कोलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धान्त (Kohlberg’s Theory of Moral Development)

कोलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धान्त (Kohlberg’s Theory of Moral Development)-

कोलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की अवस्थाएँ  (Stages of Moral Development by Kohlberg)

कोलबर्ग (Kohlberg) का विश्वास है कि बच्चे का नैतिक विकास विशिष्ट से सामान्य की ओर अग्रसर होता है। कोलबर्ग (Kohlberg) ने छः विकास-अवस्थाओं का उल्लेख किया है। ये अवस्थायें तीन बुनियादी स्तरों (पूर्व- पारम्परिक अवस्था, पारम्परिक अवस्था तथा उत्तर-पारम्परिक अवस्था) से सम्बन्धित है।

कोलबर्ग के नैतिक विकास का सिद्धान्त
कोलबर्ग के नैतिक विकास का सिद्धान्त (Kohlberg’s Theory of Moral Development)

पूर्व-पारम्परिक स्तर (Pre-conventional Level)

कोलबर्ग ने प्राम्भिक बाल्यावस्था (Early Childhood period) को पूर्व पारम्परिक स्तर (Pre conventional level) का नाम दिया है। इस अवस्था में नैतिकता का अर्थ बालक निरपेक्ष रूप से ग्रहण करते हैं अर्थात् कोई बात या तो ठीक है या गलत। बालकों को अनुशासन का महत्व समझाया जाता है। माता-पिता स्पष्ट करते है कि उनके आदेशों का पालन बिना तर्क होना चाहिए अर्थात् बालक का व्यवहार पूर्ण रूप से माता-पिता के आदेशों के अनुसार होना आवश्यक होता है। इस स्तर पर व्यवहार का नियन्त्रण बाहर से किया जाता है। व्यवहार का वांछनीय स्तर व्यक्ति के बाहर के साधनों के आदेशों अथवा दबावों से निर्धारित किया जाता है। उदाहरणस्वरूप माता-पिता स्तर का निर्धारण करते हैं जिसके अनुकूल बच्चे को कार्य करना होता है। इस अवस्था में नैतिक व्यवहार का प्रेरक भी बाह्य होता है। प्रेरक होता है दण्ड से बचना और पुरस्कार लेना। कोलबर्ग ने इस स्तर को दो अवस्थाओं में विभाजित किया है

पहली अवस्था : दण्ड एवं आज्ञा-पालन उन्मुखता (Punishment and obedience orientation)

आज्ञा-पालन दण्ड के भय पर आधारित है। बच्चों को नैतिकता का वास्तविक ज्ञान नहीं होता। वे दण्ड की शक्ति रखने वाले व्यक्तियों के प्रति अन्ध-श्रद्धा रखते हैं। उन्हें दूसरों के अधिकारों का कोई ज्ञान नहीं होता। “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली स्थिति होती है। इस अवस्था में बच्चा अपने आप को कठिनाई से बचाने को प्राथमिकता देता है। इस प्रकार वह उत्पीड़न तथा अपनी स्वतन्त्रता में आने वाली बाधाओं से बचने का प्रयास करता है। पियाजे (Piaget) ने इस अवस्था को वस्तुपरक उत्तरदायित्व (Objective responsibility) की अवस्था कहा है। कोलबर्ग का विचार है कि बालक द्वारा मान्य व्यवहार अपनाने का कारण पुरस्कार प्राप्त करना तथा दण्ड से बचना होता है। इस अवस्था में बालक ठीक अथवा गलत व्यवहार में भेद बड़ों की स्वीकृति एवं अस्वीकृति के आधार पर करता है।

नैतिक विकास

दूसरी अवस्था : साधनात्मक सापेक्षता उन्मुखता (Instrumental relativist orientation)

इस अवस्था में बच्चा अपनी आवश्यकताओं के प्रति भी सचेत रहता है और दूसरों के अधिकारों को भी समझने लगता है। इसी धारणा से वह दूसरों की आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयास पर समझौता करने को तैयार हो जाता है। “तुम मेरा कार्य करो, मैं तुम्हारा कार्य करूंगा।” दूसरों का पक्ष तथा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए नियमों का पालन किया जाता है।

कोलबर्ग के नैतिक विकास

पारम्परिक स्तर (Conventional Level)

कोलबर्ग ने उत्तर बाल्यावस्था (Late childhood) को पारम्परिक नैतिकता (Conventional morality) का नाम दिया है। इसमें माता-पिता द्वारा दिया गया नैतिकता सम्बन्धी ज्ञान परिवर्तित होने लगता है, फिर भी नैतिक यथार्थवाद (Moral realism) की स्थिति विद्यमान रहती है। इस स्तर पर भी व्यक्ति के आचरण पर बाहरी नियन्त्रण रहता है। यहां भी दूसरे के नियमों का पालन किया जाता है, परन्तु अभिप्रेरणा (Motivation) आन्तरिक होती है। अच्छे कामों तथा पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के आधार पर ही नैतिकता का मूल्यांकन होता है। कोलहबर्ग ने इस अवस्था को दो भागों में बांटा है-(1) अच्छे बच्चे/बच्ची उन्मुखता और (2) कानून एवं व्यवस्था उन्मुखता ।

