बालक हर परिस्थिति में कुछ-न-कुछ अवश्य सीखता रहता है। जिस तरह का वातावरण होगा उसी के अनुरूप सीखने की क्रिया भी सम्बन्धित होती है। वातावरण में कुछ कारक सकारात्मक होते हैं तो कुछ कारक नकारात्मक होते हैं जो बालक के अधिगम को बहुत प्रभावित करते हैं। अतः किसी ज्ञान तथा क्रिया को सीखने के लिये कारकों की उचित व्यवस्था आवश्यक है। अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक इस प्रकार हैं-
Table of Contents
अधिगम को प्रभावित करने वाले सकारात्मक और नकारात्मक कारक
समुचित अधिगम वातावरण (Suitable Learning Environment)
अधिगम को प्रभावित करने वाले कारकों में वातावरण का प्रमुख स्थान है। शान्त एवं शैक्षिक वातावरण अधिगम की प्रायिकता (Probability) को बढ़ाता है। वातावरण के अनेक घटक सीखने पर प्रभाव डालते हैं। शोरगुल, प्रदूषण, तापक्रम, प्रकाश, भौतिक संसाधन इत्यादि सभी महत्वपूर्ण ढंग से अधिगम के प्रत्यक्ष प्रभावशाली कारक हैं। मनोवैज्ञानिक वातावरण भी सीखने का अप्रत्यक्ष महत्वपूर्ण कारक है। छात्रों का पारस्परिक सहयोग, सहानुभूति, मनोबल एवं प्रतिस्पर्धा की भावना सीखने की मात्रा के परिचायक हैं। उचित वातावरण से छात्र को स्वस्थ प्रतियोगिता मिलती है जिससे उसमें अभिप्रेरणा उत्पन्न होती है और वह सीखने के लिए कटिबद्ध हो जाता है।
अधिगम की परिस्थितियाँ (Suitations of Learning)
परिवार, विद्यालय एवं समाज का विभिन्न परिस्थितियों पर सीखना निर्भर करता है। इन परिस्थितियों का बालक की मनोदशा एवं जीवन की क्रियाओं पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। विद्यालय की कार्य प्रणाली, अनुशासन, प्रशासन, व्यवस्था, मान्यता सभी अधिगम से सम्बन्धित तत्व हैं। पुस्तकालय, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, अन्य शैक्षिक संसाधन एवं सामूहिक कार्यक्रम भी सीखने के क्षेत्र में अद्वितीय प्रगतिशील कारक हैं। उपयुक्त शैक्षिक वातावरण का जितना अधिक संयोग होगा उतना ही अधिक स्थायी एवं सफल अधिगम होगा।
सीखने की इच्छा (Will to Learn)
बिना आत्मप्रेरणा के सीखना निरर्थक है। बिना इच्छाशक्ति के सब क्रिया अधूरी ही रह जाती है। अध्ययन-अध्यापन में प्रेरणा तथा इच्छा का सीखने से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अध्यापक को इस इच्छाशक्ति को बढ़ाने के लिए छात्रों को समुचित प्रेरित करना चाहिए, जिससे उनमें सीखने की स्वयं रुचि उत्पन्न हो सके।
परिपक्वता (Maturation)
अधिगम की क्रिया में बालकों की शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता का योग विशेष रहता है। छोटी कक्षाओं में बालकों की माँसपेशियों को प्रशिक्षण दिया जाता है। बड़ी कक्षाओं में छात्रों की बुद्धि, योग्यता, क्षमता आदि को ध्यान में रखकर ही पाठ पढ़ाया जाता है। बालकों को सिखायी जाने वाली क्रियायें उनकी आयु तथा क्षमता के अनुकूल होनी चाहिए।
थकान और विश्राम
सीखने की क्रिया को थकान एवं विश्राम भी प्रभावित करते हैं। थक जाने पर सीखना सम्भव नहीं होता। समय विभाग चक्र (Time Table) बनाने में थकान तथा विश्राम का ध्यान रखना आवश्यक होता है।
अभ्यास (Practice)
सीखने की स्थिरता के लिए अभ्यास आवश्यक है। किसी कार्य में कुशलता या पूर्णता प्राप्त करने के लिए अभ्यास की क्रिया महत्वपूर्ण है। थार्नडाइक के अनेक प्रयोगों से प्रतीत होता है कि अभ्यास से अनुबन्ध दृढ़ होते हैं। बालक का सीखना उसकी शक्ति के अनुसार अभ्यास क्रिया पर निर्भर करता है।
अधिगम विधि (Learning Method)
छात्र अपनी एक विशिष्ट शैली से वस्तु सीखने का प्रयास करता है। मनोवैज्ञानिक विधियों से विषय-वस्तु का विषय अध्ययन, सीखने को अधिक सरल बनाता है। खेल विधि, करके सीखना (Learning by doing), योजना पद्धति से सीखना आदि अनेक प्रभावकारी विधियाँ हैं जिनमें अधिगम क्रिया अधिक रुचिकर और उपयुक्त हो जाती है।
