सामान्यतः भाषा, शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का प्रमुख आधार है। भाषायी ज्ञान के अभाव में उचित सम्प्रेषण सम्पन्न नहीं होता। अनेक पुस्तकों को पढ़ने के बाद छात्र कहते हैं कि इस पुस्तक की भाषा कठिन है। शिक्षक के पढ़ाने के ढंग पर टिप्पणी करते हुए छात्र कहते हैं कि अमुख अध्यापक का शिक्षण बहुत अच्छा है। इस प्रकार के अनेक तर्क मानव जीवन में मिलते हैं जिन्हें हम किसी व्यक्ति की भाषा को सुनकर करते हैं। उदाहरणार्थ, एक ही विषय को दो शिक्षकों को पढ़ाने के लिये दिया जाता है। सभी कुछ सामान्य होने पर एक शिक्षक के छात्रों का अधिगम स्तर उच्च होता है वहीं दूसरे शिक्षक की कक्षा के छात्रों का अधिगम स्तर उच्च नहीं होता। इसके मूल में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः यह स्पष्ट किया जा सकता है कि भाषा सीखने-सिखाने में प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती है। निम्नलिखित प्रमुख बिन्दुओं के माध्यम से भाषा से सीखने-सिखाने के सम्बन्ध को स्पष्ट किया जा सकता है-
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प्रभावी प्रस्तुतीकरण
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया प्रभावी प्रस्तुतीकरण पर निर्भर करती है। जब तक हम किसी तथ्य को छात्रों के समक्ष उचित भाषा में प्रस्तुत नहीं करेंगे तब तक छात्रों द्वारा उसका अधिगम सम्भव नहीं होगा। सामान्य रूप से प्रस्तुत किये गये तथ्यों को सीखने में छात्रों की रुचि कम होती है। जब उन्हीं तथ्यों को सरल एवं बोधगम्य भाषा द्वारा तथा स्थानीय शब्दों के प्रयोग द्वारा प्रस्तुत किया जाता है तो छात्रों द्वारा उसे आत्मसात् करने में पूर्ण मनोयोग का प्रदर्शन किया जाता है। अतः प्रभावी प्रस्तुतीकरण में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
प्रश्नोत्तर प्रक्रिया
ज्ञान के आदान-प्रदान में या सीखने सिखाने की प्रक्रिया में प्रश्न एवं उत्तरों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इस प्रक्रिया के आधार पर छात्रों का अधिगम स्तर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ, शिक्षक द्वारा पूछे गये प्रश्नों का स्वरूप सटीक एवं वस्तुनिष्ठता से युक्त होगा तो उसका उत्तर भी वस्तुनिष्ठता के आधार पर ही उपलब्ध होगा। यदि प्रश्न की भाषा सारगर्भित एवं वस्तुनिष्ठ रूप में नहीं होगी तो उसका उत्तर भी सारगर्भित एवं वस्तुनिष्ठ रूप में नहीं होगा। अतः प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया में भाषा का ही महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।
सम्प्रेषण प्रक्रिया
सीखने-सिखाने की सफलता की तृतीय शर्त सम्प्रेषण प्रक्रिया है। जब तक शिक्षक एवं छात्रों के मध्य सम्प्रेषण की प्रक्रिया उचित रूप में सम्पन्न नहीं होगी तब तक सीखने-सिखाने की प्रक्रिया भी सफल नहीं होगी। शिक्षक एवं छात्रों के मध्य आत्मीयकरण एवं उचित वातावरण को सम्पन्न करने में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षक द्वारा छात्रों को अपने समीप लाने के लिये स्थानीय भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया जा सकता है। बाद में उस शब्द के साहित्यिक स्वरूप से परिचित कराया जा सकता है। इसी प्रकार की अनेक क्रियाएँ भाषा के द्वारा सम्पन्न होती हैं तथा सम्प्रेषण में अपना योगदान प्रस्तुत करती है।
श्यामपट्ट कार्य