तीसरी अवस्था : अच्छे बच्चे/बच्ची-उन्मुखता (Nice-girl/boy orientation)

इस अवस्था में अच्छे बच्चे/बच्ची की धारणा प्रमुख रहती है। नैतिक व्यवहार वह समझा जाता है जो दूसरों को प्रसन्न करे और दूसरों द्वारा स्वीकृत हो। अच्छा कार्य सामान्य सहमति द्वारा परिभाषित होता है और अच्छे कार्य का प्रेरक दूसरों की स्वीकृति प्राप्त करना होता है। इस अवस्था में बच्चा दूसरों को प्रसन्न करने तथा उनकी स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयास करता है। वह अपने-आप को समाज के पारम्परिक ढांचे के अनुसार ढालने का प्रयास करता है और कोई भी निर्णय लेते समय दूसरों को अपने ध्यान में रखता है। पियाजे (Piaget) ने जिसे ‘वैयक्तिक दायित्व’ (Personal responsibility) कहा है, वह इस अवस्था में मिलता है।

नैतिक विकास का सिद्धान्त

चौथी अवस्था : कानून एवं व्यवस्था उन्मुखता (Law and order orientation)

इस अवस्था में बच्चा समझने लगता है कि सामाजिक प्रणाली व्यक्तियों द्वारा अपने कर्त्तव्य निभाने तथा स्वेच्छा से कानून का सम्मान करने पर निर्भर करती है। इस प्रकार नैतिक आदर्शों का सामान्यीकरण हो जाता है और उसकी अभिप्रेरणा सत्ता के सम्मान तथा सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने की भावना से प्राप्त होती है। इस अवस्था को ‘कानून एवं व्यवस्था’ (Law and order) की अवस्था भी कहा जा सकता है।

कोलबर्ग

उत्तर-पारम्परिक स्तर (Post-conventional Level)

कोलबर्ग ने किशोरावस्था को उत्तर-पारम्परिक स्तर का नाम दिया है। इस स्तर पर आचरण का नियन्त्रण आन्तरिक हो जाता है। व्यक्ति अपने भीतर से स्तर निर्धारण की प्रेरणा लेता है और उसके अनुसार कार्य करता है। नैतिक मुद्दों में वह आन्तरिक चिन्तन-प्रक्रिया के आधार पर निर्णय लेता है। इसमें स्वायत्त नैतिक सिद्धान्तों पर अधिक बल होता है जिनका आधार एवं क्रियान्वयन अधिक प्रमाणित होता है।

पांचवीं अवस्था : सामाजिक सम्पर्क उन्मुखता (Social contact orientation)

इस अवस्था में दायित्व की भावना तो बनी रहती है परन्तु नैतिकता अनुबन्धों को निभाने तथा दूसरों के अधिकारों का सम्मान करने में समझी जाती है। ठीक कार्य समाज द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकृत नियमों, आवश्यकताओं तथा अधिकारों के आधार पर परिभाषित किया जाता है। सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने की आवश्यकता की अपेक्षा न्याय एवं वैधता (Legality) का महत्त्व अधिक हो जाता है। कानून को बदला जा सकता है यदि वह बहु-संख्या की इच्छा को अभिव्यक्त नहीं करता या सामाजिक हित के अनुकूल नहीं। इस अवस्था में इस बात को स्वीकार किया जाने लगता है कि जाति, लिंग तथा सामाजिक स्तर के भेदभाव के बिना प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार हैं।

विकास

छठी अवस्था : सार्वभौमिक नैतिक सिद्धान्त-उन्मुखता (Universal ethical principles orientation)

यह अवस्था सार्वभौमिक सिद्धान्तों पर आधारित होती है। इस अवस्था में नैतिकता व्यक्ति की अन्त:करण (Conscience) की ओर उन्मुख हो जाती है। अब आचरण, दूसरों की प्रतिक्रियाओं का विचार किये बिना, आन्तरिक आदर्शों द्वारा परिचालित होता है। नैतिकता को वैधता से भिन्न समझा जाता है। नैतिक निर्णय आशयों (Intentions), स्थितिपरक कारकों तथा संकट-मोचक स्थितियों (Mitigating circumstances) के आधार पर किये जाते हैं। व्यक्ति केवल सामाजिक नियमों को ही ध्यान में नहीं रखता बल्कि सार्वजनिक नैतिक सिद्धान्तों को भी सम्मुख रखता है। सार्वभौमिक न्याय, मानवीय अधिकारों का परस्पर सम्मान और व्यक्ति की भव्यता का सम्मान अन्तःकरण (Conscience) का आधार बन जाते हैं।

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