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जॉन डीवी का शिक्षा दर्शन
आधुनिक शैक्षिक सिद्धांत और व्यवहार में जॉन डीवी का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति ला दी। उनके कई विचारों का आधुनिक शिक्षा पर बहुत प्रभाव पड़ा है। जॉन डीवी आज दुनिया के शिक्षकों की अग्रिम पंक्ति में खड़े हैं। शिक्षा पर उनके उत्कृष्ट कार्य एक सामाजिक समूह के भीतर मनुष्य के कामकाज की व्याख्या करने के लिए एक बहुत ही उपयोगी साधन प्रस्तुत करते हैं।
जॉन डीवी का जन्म 1859 ई. में अमेरिका में वारमॉण्ट के बर्लिंगटन नगर में हुआ था। 1879 ई. में इन्होंने वारमॉण्ट विश्वविद्यालय से बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात् जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय से काण्ट के दर्शन पर पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। 1894 ई. में 35 वर्ष की आयु में शिकागो विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के अध्यक्ष बन गए। यहाँ उन्हें दर्शन और शिक्षा दोनों विषय पढ़ाने का अवसर मिला। शिक्षा विषय में इनकी रुचि बढ़ती गई और 1896 ई. में इन्होंने अपने शिक्षा सिद्धान्तों को मूर्तरूप देने के लिए एक छोटे से प्रयोगात्मक विद्यालय की स्थापना की। तत्पश्चात् उन्होंने अपने विचारों को लेखबद्ध करना शुरू कर दिया।
इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-
‘इन्ट्रैस्ट एज रिलेटेड टू विल’,
‘माई पैडागॉजीकल क्रीड’,
‘द स्कूल एण्ड सोसायटी’,
‘द चाइल्ड एण्ड द करीक्यूलम’,
‘रिलेशन ऑफ थ्योरी टू प्रेक्टिस इन द एजूकेशन ऑफ टीचर्स’,
‘द स्कूल एण्ड द चाइल्ड’,
‘मॉरल प्रिन्सिपल्स इन एजूकेशन’,
‘हाउ वी थिंक’,
‘इन्ट्रैस्ट एण्ड एफर्ट इन एजूकेशन’,
‘स्कूल ऑफ टुमारो’,
‘डेमोक्रेसी एण्ड एजूकेशन’,
‘रिकन्सट्रक्शन इन फिलोसॉफी’,
‘ह्यूमन नेचर एण्ड कन्डक्ट’,
‘सोर्सेज ऑफ साइन्स एजूकेशन‘ आदि।
इन्होंने अनेक देशों में भ्रमण कर लोगों को अपने शैक्षिक विचारों से अवगत कराया। इन्होंने लगभग पचास ग्रन्थ लिखे। 1952 ई. में इनका देहावसान हो गया ।
जॉन डीवी प्रयोजनवादी विचारक थे। वे किन्हीं मूल्यों और शाश्वत सत्यों में विश्वास नहीं करते थे। उनकी मान्यता थी कि संसार परिवर्तनशील है इसलिए इसमें अपरिवर्तनशील सत्य और मूल्यों की कल्पना करना उचित नहीं कहा जा सकता। वे मनुष्य को इस परिवर्तनशील समाज में कुशलतापूर्वक रहना सिखाना चाहते थे।
जॉन डीवी का शैक्षिक दर्शन उनके सामान्य दर्शन को दर्शाता है और शिक्षा के प्रति उनके व्यावहारिक और प्रयोजनवादी दृष्टिकोण को दर्शाता है।
जॉन डीवी का शिक्षा से अभिप्राय
जॉन डीवी शिक्षा को एक सामाजिक प्रक्रिया मानते थे। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा न तो साध्य है और न ही मनुष्य के जीवन की तैयारी का साधन। यह तो स्वयं जीवन है। मनुष्य कुछ जन्मजात शक्तियाँ लेकर पैदा होता है। सामाजिक चेतना में भाग लेने से उसकी इन शक्तियों का विकास होता है। इन्हें जॉन डीवी ने शिक्षा का मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पक्ष माना है।
जॉन डीवी मनोवैज्ञानिक पक्ष में बालक की जन्मजात शक्तियों, रुचियों और व्यष्टिगत विशेषताओं को सम्मिलित करता है तथा सामाजिक पक्ष के अन्तर्गत सामाजिक दशाओं, परिवार, आस-पड़ोस, संघ, समूह, सभ्यता और संस्कृति को सम्मिलित करता है। मनुष्य समाज में रहते हुए नित्य नए अनुभव करता है और इन्हीं अनुभवों में से अपने तथा समाज के लिए उपयोगी अनुभवों का चयन करता है। इसी आधार पर जॉन डीवी ने कहा है कि, “शिक्षा अनुभव के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया है।”