उपयुक्त विधि (शिक्षण) से विषयवस्तु में रुचि उत्पन्न हो जाती है। शिक्षण में शिक्षण सामग्री जैसे मॉडल, चार्ट, ग्लोब फिल्म आदि का उपयोग सीखने में सहायक होता है।
शारीरिक कारक (Physiological Factors)
अधिगम को प्रभावित करने वाले कारकों में शारीरिक कारकों का मुख्य स्थान है। सीखने वाले प्रयोज्य की शारीरिक स्थिति पर अधिगम की मात्रा निर्भर करती है। यदि बालक शारीरिक एवं मानसिक रूप से रोगी है तो वह सीखने में अधिक दक्ष नहीं हो सकता है। यदि मानसिक योग्यता, बुद्धि, आकांक्षा स्तर आदि बालक में अधिक है तो अधिगम की मात्रा और इसके गुणों में वृद्धि होगी। सीखने वाले की ज्ञानेन्द्रियाँ यदि कमजोर अथवा दोषपूर्ण हों तो निश्चय ही अधिगम कम होगा।
अध्यापक की विशेषताएँ (Teacher’s Characteristics)
कुछ अध्यापकों द्वारा पढ़ाया गया पाठ छात्रों को अधिक रुचिकर लगकर तुरन्त याद हो जाता है। अध्यापक के वैयक्तिक गुणों का प्रभाव भी छात्रों के सीखने की क्रिया पर पड़ता है। उसकी बुद्धिमता, अध्यापन शैली, योग्यता, अनुभव छात्रों की अधिगम प्रणाली में सहायता पहुँचाते हैं। प्रेरणा के सभी स्रोतों का समुचित उपयोग अधिगम की मात्रा तथा गुण को बढ़ाता है। पुरस्कार, दण्ड, परिणामों का ज्ञान सभी का यदि अध्यापक उपयोग करता है तो बालकों को सीखने में अधिक प्रेरणा मिलेगी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि अध्यापक कहाँ तक विशिष्ट प्रभावकता गुणों से सम्पन्न है। अध्यापक के कार्य, व्यवहार, व्यक्तित्व, ज्ञान सभी का बालकों के सीखने पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
अधिगम सामग्री का स्वरूप (Nature of Learning Material)
विषयवस्तु का निर्धारण अध्यापक द्वारा किया जाता है। सरल, सार्थक एवं रोचक सामग्री से अधिगम की गति अधिक तीव्र एवं सुगम होती है। शिक्षण सूत्रों के सिद्धान्त पर संगठित सामग्री सीखने के क्रम एवं क्रिया को सरलता प्रदान करती है। इसमें पदों की आकृति आकार एवं अन्य विशेषताओं के आधार पर अधिगम सामग्री में सम्बद्धता हो तो भी सीखने की प्रक्रिया शीघ्र सम्पादित हो सकता है।
पाठ्यवस्तु छात्रों के मानसिक परिपक्वता के अनुकूल होनी चाहिए। पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण सरल से कठिन की ओर, ज्ञात से अज्ञात, मूर्त से अमूर्त आदि रूपों में होना चाहिए।
उपचारात्मक शिक्षण
बालकों की दुर्बलताओं को दूर करके उपचारात्मक शिक्षण द्वारा बहुत कुछ सिखाया जा सकता है।
अधिगम पठार (Plateau of Learning)
अधिगम की प्रक्रिया में एक स्थिति ऐसी आती है जब सीखने की गति में कोई प्रगति नहीं होती। यह स्थिति अधिगम पठार (Plateau of Learning) कहलाती है। अधिगम पठार के कई कारण हो सकते हैं जैसे शारीरिक सीमा, गलत पद्धति, प्रेरणा का अभाव, गलत क्रम, अभ्यास का अभाव, सामग्री का एकांकीपन या त्रुटियों का स्थानान्तरण आदि। पठार को दूर करने के लिए शिक्षण विधि में परिवर्तन प्रेरणा तथा उद्दीपन, पाठ्य सामग्री का पुनर्संगठन, कार्य में परिवर्तन, विश्राम आदि उपायों का सहारा लेना चाहिए।
आदतें (Habits)
अच्छी आदतें सीखने में सहायक होती हैं। बुरी आदतें सीखने की क्रिया में अवरोध उत्पन्न करती हैं। अध्यापक को चाहिए कि वे बच्चों को नियम, संयम, सादगी एवं उच्च विचारों एवं आदर्शों का जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दें।
सम्प्रत्यय निर्माण (Concept Formation)
सीखने की क्रिया में सम्प्रत्ययों का स्पष्टीकरण बहुत आवश्यक है। सम्प्रत्ययों के स्पष्टीकरण न होने से चिन्तन एवं तर्क की क्रिया नहीं चल सकती।
