शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त (General Principles of Teaching)

शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए अनेक दार्शनिकों, शिक्षा विशेषज्ञों तथा समाजशास्त्रियों ने अनेक शोध तथा प्रयोग एवं गहन चिन्तन किया है जिसके फलस्वरूप शिक्षण के क्षेत्र में अनेक शोध एवं प्रयोग सम्पन्न किए गए। शिक्षण के क्षेत्र में हुए इन शोध, प्रयोग तथा सामान्य परम्पराओं के फलस्वरूप शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त विकसित हुए हैं। प्रमुख सामान्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

Table of Contents

निश्चित उद्देश्यों का सिद्धान्त (Principle of Definite Objectives)

इस सिद्धान्त का अर्थ है कि प्रत्येक पाठ का एक निश्चित उद्देश्य अवश्य होना चाहिए। यह उद्देश्य स्पष्ट, निश्चित तथा पूर्ण परिभाषित होना चाहिए। निश्चित उद्देश्य, शिक्षक को प्रभावशाली ढंग से पाठ पढ़ाने में और छात्रों को सफलतापूर्वक पढ़ने में मदद करता है। बिना स्पष्ट उद्देश्यों के पढ़ाना शिक्षण नहीं होता।

अनुकूलता का सिद्धान्त (Principle of Adaptability and Flexibility)

शिक्षण प्रक्रिया एक जीवन्त क्रिया है, जिसे छात्र और शिक्षक मिलकर करते हैं। अत: इसे परिस्थितियों एवं तत्त्वों के अनुसार लचीला होना चाहिए तभी यह छात्रों के अनुकूल बन सकती है। इसके लिए शिक्षक को सृजनात्मक तथा सूझबूझ युक्त होना चाहिए जो आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण में परिवर्तन ला सके।

सक्रियता का सिद्धान्त (Principle of Activeness)

शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक और छात्रों के मध्य अन्त:क्रिया होती है। शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह शिक्षण में क्रियाशीलता बनाए रखे, जिससे छात्र सक्रिय होकर उसमें भाग ले सकें। इसके लिए शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों की मूल-प्रवृत्तियों एवं इन्द्रिय संवेदनाओं (Sense) का अधिकतम प्रयोग करे तथा प्रत्येक सैद्धान्तिक ज्ञान का प्रयोगात्मक पक्ष भी प्रस्तुत करे एवं छात्रों को स्वयं करके सीखने के अवसर प्रदान करे। छात्र जितनी सक्रियता से सीखेंगे, शिक्षण उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा।

जनतन्त्रीय व्यवहार का सिद्धान्त (Principle of Democratic Behaviour)

छात्र के व्यक्तित्व के विकास हेतु जनतन्त्रीय व्यवस्था उत्तम मानी गई है, क्योंकि यह उन्हें स्वचिन्तन तथा स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करती है। साथ ही उनमें आत्म-विश्वास, आत्म- गरिमा, आत्म-सम्मान आदि गुणों का विकास करती है। अत: शिक्षक को कक्षा में जनतन्त्रीय प्रणाली अपनानी चाहिए, तानाशाही नहीं।

पूर्व अनुभवों का सिद्धान्त (Principle of Past Experienccs)

शिक्षक सर्वप्रथम छात्रों के पूर्वज्ञान तथा पूर्व व्यवहार एवं पूर्व अनुभवों की जानकारी प्राप्त करता है और इन्हीं के आधार पर नवीन ज्ञान प्रदान करता है। इससे शिक्षण प्रक्रिया काफी सरल, सुगम तथा उपादेव हो जाती है।

बाल केन्द्रितता का सिद्धान्त (Principle of Child Centredness)

एक अच्छा शिक्षक सदैव अपने शिक्षण को छात्रों की आवश्यकताओं, क्षमताओं, रुचियों, अभिरुचियों, आयु तथा मानसिक स्तर आदि के अनुसार व्यवस्थित करता है । इस प्रकार वह शिक्षण को बाल-केन्द्रित बनाता है।

व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)

प्रत्येक छात्र की बुद्धि, स्वभाव, योग्यताएँ, रुचि एवं क्षमताएँ एक समान नहीं होती हैं। उनमें विभिन्नता होती है। एक अच्छा शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए ही शिक्षण व्यवस्था करता है।

वास्तविक जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Living with Actual Life)

एक उत्तम शिक्षक, शिक्षण करते समय क्रिया तथा विषय वस्तु को छात्रों के जीवन से सम्बन्धित करके पढ़ाता है। छात्रों को जो क्रियाएं या विषय-वस्तु जीवन में ज्यादा उपयोगी लगती हैं, उन्हें जल्दी सीखते हैं और भविष्य में उनका सही ढंग से सही जगह उपयोग करता है। कहा भी गया है-
“Education and life are Iwo different names for the same phenomenon. Education which does not prepare the student for life. is mcaningless.

