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आदर्शवाद (Idealism)
आदर्शवाद परंपरावादी प्राचीन समय में यूनान से प्रारंभ मानी जाती है। उसके पहले आदर्शवादी परंपरा थेल्स और हेप्पोक्रेट्स का नाम प्रसिद्ध है जिन्होंने संसार की उत्पत्ति स्वीकार की।
किन्तु वास्तविक रूप में सुकरात के समय में इसका नाम प्रसिद्ध हुआ लेकिन इनके शिष्य प्लेटो महोदय को आदर्शवाद का जन्मदाता माना जाता है।
लेकिन कुछ विद्वान आधुनिक समय में इसकी जन्मस्थली जर्मनी स्वीकार करते हैं।
आदर्शवाद अंग्रेजी के Idealism शब्द का हिंदी रूपांतरण है जिसकी उत्पत्ति प्लेटो के विचारवादी सिद्धांत से मानी जाती है।
यहाँ पर Idea शब्द का अर्थ विचार तथा इस ism से तात्पर्य शास्त्र से है इसी कारण इसे विचारवाद कहा जाता है।
इस दर्शन को विचारवाद, मनवाद, आध्यात्मवाद तथा प्रत्ययवाद इत्यादि नामों से भी जाना जाता है।
यह दर्शन शरीर की अपेक्षा मन और मस्तिष्क को महत्वपूर्ण स्थान देता है।
यह दर्शन विचारों में ही सत्य को खोजता है।
विचार के अतिरिक्त इस दर्शन में भाव तथा आदर्शों को स्वीकार किया जाता है।
यह दर्शन बालक के विकास तथा आध्यात्मिक मूल्यों को जीवन लक्ष्य स्वीकार करता है अर्थात् अंतिम सत्ता आत्मानुभूति की होती है जिसके कारण यह दर्शन अनेकता में एकता को स्वीकार करता है।
प्लेटो ने अपनी पुस्तक द रिपब्लिक(The Republic) में मुख्य रूप से इस दर्शन का प्रतिपादन किया।
इस दर्शन के अन्य दार्शनिकों में सुकरात, डेकार्टे, स्पिनोजा, बर्कले, काण्ट, एडम्स, फ्रोबेल तथा पेस्टोलॉजी के नाम भी प्रसिद्ध है।
आदर्शवादी शिक्षण को हम तीन रूपों में विभाजित कर सकते हैं-
तत्व मीमांसा
आदर्शवादी दर्शन की तत्व मीमांसा के अनुसार यह संपूर्ण दर्शन दो भागों में विभाजित है-
- विचार जगत
- वस्तु जगत
विचार जगत की सत्ता अपरिवर्तनीय,अनादि तथा अनंत है जबकि वस्तु जगत वह जगत है जहां पर हम रहते हैं।
विचार जगत दैवीय शक्तियों तथा नैतिक व्यवस्थाओं के लिए होती है जिसकी अभिव्यक्ति मस्तिष्क या विचारों के द्वारा होती है जबकि वस्तु जगत नश्वर जगत है जो परिवर्तनीय होता है।
कुछ विद्वान इन्हीं विचारों को प्रागानुभाविकवाद भी कहते हैं।
ज्ञान मीमांसा
ज्ञान मीमांसीय विचारधारा में आदर्शवाद दैवीय व्यवस्था अर्थात् विचारों के स्वरूप को जानना चाहता है। इस दर्शन के अनुसार उस विचार सत्ता को केवल विचारों के द्वारा जाना या समझा जा सकता है।
ये इंद्रियजन्य ज्ञान को स्वीकार नहीं करते।
मूल्य मीमांसा
इस दर्शन का अंतिम उद्देश्य सत्यं, शिवम् तथा सुन्दरम् के माध्यम से आत्मानुभूति करना होता है।
मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में सत्य को ज्ञान, शिव को प्रयत्न तथा सौंदर्य को इच्छा स्वीकार किया जाता है जिसके द्वारा बालक को नैतिक नियमों एवं आध्यात्मिक नियमों द्वारा आत्मानुभूति करना होता है।
आदर्शवाद में शिक्षण के उद्देश्यों को सबसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है क्योंकि आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्य अत्यन्त प्रमुख हैं।
- आत्मानुभूति का विकास
- आध्यात्मिक मूल्यों का विकास
- सत्यं, शिवम् तथा सुन्दरम् का विकास
- भौतिक जगत से मुक्ति
- व्यावहारिकता का विकास
- नैतिक आचरण की प्राप्ति
पाठ्यक्रम
आदर्शवादी शिक्षा के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण मानव के विचारों एवं आदर्शों तथा आत्मानुभूति के आधार पर होने चाहिए।