जॉन डीवी के अनुसार, मनुष्य जीवन का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, चारित्रिक और व्यावसायिक विकास होता हैं। इस विकास से ही मनुष्य अपने प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण पर नियंत्रण रखता है तथा उससे जो कुछ प्राप्त कर सकता है उसे पाने का प्रयास करता है। इसी आधार पर जॉन डीवी की मान्यता है कि- “शिक्षा व्यष्टि में उन सब क्षमताओं का विकास है जो उसको अपने पर्यावरण पर नियंत्रण रखने और अपनी संभावनाओं की पूर्ति करने के योग्य बनाए।”

डीवी के अनुसार शिक्षा के सिद्धांत
शिक्षा के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
1. प्रयोजनवादी– किसी भी विचार, विश्वास या क्रिया को उसके परिणामों के आधार पर मापा जाता है और महत्व दिया जाता है। यदि उसका परिणाम व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी है तो उसे स्वीकार कर लिया जाता है अन्यथा अस्वीकृत कर दिया जाता है।
2. बाल केन्द्रित शिक्षा- प्रत्येक बच्चे को उसकी आवश्यकता, क्षमता और रुचि के अनुसार विकसित होने का पूरा अवसर और स्वतंत्रता दी जाती है। इस प्रकार, विद्यालय के वातावरण को यथासंभव अधिकतम स्तर तक लोकतांत्रिक बनाया जाता है।
3. सामाजिक उपयोगिता- विद्यालय लघु समाज है। इसलिए समाज की जरूरतों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यदि समाज में कुरीतियाँ व्याप्त हैं तो विद्यालय को चाहिए कि वे समाज को इन बुराइयों से मुक्त करें। स्कूल तभी समाज का स्वाभाविक हिस्सा बनते हैं, जब बच्चे के प्राकृतिक झुकाव और गतिविधियाँ उनके द्वारा परिलक्षित होती हैं।
4. आत्म अनुभव- बच्चे को चिंतनशील जांच और प्रयोग का उपयोग करके स्वयं सत्य की खोज करनी चाहिए। उसे दूसरों के अनुभवों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। सत्य वह है जो उपयोगी है और उपयोगी वह है जो सत्य है।
5. शिक्षा और समाज का सहसंबंध- शिक्षा वह है जो समाज को चाहिए। एक बच्चे का जीवन नैतिक मूल्यों के अनुसार व्यवस्थित होता है और नैतिक मूल्य और कुछ नहीं बल्कि सामाजिक मूल्य हैं।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा के कार्य
डीवी के अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित कार्य हैं-
1. वृद्धि के रूप में शिक्षा- शिक्षा वृद्धि की प्रक्रिया है। यह एक व्यक्ति को बढ़ने और विकसित करने में मदद करता है। असीमित विकास शिक्षा का सच्चा उद्देश्य है। यह वृद्धि भौतिक वृद्धि तक ही सीमित नहीं है। यह एक सतत प्रक्रिया है।
2. शिक्षा जीवन के रूप में- डीवी के अनुसार शिक्षा ही जीवन है और जीवन ही शिक्षा है। वास्तव में शिक्षा जीवन के अनुभवों द्वारा जीवन की तैयारी है। स्कूल बच्चे को जीवन के अनुभव प्रदान करता है।
3. सामाजिक दक्षता के रूप में शिक्षा- डीवी के अनुसार “जैसे शारीरिक जीवन के लिए पोषण और प्रजनन हैं वैसे शिक्षा सामाजिक है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते शिक्षा तर्क और सामाजिक कौशल के माध्यम से विकसित होता है और सामाजिक रूप से कुशल बनता है।
