतिक तथा सामाजिक मूल्यों तथा धार्मिक मान्यताओं में आस्था रखने वाला व्यक्ति बनता है।
स्वायत्तता बनाम शर्म तथा शंका (Autonomy Vs Shame and Doubt)
मनोसामाजिक विकास की यह दूसरी अवस्था 18 महीने से 3 वर्ष की आयु तक चलती है। इस अवस्था में बच्चा अपने व्यवहार को स्वयं नियन्त्रित करने पर अधिक ध्यान केन्द्रित करता है। फ्रायड की तरह इरिक्सन भी इस अवस्था में शौच क्रिया के प्रशिक्षण (Toilet-training) को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। लेकिन इरिक्सन की सोच फ्रायड से भिन्न थी। उनका मानना है कि बच्चा जब अपनी शारीरिक क्रियाओं को नियन्त्रित करना सीख जाता है तो उसमें आत्मनिर्भरता का भाव (Feeling) विकसित हो जाता है। इसके अतिरिक्त बच्चा अपनी पसन्द के खाने, खिलौने तथा कपड़ों को चुनना सीख जाता है। अतः इस अवस्था में वे दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहते हैं। इस अवस्था में माता-पिता को चाहिये कि वे बच्चों को अपने कार्य स्वयं करने के लिए अवसर प्रदान करें लेकिन कुछ परिवारों में बच्चों को छोटे-बड़े कार्य करने पर डाटा तथा धमकाया जाता है जिस कारण उन्हें अपनी क्षमता पर शंका होने लगती है और साधारण से कार्य करने में भी संकोच करने लगते हैं। जब बच्चा स्वायत्तता बनाम संकोच तथा शंका संघर्ष (Conflict) का समाधान करने में सफल हो जाता है तो उसके अंतःकरण में जिस मनोसामाजिक शक्ति का उद्भव होता है उसे इच्छाशक्ति (Will power) कहते हैं। इच्छाशक्ति बच्चे को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने, अपनी पसन्द के अनुसार वस्तु को चुनने तथा आत्म-नियन्त्रण करने में सहायता प्रदान करती है। जो बच्चे उपर्युक्त संकट से नहीं उभर पाते हैं वे अपनी क्षमता में अभाव तथा शंका का भाव अनुभव करते हैं जिससे किसी भी कार्य करने में स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने में घबराते हैं।

पहल बनाम अपराध बोध (Initiative vs Guilt)
बालक के मनोसामाजिक विकास की यह तीसरी अवस्था 3 वर्ष से 5 वर्ष तक की आयु तक चलती है। यह बालक की पूर्व स्कूली अथवा आरम्भिक बाल्यावस्था की अवधि होती है जिसमें बालक अपनी शक्ति को अजमाने तथा दूसरों को खेल अथवा अन्तः क्रिया के द्वारा अपना प्रभुत्व दिखाने की चेष्टा करता है। वह विभिन्न क्रियाओं के सम्पादन करने में पहल (Initiative) करना प्रारम्भ कर देता है तथा आसपास के वातावरण में पाई जाने वाली चीजों के बारे में जानने के लिए उत्सुकता दिखाना प्रारम्भ कर देता है अतः इस अवधि में उसकी अन्वेषणात्मक प्रवृत्ति (Exploring tendency) होती है अर्थात् वह अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहता है। यदि बच्चे के अभिभावक उसकी इस प्रवृत्ति के प्रति उदासीनता दिखाते हैं अथवा उसे दण्डित करके हतोत्साहित करते हैं तो वह अपराध बोध (Guilt feeling) से ग्रस्त हो जाता है। और किसी भी कार्य की पहल करने में संकोच करता है। यदि बालक पहल बनाम अपराध बोध की उलझन से निकलने में सफलता प्राप्त कर लेता है तो उसमें उद्देश्य (Purpose) नामक मनोसामाजिक गुण (Psychosocial Trait) उत्पन्न हो जाता है जिससे उसको लक्ष्य उन्मुखी व्यवहार (Goal oriented behaviour) करने की प्रेरणा मिलती है। अतः माता-पिता को चाहिये कि वे बच्चों की जिज्ञासाओं का समाधान करें तथा उन्हें कार्यों के सम्पादन में पहल करने के लिए प्रेरित करें।
परिश्रम बनाम हीनता (Industry Vs. Inferiority)