दुश्चिता (Anxiety)
दुश्चिता सीखने की प्रक्रिया में रुकावट समझी जाती है। दुश्चिता सीखने में अवरोध तब उत्पन्न करती है, जब यह अत्यधिक होता है। मध्य मात्रा में दुश्चिता सीखने को प्रोत्साहित करती है।
नशीली वस्तुएँ
यह धारणा निर्मूल है कि नशीली वस्तुएँ सीखने की योग्यता को बढ़ा देती हैं। वह कुछ काल तक उत्तेजना देने में तो सफल हो जाती हैं, परन्तु सीखने की योग्यता स्थाई रूप में उनके द्वारा नहीं बढ़ सकती। अपितु ये मानसिक विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं।
अधिगम को प्रभावित करने वाले कुछ सकारात्मक व नकारात्मक कारकों का अध्ययन करेंगे जैसे- अवधान, प्रोत्साहन, रुचि पुरुस्कार एवं दण्ड आदि।
अवधान (Attention)
सीखने पर ध्यान या अवधान का सीधा एवं सकारात्मक सम्बन्ध है। व्यक्ति प्रत्येक कार्य को अवधान केन्द्रित होकर करता है। शिक्षा मनोविज्ञान में अवधान का महत्व इसलिये है कि यह अधिगम की महत्वपूर्ण क्रिया है। कुछ सीखने की इच्छा रखते हैं तब हमें उस पर ध्यान देने की आवश्यकता अवश्य होती है तभी हम उस कार्य को सीख पाते हैं। अवधान का सम्बन्ध जागरूकता है जो हमें सीखने से सम्बन्धित रखता है।
रुचि (Interest)
रुचि को एक शक्तिशाली अभिप्रेरक शक्ति या आकर्षण केन्द्र के रूप में जाना जा सकता है जो हमारे सभी प्रकार के कार्य व्यापार को पूरी तरह से प्रभावित करती है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया भी इससे अछूती नहीं रहती। सीखने वाला जिन चीजों में रुचि लेता है, उनकी ओर विशेष रूप से ध्यान देता है, ठीक तरह उनका अध्ययन-मनन करता है, उन्हें अपनी स्मृति में संजोये रखता है तथा किसी-न-किसी रूप में उनको उपयोग में लाता रहता है। इसके ठीक विपरीत जिसकी किसी चीज में रुचि नहीं होती, वह उसे जानने, समझने, सीखने तथा उपयोग में लाने के प्रति उन्मुख ही नहीं होता और अगर उसे विवश भी किया जाता है तो कोई सन्तोषजनक परिणाम सामने नहीं आते।
प्रोत्साहन (Incentive)
प्रोत्साहन भी एक ऐसा कारक है जो सीखने को बेहद प्रभावित करता है। प्रोत्साहन का तात्पर्य उन पदार्थों या बाह्य परिस्थितियों से है जो उद्देश्य पूर्ति करके सन्तोष प्रदान करते हैं, जिसमें व्यक्ति सीखने को प्रेरित होते हैं। जिन सीखे हुए कार्यों हेतु प्रोत्साहन दिये जाते हैं उन कार्यों को व्यक्ति बार-बार दोहराना चाहता है। प्रोत्साहन सकारात्मक (Positive) तथा नकारात्मक (Negative) दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
प्रशंसा, पुरस्कार, धन आदि सकारात्मक प्रोत्साहन है तथा कष्ट एवं दण्ड जिनके द्वारा हम किसी आपेक्षित व्यवहार को रोकना चाहते हैं नकारात्मक प्रोत्साहन है।
सकारात्मक प्रोत्साहन से प्रसन्नता या आनन्द की अनुभूति होती है तथा उसे व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है और उस व्यवहार को बार-बार दुहराना चाहता है अर्थात् हम कह सकते हैं कि यह कारक सीखने का प्रभावशाली ढंग से प्रभावित करता है। इसके विपरीत नकारात्मक प्रोत्साहन से व्यक्ति बचना चाहता है।
विद्यालयों में बालकों को अनेक प्रकार के पुरस्कार दिये जाते हैं जैसे- इनाम, अध्यापक द्वारा प्रशंसा, कक्षा में मित्रों द्वारा स्वीकृति इत्यादि। बालकों से आशा की जाती है कि वे इन पुरस्कार इत्यादि को प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे। यही पुरस्कार प्रोत्साहन (Incentives) कहलाते हैं। यह विश्वास किया जाता है कि यह विद्यार्थियों को अधिक अच्छा कार्य करने के लिये, या सीखने हेतु प्रोत्साहित करते हैं।
पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and Punishment)