4. अनुभवों से भरी शिक्षा- डीवी के अनुसार, शिक्षा अनुभवों के निरंतर पुनर्निर्माण के माध्यम से जीने की एक प्रक्रिया है। शिक्षा अनुभव से, अनुभव के और अनुभव के लिए होती है। बदलती परिस्थितियों और जीवन की समस्याओं के आलोक में अनुभवों को पुनर्गठित किया जाता है।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
जॉन डीवी शिक्षा को जीवन मानते थे। डीवी शिक्षा के निश्चित उद्देश्यों में विश्वास नहीं करते थे। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति की जीवन स्थितियों से विकसित होना चाहिए। शिक्षा का यही उद्देश्य हो सकता है कि उसके द्वारा मनुष्यों में ऐसे गुणों और क्षमताओं का विकास किया जाए जिससे वह अपने वर्तमान जीवन को कुशलतापूर्वक जी सके तथा अपने भावी जीवन का मार्ग प्रशस्त कर सके। संक्षेप में जॉन डीवी के शिक्षा सम्बन्धी उद्देश्यों को निम्नरूपेण रेखांकित किया जा सकता है-
1. अनुभवों का पुनर्निर्माण तथा पर्यावरण के साथ समायोजन- जॉन डीवी की मान्यता है कि मानव जीवन गतिशील है, परिवर्तनशील है अस्तु उसकी शिक्षा भी गतिशील और परिवर्तनशील होनी चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य यही है मनुष्य अपने जीवन की गतिशीलता के साथ स्वयं को समायोजित करता चले।
2. सामाजिक कुशलता का विकास- मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज को समझने और उसमें स्वयं को समायोजित करने के कौशल को ही सामाजिक कुशलता कहा जा सकता है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्यों में इस सामाजिक कुशलता का विकास करना है।
3. लोकतंत्रीय जीवन का प्रशिक्षण – जॉन डीवी लोकतंत्रीय पद्धति के समर्थक थे। उनकी मान्यता थी कि लोकतंत्रीय समाज के सभी कार्यों में कुशलतापूर्वक भाग लेने के लिए व्यक्ति में स्वास्थ्य, क्रिया करने की क्षमता, योग्य गृहस्थ, व्यवसाय, नागरिकता, अवकाशकाल का उचित उपयोग, नैतिकता और चरित्र आदि क्षमताएँ होना जरूरी है। इन क्षमताओं का विकास करना शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों में शामिल है। किन्तु जॉन डीवी ने इनके लिए कोई मापदण्ड निर्धारित नहीं किया है क्योंकि समाज की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार इनका स्वरूप भी स्वतः बदलता जाएगा।
शिक्षा की पाठ्यचर्या
जॉन डीवी की मान्यता थी कि पाठ्यचर्या कृत्रिमता से दूर बालकों के वास्तविक जीवन की क्रियाओं पर आधारित होनी चाहिए। लक्ष्यों की तरह पाठ्यचर्या भी निश्चित या कठोर नहीं होनी चाहिए। चूँकि समाज गतिशील है, उसकी आवश्यकताएँ बदलती रहती है, इसलिए पाठ्यचर्या में समय और परिस्थितियों के अनुरूप बदलने का गुण होना चाहिए। उन्होंने बालकों की मनोवैज्ञानिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, विषय एवं क्रियाओं की उपयोगिता पर बल देते हुए उन्हें पाठ्यचर्या का आधार बताया है। उन्होंने पाठ्यचर्या के निर्माण के कतिपय आधार बताए हैं, यथा-
1. लचीलेपन का सिद्धांत- पाठ्यचर्या को एक बार में सभी के लिए निश्चित नहीं किया जाना चाहिए। यह लचीला होना चाहिए और विद्यार्थियों की रुचियों, आवेगों और अनुभवों से विकसित होना चाहिए। इसे बच्चे के सामाजिक जीवन और समाज में उसकी गतिविधियों को प्रतिबिंबित करना चाहिए।