मनोसामाजिक विकास की यह चौथी अवस्था स्कूल के प्रारम्भिक वर्षों में लगभग 5 से 12 वर्ष की आयु तक चलती है। जब बच्चे पहल करके अन्त:क्रिया तथा अन्य क्रियाओं में सफलता का अनुभव करते हैं तो वे अपनी योग्यताओं पर गौरवान्वित (Pride) होते हैं तथा और उत्साहपूर्वक अपनी क्षमताओं तथा कुशलताओं का नये क्षेत्रों में प्रयोग करते हैं। यदि उन्हें इस कार्य के लिए माता-पिता तथा शिक्षक द्वारा प्रोत्साहन भी मिलता है तो वे परिश्रमी (Industrious) बन जाते हैं। यदि बालक के सामने चुनौतियाँ इतनी कठिन होती हैं कि उन्हें पार करने में वह असफल रहता है तो उसमें हीनता (Inferiority) का भाव विकसित हो जाता है। अत: वह परिश्रम करने से पलायन करने लगता है। अध्यापक, माता-पिता तथा सहपाठियों को चाहिये कि वे बालक को उसके द्वारा किये गये परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करके उसका उत्साहवर्द्धन करें।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, बुद्धि, अभिक्षमता (Aptitude) तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि के अतिरिक्त परिश्रम (Industry) ही ऐसा एक मात्र कारक है जो उसके शैक्षिक, व्यवसायिक तथा व्यक्तिगत समायोजन, आर्थिक उन्नति एवं अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों में सफलता प्राप्त करने में सहायता करता है। जो बालक परिश्रम बनाम हीनता के संकट (Crisis) को हल करने में सफल रहता है उसमें कार्यनिर्वाह-क्षमता (Competency) नाम की योग्यता विकसित हो जाती है जो उनमें वातावरणीय परिस्थितियों का सामना करने के लिए आत्मबल (Self-confidence) विकसित करती है।
पहचान बनाम भ्रांति (Identity vs Role Confusion or Diffusion)
मनोसामाजिक विकास की यह पाचवीं अवस्था 12 वर्ष से 19 वर्ष की आयु तक चलती है। यह अवस्था किशोरावस्था कहलाती है। इरिक्सन के अनुसार किशोर इस अवस्था में अपने माता-पिता द्वारा थोपे गये मूल्यों, प्रतिबन्धों तथा उनकी निजी जिन्दगी में की जाने वाली दखलन्दाजी का विरोध करने लगते हैं क्योंकि वे परिवार तथा समाज में अपनी पहचान (Identity) बनाना चाहते हैं। यदि किशोर किसी दूसरे की विचारधारा (Ideology) अपनाता है तो उसे अपनी पहचान अलग बनाने की अपेक्षा कम सन्तोष मिलता है। इस अवस्था में किशोर यह जानने का प्रयास करता है कि “मैं कौन हूँ ?” (Who am I?), “मैं कहाँ जा रहा हूँ ?” (Where am I going?), “मुझे क्या बनना है ?” (Who am I to become)। अब वह धार्मिक, नैतिक तथा जीवन-मूल्यों, जीवन-दर्शन तथा व्यावसायिक लक्ष्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करता है। एक स्वस्थ पहचान वाला किशोर कुछ नवीन क्षेत्रों में अन्वेषण करके अपने महत्त्व को दर्शाने में सफल होता है।
यदि किशोर पहचान बनाम भ्रांति के संकट का सफलतापूर्वक समाधान कर लेता है तो उसमें कर्त्तव्यपरायणता (Fidelity) नामक मनोसामाजिक गुण विकसित हो जाता है जो किशोर को सामाजिक मूल्यों, आदर्शों तथा नियमों के पालन करने की ओर अभिप्रेरित करता है।
आत्मीयता बनाम अलगाव (Intimacy vs Isolation)
मनोसामाजिक विकास की यह छठी अवस्था है जो 20 वर्ष से लेकर 40 वर्ष की आयु तक चलती है। यह अवस्था व्यक्ति की प्रारम्भिक प्रौढ़ावस्था कहलाती है जिसमें वह दूसरों के साथ अपने सम्बन्ध स्थापित करने के लिए तलाशरत रहता है जो व्यक्ति दूसरों के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित करने में सफल रहता है तथा दूसरे लोगों से भी उसे सकारात्मक अनुक्रिया प्राप्त होती है तो उसमें एक आत्मीयता का भाव विकसित होता है लेकिन जो व्यक्ति अपनी समाज में पहचान बनाने में अधिक सफल नहीं हो पाते हैं उनके दूसरे लोगों से घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्ध भी नहीं हो पाते हैं और वे संवेगात्मक अलगाव, अकेलेपन तथा अवसाद (Depression) पीड़ित रहते हैं। जो लोग इस अवस्था में आने वाले आत्मीयता बनाम अलगाव के संघर्ष (Crisis) का सफलतापूर्वक समाधान कर लेते हैं उनमें प्रेम (Affection) नामक मनोसामाजिक गुण विकसित हो जाता है, जो उसे दूसरों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता, ईमानदारी तथा समर्पणता का भाव रखने के लिए प्रेरित करता है। जो इस संघर्ष में सफल नहीं हो पाते हैं वे दूसरों का प्यार पाने में असमर्थ रहते हैं तथा समाज से अलग-थलग पड़ जाते हैं। इरिक्सन का मत है कि स्वयं की सशक्त पहचान (Personal identity) का भाव आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिए अति आवश्यक है।