समवाय का सिद्धान्त (Principle of Correlation)

इस सिद्धान्त का अर्थ है किसी भी विषय को जब भी पढ़ाया जाय उसका सम्बन्ध विभिन्न विषयों के साथ भी स्पष्ट किया जाना चाहिए। विज्ञान, आर्ट, संगीत आदि विषयों से जोड़ना चाहिए । इसी प्रकार से प्रकरण विशेष का सम्बन्ध उस विषय के अन्य प्रकरणों से जोड़कर बताना चाहिए।

नियोजन का सिद्धान्त (Principle of Planning)

शिक्षण से पूर्व जो कुछ शिक्षक को पड़ाना है उसको विस्तृत योजना बनानी चाहिए, नियोजन का सिद्धान्त है। शिक्षण के वांछित उद्देश्यों को प्राप्ति, बिना योजना अथवा नियोजन के सम्भव नहीं होती। अत: वास्तविक पूर्व शिक्षण का पूर्ण नियोजन करना चाहिए कि उसे क्या पढ़ाना है।

चयन का सिद्धान्त (Principle of Selection)

शिक्षक के उद्देश्यों के अनुसार पाव-वस्तु का चयन करना चाहिए। यह सिद्धान्त हमें निर्देश देता है कि शिक्षण हेतु केवल उन तथ्यों/विषय-वस्तु का चयन किया जाए जिनका पढ़ाना उद्देश्यों के अनुसार अभोष्ट है। दूसरे शब्दों में निश्चित, स्पष्ट तथा पूर्ण परिभाषित उद्देश्यों के अनुसार पाठ्य-वस्तु का चयन करना चाहिए अन्यथा शिक्षण में अनेक प्रकार की अनावश्यक बातें आ जाएंगी।

प्रभावशाली व्यूह रचनाओं का सिद्धान्त (Principle of Effective Strategies)

शिक्षक को चाहिए कि वह पढ़ाने से पहले अत्यन्त सावधानीपूर्वक विषय के शिक्षण के लिए व्यूह रचनाओं का चयन, निर्माण एवं उपयोग करे। व्यूह रचनाओं के चयन के समय, छात्रों की आवश्यकता, स्तर तथा पूर्वज्ञान का ध्यान रखना चाहिए।

अनुकूल वातावरण तथा उचित नियन्त्रण का सिद्धान्त (Principle of Conducive Environment and Proper Control)

प्रभावशाली अधिगम के लिए अनुकूल वातावरण की आवश्यकता होती है। एक अच्छा शिक्षक कक्षा की स्वच्छता, प्रकाश, रोशनदान, बैठने की उचित व्यवस्था पर ध्यान देता है। वह प्राचार्य, दूसरे शिक्षकों तथा छात्रों के साथ उचित सम्बन्ध स्थापित करता है। इस प्रकार वह विद्यालय में प्रभावशाली अधिगम के लिए भौतिक एवं सामाजिक वातावरण को अनुकूल बनाकर उचित नियन्त्रण रखने का प्रयास करता है।

उपचारात्मक शिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Remedial Teaching)

शिक्षक अपने छात्रों की कमियों, कमजोरियों तथा त्रुटियों का पता लगाकर उनका सुधार उपचार करता है। इस प्रकार उन्हें कक्षा स्तर तक पहुंचने में सहायता करता है।

क्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of Activity)

फ्रोबेल (Froebel) के अनुसार कार्य करके सीखना (Learning by Doing) अधिगम की सर्वोत्तम विधि है। छात्र यदि अपने हाथों और हृदय साथ मिलकर कार्य करते हैं, शिक्षक उन्हें यथोचित निर्देशन प्रदान करते हैं. तो छात्र ‘स्वयं कार्य करके’ प्रभावशाली विधि से जल्दी और स्थायी ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। प्रोजेक्ट विधि, डाल्टन योजना, खोज विधि आदि विधियाँ क्रियात्मक शिक्षण विधियाँ हैं, जिनमें छात्र स्वयं कार्य करके सीखते हैं।

विभक्तीकरण का सिद्धान्त (Principle of Division)

प्रभावशाली शिक्षण के लिए विषय- वस्तु को छोटी-छोटी विषय-यूनिटों में विभक्त करना चाहिए ताकि उन्हें हर बिन्दु स्पष्ट हो सके।

सहयोग का सिद्धान्त (Principle of Correlation)

शिक्षण एक सामाजिक क्रिया है। इसकी प्रकृति जनतन्त्रात्मक होती है। अत: शिक्षक और छात्रों के मध्य तथा छात्र-छात्र के मध्य भी सक्रिय सहयोग की भावना होनी चाहिए। इससे अधिगम को प्रभावशाली बनाने में सहायता मिलती है।

अभ्यास का नियम (Principle of Revision)

शिक्षक को कक्षा के अन्दर, आवश्यकतानुसार अच्छे अधिगम हेतु, पाठ की पुनरावृत्ति भी करनी चाहिए। पुनरावृत्ति से अभ्यास होता है और अभ्यास से उत्तम अधिगम होता है।

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