2. उपयोगिता का सिद्धांत- पाठ्यचर्या में उन विषयों, गतिविधियों और अनुभवों को शामिल किया जाना चाहिए जिनकी कुछ उपयोगिता है और कुछ उपयोगी उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। उन्हें मानवीय समस्याओं को हल करने में मदद करनी चाहिए और अंततः अच्छी स्थिति में खड़े होना चाहिए।
3. बच्चे की गतिविधियों का सिद्धांत- पाठ्यचर्या बच्चों की गतिविधियों के चारों ओर व्यवस्थित होनी चाहिए। यह बच्चे के समकालीन अनुभव से संबंधित होना चाहिए।
4. एकीकरण का सिद्धांत- डीवी ने वकालत की कि विषयों, गतिविधियों और अनुभवों को एक पूरे में एकीकृत किया जाना चाहिए। निर्विवाद विभागीकरण से बचना चाहिए। बच्चे का मन एक पूर्ण एकता है।
संक्षिप्त में कहा जाए तो-
1. पाठ्यचर्या बालकों के अनुरूप तथा समाज केन्द्रित हो।
2. पाठ्यचर्या निर्धारित करते समय बच्चों की अभिरुचि का ध्यान रखा जाना चाहिए।
3. पाठ्यचर्या उपयोगी हो।
4. पाठ्यचर्या वास्तविक जीवन की क्रियाओं पर आधारित हो।
5. पाठ्यचर्या के सभी विषयों और क्रियाओं के मध्य सहसम्बन्ध हो।
6. पाठ्यचर्या लचीली हो। परिवर्तित समय के अनुसार पाठ्यचर्या में परिवर्तन लाया जा सके। पाठ्यचर्या परिवर्तित समाज की आवश्यकताओं की भली प्रकार पूर्ति कर सके।
शिक्षण विधियाँ
जॉन डीवी ने “हाउ वी थिंक” और “इंटरेस्ट एंड एफर्ट्स इन एजुकेशन” शीर्षक वाले अपने कार्यों में कक्षा-कक्ष शिक्षण के लिए अपना दृष्टिकोण दिया है। यहाँ उनका तर्क है कि शिक्षण की सबसे अच्छी विधि वह है जो करके सीखने और प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित है। शिक्षण के तरीके प्राकृतिक रुचि, प्रयास और प्रेरणा के सिद्धांतों पर आधारित होने चाहिए।
जॉन डीवी की मान्यता थी कि सीखने के लिए सामाजिक पर्यावरण जरूरी है। कोई भी व्यक्ति तभी सीख सकता है जब उसमें सामाजिक चेतना की जागृति हो तथा वह क्रियाशील हो। वे किसी पूर्व निश्चित तथ्य अथवा ज्ञान को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे। सबको प्रयोग की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करने के पक्ष में थे। अस्तु प्रयोग विधि उनकी दृष्टि में सीखने की उत्तम विधि मानी जा सकती है। इस विधि के अन्तर्गत अवलोकन, क्रिया, स्व-अनुभव, तर्क और निर्णय निकालना, परीक्षण आदि सम्मिलित हैं।
करके सीखने तथा अनुभव द्वारा सीखने पर बल देते हुए उन्होंने सीखने-सिखाने की क्रिया को बालकों की अभिरुचि पर आधारित होने की बात कही है। जॉन डीवी के अनुसार बालकों को बातचीत का अवसर देना चाहिए, स्वयं करके स्वयं खोजने का अवसर देना चाहिए, कुछ कार्य करने का अवसर देना चाहिए तथा उन्हें अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का अवसर देना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि बच्चे अपने जीवन की वास्तविक क्रियाओं में रुचि रखते हैं, अतः उन्हें जो कुछ सिखाया जाए वह उन्हें उनके वास्तविक जीवन पर आधारित वास्तविक क्रियाओं के माध्यम से सिखाया जाए। वे सभी विषयों एवं क्रियाओं की शिक्षा एक-दूसरे से सम्बन्धित मानते थे तथा इसी आधार पर सहसम्बन्ध विधि के पक्षधर थे। वे प्रोजेक्ट विधि को भी उपयोगी मानते थे।
अनुशासन