जननात्मकता/उत्पादकता बनाम स्थिरता (Generativity vs Stagnation)
मनोसामाजिक विकास की यह सातवीं अवस्था है जो 40 वर्ष से लेकर 65 वर्ष की अवस्था तक चलती है। यह व्यक्ति की मध्य प्रौढ़ावस्था होती है। इस अवस्था में वह अपने तथा परिवार एवं समाज के लिए कुछ ऐसा कार्य करना चाहता है जिससे ऐसे उत्पाद या रचना का सृजन होता है जो अगली पीढ़ी के लिए कल्याणकारी हो। व्यक्ति के इस भाव को इरिक्सन ने जननात्मकता का नाम दिया है, जो शिक्षक तथा परिवार के लोग बालकों के भविष्य को सवारने के प्रति सतर्क तथा चिन्तित रहते हैं उनको यह जननात्मकता का भाव ही ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है। जो व्यक्ति इस अवस्था में अपने को सफल मानते हैं, वे सोचते हैं कि हम अपने परिवार तथा समाज में सक्रिय रहकर विश्व कल्याण में योगदान दे रहे हैं। जो इस प्रकार के जननात्मक भाव के कौशल (Skill) को प्राप्त करने में असफल रहते हैं उनमें यह भाव उत्पन्न होता है कि वे अकर्मण्य रहे तथा अगली पीढ़ी के लिए कुछ न कर पाये। इस तरह के भाव (Feeling) को इरिक्सन ने स्थिरता (Stagnation) कहा है। जो व्यक्ति जननात्मकता बनाम स्थिरता के संघर्ष (Crisis) का सफलतापूर्वक हल कर लेते हैं उनमें एक मनोसामाजिक क्षमता (Psychosocial Capacity) उत्पन्न हो जाती है जिसको इरिक्सन ने देखरेख (Care) का नाम दिया है।
पूर्णता बनाम निराशा (Integrity Vs Despair)
यह मनोसामाजिक विकास की आठवीं एवं अन्तिम अवस्था है जो 65 वर्ष की आयु से लेकर मृत्यु तक चलती है। इस अवस्था को बुढ़ापा (Old age) कहा जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति वर्तमान और भविष्य की अपेक्षा अपने बीत दिनों की ओर अधिक ध्यान केन्द्रित करता है और अपनी सफलताओं, उपलब्धियों तथा असफलताओं के बारे में आंकलन करता है। जो अवस्था में अपने आपको जीवन में असफल रहने के भाव से ग्रस्त रहते हैं, वे सोचते हैं कि हमारा जीवन व्यर्थ रहा तथा वे अनेक प्रकार से पश्चाताप करते हैं। वे जीवन की असफलताओं की कड़वाहट तथा निराशा (Despair) के भावों से पीड़ित रहते हैं। दूसरी ओर जो व्यक्ति अपनी सफलताओं और उपलब्धियों के बारे में सोचकर सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं उनमें पूर्णता (Integrity) का भाव विकसित होता है अर्थात् वे अपने जीवन को सार्थक समझते हैं। जब व्यक्ति पूर्णता बनाम निराशा के संघर्ष (Crisis) का सफलतापूर्वक हल निकाल लेता है तो उसमें एक विशेष मनोसामाजिक क्षमता (Psychosocial Capacity) का विकास होता है जिसे परिपक्वता (Maturation) कहा जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति मृत्यु तक भी बुद्धिमत्ता (Wisdom) का परिचय देते हुए सन्तुष्टि के भाव से जीवन यापन करते हैं।
शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने बालकों तथा किशोरों के विकास की अवस्थाओं को समझने तथा इन अवस्थाओं में विकसित होने वाले गुणों तथा क्षमताओं की व्याख्या करने में इरिक्सन के सिद्धान्त को काफी महत्वपूर्ण माना है। लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इरिक्सन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा है कि विकास की विभिन्न अवस्थाओं को इतनी अधिक कठोरता (Rigidity) के साथ विभक्त करना न्यायसंगत नहीं हैं क्योंकि विभिन्न गुणों का विकास अन्य वैयक्तिक विभिन्नताओं के कारण अलग-अलग व्यक्तियों में समान अवस्था में नहीं होता है।