यह दर्शन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पाठ्यक्रम में आध्यात्मिकता को महत्व देते हुए भाषा, साहित्य, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र एवं अन्य विषयों को और क्रियाओं को स्थान देते हैं।
इस दर्शन के पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को सम्मिलित करने की सिफारिश की गयी है जिनके अध्ययन से शरीर, मन तथा आत्मा का स्वरूप स्पष्ट हो।
इस दर्शन में पाठ्यक्रम को अधिक विशेष महत्व प्राप्त नहीं है क्योंकि अलग-अलग व्यक्तियों ने अलग-अलग पाठ्यक्रमों के विषयों को स्वीकार किया है।
यह दर्शन उन विषयों को सम्मिलित करना चाहता है जिनमें सभ्यता तथा संस्कृति की झलक के साथ अनुशासन व्यवस्था हो।
शिक्षण विधि
यह दर्शन किसी विशेष शिक्षण विधि पर जोर नहीं देता अपितु आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्यों के निश्चित एवं स्पष्ट होने पर रूचि एवं योग्यता के अनुसार शिक्षण विधियों को स्थान देता है किंतु उनमें सहज बोध तथा तार्किक पद्धति सम्मिलित होती है।
आदर्शवादी दार्शनिकों द्वारा प्रमुख शिक्षण विधियां निम्न हैं-
- सुकरात– प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद, व्याख्यान
- प्लेटो– संवाद विधि
- हरबर्ट– निर्देशन या अनुदेशन विधि
- हीगल– आदर्शवाद
- पेस्टोलॉजी– अभ्यास एवं आवृत्ति विधि
इसके अतिरिक्त इस दर्शन में सामूहिक चर्चा, कहानी विधि तथा नाटक विधियों का भी प्रयोग किया जाता है।
शिक्षक
आदर्शवादी दर्शन में शिक्षक का स्थान अत्यंत उच्च कोटि का है।
इस दर्शन के अनुसार शिक्षक के बिना शिक्षण प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती है।
यह दर्शन बताता है कि बालक पूर्ण नहीं है तथा उसे पूर्णता की ओर ले जाने का कार्य शिक्षक का है।
प्लेटो के अनुसार ज्ञान के भंडार, दार्शनिक तथा अंतर्दृष्टि प्राप्त व्यक्ति को ही शिक्षक बनना चाहिए।
शिक्षार्थी
यह दर्शन आत्माधारी मनुष्य को स्वीकार करता है जिसमें सभी बालक समान होते हैं।
आदर्शवादियों के अनुसार शिक्षार्थी एक कटीली झाड़ी होती है जिसे साज-सवार कर पूर्णता की ओर ले जाया जाता है।
बालकों के विकास के लिए उनकी रुचि और आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
विद्यालय
दर्शन में बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिए उन्हें आत्मानुभूति कराने के लिए उच्च सामाजिक वातावरण की आवश्यकता होती है जो बालक को विद्यालय में प्राप्त होती है।
हार्न के अनुसार – “विद्यालय के अंतर्गत ही बालक देवत्व को समझ सकता है।” इसलिए विद्यालय की आवश्यकता होती है।
अनुशासन
आदर्शवादी शिक्षण व्यवस्था में अनुशासन को सबसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है जिसमें ये नियंत्रण के समर्थक होते हैं।
इस दर्शन के अनुसार बालक का पूर्ण विकास तभी संभव है जब वह अनुशासन में रहे।
यह दर्शन कठोर अनुशासन का समर्थक नहीं है लेकिन आत्मानुशासन, स्वानुशासन तथा प्रभावात्मक अनुशासन को स्वीकार करता है।
यह दर्शन जन शिक्षा को स्वीकार करता है लेकिन शूद्र शिक्षा तथा दासों की शिक्षा पर निषेध करता है।
यह दर्शन स्त्री शिक्षा को तो स्वीकार करता है लेकिन सह शिक्षा का समर्थक नहीं है।
यह दर्शन प्रौढ़ शिक्षा, धर्म शिक्षा और नैतिक शिक्षा को भी स्वीकार करता है।
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