डीवी ने दण्डात्मक अनुसासन का विरोध तथा सामाजिक अनुशासन का समर्थन किया। उसने कहा कि अनुशासन सामाजिक जीवन के आधार पर उत्पन्न होता है। डीवी ने सामूहिक एवं सहकारी जीवन का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और कहा कि ‘कार्य को करने से कुछ परिणाम निकलते हैं। यदि इन कार्यों को सामाजिक एवं सहकारी ढंग से किया जाय तो अपने ढंग का अनुशासन पैदा होता है।’ इससे स्पष्ट है कि स्वतन्त्र रूप से कार्य करने पर स्वाभाविक अनुशासन उत्पन्न होता है। इसलिए बालकों को स्वतन्त्र एवं सामूहिक रूप से क्रिया करने का अवसर देकर स्वाभाविक अनुशासन उत्पन्न कराना चाहिए, ताकि उनमें नागरिकता के गुण पैदा हो, चरित्र का निर्माण हो और नैतिक गुणों का विकास हो।
डीवी के अनुसार अनुशासन एक प्रकार का आन्तरिक विकास है डीवी का कहना है कि यदि विद्यालय का सम्पूर्ण कार्य बालकों की स्वाभाविक रूचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार हो तो अनुशासन की सभ्यता ही नहीं उत्पन्न होगी। इससे अनुशासन की भावना उनमें स्वतः आ जायेगी। इसलिए शिक्षक को चाहिए कि वह ऐसा वातावरण प्रस्तुत करे जिससे बालक स्वतन्त्रता का अनुभव करे और अपनी रूचि के अनुसार उसे सामाजिक और सहकारी ढंग से कार्य करने का अवसर मिले।
शिक्षक
शिक्षा के क्षेत्र में डीवी ने शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है वह शिक्षक को समाज का सेवक मानता है। शिक्षक का कार्य विद्यालय में ऐसा सामाजिक वातावरण उत्पन्न करना है, जिससे बालक के सामाजिक व्यक्तित्व का विकास हो सके उसका कार्य बालकों को उपदेश देना या आज्ञा देना नहीं है, बल्कि बालकों का पथ प्रदर्शन करना है। इसलिए डीवी ने कहा है कि शिक्षक को सक्रिय संयोजक, निरीक्षक और पथ-प्रदेशक होना चाहिए। शिक्षक को चाहिए कि यह उनका सक्रिय रूप से निरीक्षण करे और आवश्यकता पड़ने पर उनकी मदद करे।
सामाजिक दृष्टि से डीवी ने शिक्षक को ईश्वर का प्रतिनिधि माना है। उसने अपनी पुस्तक ‘एजूकेशन आफ टुडे‘ (Education of Today) में लिखा है कि ‘शिक्षक सदैव ईश्वर का पैगम्बर है। वह ईश्वर के सच्चे राज्य में प्रवेश कराने वाला है।’
विद्यार्थी
डीवी, मनुष्य को वैयक्तिकता को महत्व देते हुए, उसका आदर करते हुए प्रत्येक बालक को उसके प्राकृतिक विकास के लिए स्वतंत्रता देने के पक्षधर हैं, वह बालक को उसकी रुचि अभिवृत्ति व आवश्यकता के अनुसार पूर्ण स्वतंत्रता देकर उसके सामाजिक व मनोवैज्ञानिक विकास के पक्ष पर जोर देता है। उसने यह नारा दिया कि प्रत्येक बालक को अपनी क्षमताओं के अधिकतम विकास करने के अवसर प्रदान करना चाहिए जिससे कि वह अपना समाज का हित कर सकें।
विद्यालय
डीवी के अनुसार शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। बालक समाज में रहकर ही वस्तुओं, भाषा व क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करता है। डीवी का कहना है कि सीखने की प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए उपयुक्त सामाजिक वातावरण की आश्यकता होती है। ऐसे उपयुक्त सृजन के लिए उसने विद्यालय को आवश्यक माना है। डीवी विद्यालय को समाज के लघु रूप में देखते है। इसलिए वो चाहते है कि विद्यालय का वातावरण सामाजिक वातावरण के समान हो।
डीवी ने शिक्षा के दो ध्रुव निर्धारित किए है- मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक
डीवी के अनुसार विद्यालय को बालकों की मनोवैज्ञानिक व सामाजिक आश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। डीवी, विद्यालयों को ज्ञान की दुकान के रूप में स्वीकार नहीं करते बल्कि उन्हें प्रयोगशाला के रूप में लेते है।
शिक्षा दर्शन की अन्य मान्यताएँ