पुरस्कार एवं दण्ड छात्रों को प्रेरित करने की महत्वपूर्ण प्रविधि है। ये दोनों बाह्य प्रेरणा के स्रोत कहे जाते हैं। पुरस्कार किसी प्रशंसनीय कार्य के लिए दिया जाता है। इससे बालकों से रुचि उत्पन्न होती है। उनका मनोबल बढ़ता है और कार्य को करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। पुरस्कार को भौतिक पदार्थ, प्रशंसा या मनोवैज्ञानिक- किसी भी रूप में दिया जा सकता है। इससे आत्म-सम्मान, अहं की सन्तुष्टि, खुशी, आत्मविश्वास आदि भावनाओं का विकास होता है। छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित करने में इसका सकारात्मक प्रभाव होता है। अध्यापक को यह ध्यान रखना चाहिए कि छात्र पुरस्कार के महत्व को समझें और छात्रों में बाह्य परिस्थितियों में भी स्वयं सीखने की जिज्ञासा का विकास हो।
प्रशंसा और निन्दा (Praise and Blame)
व्यक्ति अपनी उपलब्धियों के लिए कुछ-न-कुछ प्रशंसा प्राप्त करने का इच्छुक रहता है। कई मनोवैज्ञानिकों ने प्रशंसा तथा होता है कि बालकों को प्रेरित करने में निन्दा की अपेक्षा प्रशंसा अधिक प्रभावशाली होती निन्दा (Reproof) के प्रभाव को जानने के लिए प्रयोग किए। हरलॉक के अध्ययन से ज्ञात है। निन्दा का प्रयोग गलत कार्य या अनुचित कार्यों के लिए किया जाए तो उसका अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। परन्तु कई अध्ययनों से यह निष्कर्ष ज्ञात होता है कि प्रशंसा एवं निन्दा का प्रभाव वैयक्तिक भिन्नता से सम्बन्धित होता है। प्रशंसा को अच्छी दृष्टि, मुस्कराहट, शाब्दिक, (जैसे शाबास, बहुत अच्छा आदि) द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। परन्तु अध्यापक को इनका प्रयोग अधिक सावधानी से करना चाहिए। प्रशंसा एवं निन्दा का सफल प्रयोग छात्रों के स्वभाव, व्यक्तित्व एवं पूर्ण प्राप्त अनुभवों पर आधारित होता है। कमजोर छात्रों पर निन्दा का प्रयोग मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अनुचित होगा।
सफलता और असफलता (Success and Failure)
यदि हमें किसी कार्य में सफलता मिलती है तो हमारी रुचि ऐसे कार्यों के प्रति और अधिक बढ़ जाती है। इस प्रेरणा प्रविधि का प्रयोग सामान्य स्तर के बालकों के लिए विशेष महत्व रखता है। बरनार्ड का कथन है कि सफलता से व्यक्ति में आत्मविश्वास का विकास होता है, जिसके आधार पर वह अपनी योग्यता के अनुसार जीवन लक्ष्यों को निर्धारित करता है। सफलता प्रेरणा का महत्वपूर्ण कारक है। प्रतिभाशाली छात्रों के लिए असफलता भी प्रेरणा का कार्य करती है। ये छात्र असफलता को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं और कार्य के प्रति उनका प्रोत्साहन और अधिक सबल हो जाता है।
प्रतियोगिता एवं सहयोग (Competetion and Cooperation)
वर्तमान युग में जीवन के हर क्षेत्र में प्रतियोगिता का विशेष महत्व है। यह प्रेरणा की एक स्वस्थ प्रवृत्ति है। इसका स्वरूप व्यक्तिगत या सामूहिक दोनों हो सकते हैं। छात्र एक-दूसरे से अधिक अंक प्राप्त करना चाहते हैं। विभिन्न सेवाओं के चयन में ऐसी परीक्षाओं का प्रावधान होता है। छात्र प्रतियोगिता के माध्यम से उच्च उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है। अतः यह अधिक परिश्रम करने की प्रेरणा देती है। सामूहिक प्रतियोगिता सहयोग की भावना उत्पन्न करती है और इससे सामूहिक रूप से कार्य को करने में प्रोत्साहन मिलता है। सहयोग द्वारा मिल-जुलकर कार्य करने की प्रवृत्ति जागृत होकर अधिक उन्नति किया जा सकता है। सहयोग लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों को विकसित करने के लिए प्रेरित करता है। सामाजीकरण के विकास में भी सहयोग प्रेरणा अधिक प्रोत्साहन प्रदान करती है।