1. जॉन डीवी शिक्षा को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार तथा शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का अनिवार्य कर्त्तव्य मानते थे ।
2. उन्होंने स्त्री-पुरुषों की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं करते हुए सभी को अपनी रुचि, रुझान एवं योग्यता और आवश्यकता के अनुसार विकास के स्वतंत्र और समान अवसर देना उचित समझा।
3. मनुष्य को रोटी-रोजी कमाने योग्य बनाने के लिए व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देना स्वाभाविक तौर पर उचित माना ।
4. जॉन डीवी ने धार्मिक और नैतिक शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व मूलभूत सामाजिक मूल्य और नैतिकता हैं। निःसंदेह प्रगतिशील शिक्षा और प्रगतिशील समाज जॉन डीवी की अमूल्य देन है।
जॉन डीवी के विचारों की आलोचना
जॉन डीवी के विचारों की कतिपय आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) जॉन डीवी का यह कहना कि जीवन के आदर्श एवं मूल्य पूर्व निश्चित नहीं होते उचित नहीं है। यदि इसे मान लिया जाए तो फिर पूर्व सांस्कृतिक धरोहर का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता।
(2) जॉन डीवी का यह कहना भी सत्य नहीं है कि जो उपयोगी हैं, वही सत्य, है क्योंकि संसार में बहुत-सी ऐसी वस्तुएँ हैं, जो सत्य हैं, किन्तु उपयोगी नहीं हैं।
(3) जॉन डीवी की विचारधारा आदर्शवाद का विरोध करती है और भौतिकता का समर्थन करती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि आज आदर्शवाद के अनादर से ही संसार में कलह, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिद्वन्द्विता और संकीर्ण राष्ट्रवाद की भावना प्रबल हो रही है।
(4) जॉन डीवी ने शिक्षा और जीवन को एक ही माना है, लेकिन उसने जीवन की परिभाषा और व्याख्या प्रस्तुत नहीं की, जिससे उसका यह विचार अस्पष्ट-सा है।
(5) जॉन डीवी का कहना है कि शिक्षा का कोई पूर्व निर्धारित उद्देश्य नहीं हो सकता, तर्कपूर्ण नहीं है, क्योंकि शिक्षा का कोई न कोई उद्देश्य तो होना ही चाहिए। बिना उद्देश्य के शिक्षा सुचारु रूप से नहीं दी जा सकती।
(6) विषयों का सहसम्बन्ध सर्वदा और सर्वथा उचित नहीं कहा जा सकता।
(7) जॉन डीवी का दर्शन एवं शिक्षा केवल वर्तमान पर आधारित है। उसे भूत एवं भविष्य की कोई ‘चिन्ता नहीं यह अमनोवैज्ञानिक है।
(8) जॉन डीवी ने क्रियात्मकता पर अत्यधिक बल दिया है, जो अनुचित है।
(9) जॉन डीवी का विद्यालय को लघु समाज कहना, विद्यालय के अपने महत्त्व की उपेक्षा करना है, विद्यालय समाज के विकास का एक साधन है न कि समाज का लघु रूप। यदि यह लघु रूप होगा तो समाज के दोषों से युक्त होगा और तो फिर यह समाज के दोषों का सुधार किस प्रकार कर सकेगा।
(10) जॉन डीवी का यह कहना भी व्यावहारिक नहीं है कि प्रत्येक बालक की स्वाभाविक रुचि और योग्यता के अनुसार उसके लिए शिक्षा योजना तैयार की जाए। बालकों की रुचियों और योग्यताओं में इतनी अधिक भिन्नता होती है कि प्रत्येक बालक के लिए शिक्षा योजना तैयार करना बहुत कठिन है।
(11) जॉन डीवी के पाठ्यक्रम में शारीरिक शिक्षा, सन्तान के पालन-पोषण की शिक्षा, अवकाश के समय के सदुपयोग की शिक्षा, मनोरंजन सम्बन्धी शिक्षा आदि को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है, जबकि व्यक्तित्व के विकास और मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इनका अपना महत्त्व है।
जॉन डीवी की शिक्षा को देन
आधुनिक शिक्षा पर जॉन डीवी के विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा है। आज दुनिया के सभी देश उसके शिक्षा सिद्धान्तों का अनुकरण कर रहे हैं। उसके सिद्धान्तों के आधार पर शिक्षा का पुनर्संगठन किया जा रहा है। शिक्षा के रूप, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधि, विद्यालय सभी पर जॉन डीवी के विचारों का क्रान्तिकारी। प्रभाव पड़ा है। तभी तो यह कहा गया है कि जॉन डीवी शिक्षा की आधुनिक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिक्षा के जिन क्षेत्रों पर जॉन डीवी का प्रभाव पड़ा है, उनमें मुख्य अग्रलिखित हैं-
(1) अब शिक्षा का नया अर्थ लिया जाने लगा है। शिक्षा को अनुभवों के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया माना जाने लगा है।
(2) शिक्षा का उद्देश्य बालक में सामाजिक कुशलता उत्पन्न करना माना जाने लगा है।
(3) शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं, अपितु स्वयं जीवन है, यह माना जाने लगा है।
(4) विद्यालय को समाज का लघु रूप समझा जाने लगा है।
(5) स्वानुभव ही शिक्षा का आधार है, यह माना जाने लगा है।
(6) यह स्वीकार किया गया है कि वैयक्तिक विकास ही सामाजिक विकास की पृष्ठभूमि है।
(7) बालक को उसकी स्वाभाविक रुचि, प्रवृत्ति तथा योग्यता के अनुसार शिक्षा देने की बात मानी जाने लगी है।
(8) क्रियाशीलता से नैतिक एवं सामाजिक विकास होना सम्भव माना जाने लगा है।
(9) खेल, रचना, वस्तुओं व औजारों का प्रयोग, प्रकृति निरीक्षण आदि शिक्षा के साधन माने जाने लगे हैं।
(10) विद्यालय में सामूहिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देना अच्छा समझा जाने लगा है।
(11) पाठ्यक्रम में हस्तकला पर विशेष बल दिया जाने लगा है।
(12) शिक्षण-विधि में खेल, क्रिया तथा अनुभव पर बल दिया जाने लगा है।
(13) अनुशासन को सामाजिक अनुशासन का रूप दिया जाने लगा है।
(14) समन्वय के सिद्धान्त को महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा है।
(15) विद्यालय का कार्य बालक को सामाजिक तथा जनतांत्रिक जीवन के योग्य बनाना, माना जाने लगा है।
मूल्यांकन
डीवी के शैक्षिक विचारों का अध्ययन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि वह आधुनिक युग का महान विचारक, दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री था जिन्होंने निश्चित रूप से शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति ला दी। डीवी ने शिक्षा का नया अर्थ बताया कि शिक्षा स्वयं जीवन है। उसने शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य का समर्थन किया और स्वयं अनुभव को ज्ञान का आधार बताया डीवी ने शिक्षण विधि में क्रियाशीलता पर बल दिया और कहा कि बालकों की शिक्षा वैयक्तिक भिन्नता को ध्यान में रखकर दी जानी चाहिए।
डीवी के विचारों का प्रभाव है कि अमेरिका तथा विश्व के प्रगतिशील देशों में शिक्षाशास्त्र पर नई-नई पुस्तकें लिखी जा रही हैं और शिक्षा की सस्याओं पर शोध हो रहा है डीवी के विचारों का प्रभाव इतना अधिक पड़ा कि आज शिक्षा भविष्य के जीवन की तैयारी नहीं बल्कि ‘शिक्षा स्वयं जीवन है।’ इसे स्वीकार किया जा रहा है। आधुनिक शिक्षा ने निश्चित रूप से आज भी उनके अधिकांश विचारों और निष्कर्षों को शामिल किया है। वह आज भी बहुतों के प्रेरणा स्रोत हैं।
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