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में श्यामपट्ट का प्रयोग किया जाता है परन्तु उसका सार्थकता के साथ किये जाने वाला प्रयोग भाषा के द्वारा ही सम्भव होता है। श्यामपट्ट पर जिस कार्य का प्रदर्शन किया जा रहा है उस कार्य में भी भाषा का प्रयोग प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से होता है; जैसे-श्यामपट्ट पर पुण का नामांकित चित्र बनाया जा रहा है तो इस चित्र के विभिन्न भागों के प्रदर्शन के लिये भी भाषा का ही प्रयोग किया जाता है। अत: सफल एवं प्रभावी श्यामपट्ट कार्य भाषा के द्वारा ही सम्भव होता है।
उचित व्याख्या
शिक्षक द्वारा जब छात्रों के समक्ष किसी प्रकरण या तथ्य की व्याख्या प्रस्तुत की जाती है तो उसमें भी प्रमुख भूमिका भाषा की ही मानी जाती है। यदि छात्रों के समक्ष स्तरानुकूल एव सटीक भाषा का प्रयोग शिक्षक द्वारा किया जाता है तो यह मान लिया जाता है कि छात्रों की इस व्याख्या में रुचि होगी तथा उनका अधिगम स्तर उच्च होगा। इसके विपरीत स्थिति में न तो छात्रों का अधिगम कक्षाकक्ष स्तर उच्च होगा और न ही छात्रों द्वारा शिक्षक की व्याख्या में पूर्ण मनोयोग का प्रदर्शन किया जाता है। अतः उचित व्याख्या के लिये भाषा का प्रयोग आवश्यक है।
पठन कौशल
छात्रों में पठन कौशल का विकास करने के लिये भी भाषा का प्रयोग किया जाता है। छात्रों में पठन कौशल के उचित विकास के लिये यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम उन्हें सरल भाषा एवं रुचि से सम्बन्धित साहित्य का ज्ञान प्रदान किया जाय अर्थात् छात्रों के पठन प्रक्रिया के लिए स्तरानुकूल साहित्य प्रदान किया जाय, जिसकी भाषा सरल एवं उनकी रुचि के अनुसार हो। इसके विपरीत स्थिति में छात्रों में पठन कौशलों का विकास सम्भव नहीं होगा क्योंकि स्तरानुकूल साहित्य के अभाव में छात्रों को पठन में रुचि नहीं रहेगी।
श्रवण कौशल
भाषायी कौशलों के विकास की प्रक्रिया में श्रवण कौशल का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रवण कौशल के विकास में भी भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि जो भाषा कर्णप्रिय होती है उसको छात्र सुनना अधिक पसन्द करते हैं। छात्रों द्वारा विभिन्न प्रकार की कविताओं एवं गीतों के श्रवण में अपनी रुचि का प्रदर्शन किया जाता है क्योंकि उनकी भाषा कर्णप्रिय एवं सरल होती है। इसके विपरीत स्थिति में जो भाषा कर्णकटु होती है उसको कोई भी व्यक्ति श्रवण करना पसन्द नहीं करता। इस प्रकार भाषा के आधार पर प्रथम स्थिति श्रवण कौशल का विकास करती है तथा द्वितीय स्थिति श्रवण कौशल को हतोत्साहित करती है।
लेखन कौशल
अनेक अवसरों पर यह देखा जाता है कि उस लेखक की लेखनी को सराहा जाता है, जिसकी भाषा में ओजस्विता एवं सारगर्भिता निहित होती है। लेखन कौशल के विकास में भाषा का ही महत्त्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि किस स्थान पर किस शब्द का प्रयोग करना है तथा कहाँ लोकोक्ति एवं मुहावरे का प्रयोग करना है ? इन सभी का ज्ञान भाषायी प्रक्रिया के माध्यम से होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि छात्रों में लेखन कौशल का विकास करने के लिये उनका भाषायी ज्ञान की प्रक्रिया से परिचित होना आवश्यक है।
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया किसी भी विषय से सम्बन्धित हो उसमें भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। गणित, विज्ञान, इतिहास एवं भूगोल आदि सभी विषयों में सरल एवं बोधगम्य भाषा का प्रयोग इन विषयों की सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को सरल बनाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि विषय कोई भी हो उसको सीखने-सिखाने का माध्यम भाषा ही होती है। यह भाषा किसी भी रूप में हो सकती है। अतः भाषायी प्रक्रिया की समझ प्रत्येक विषय के शिक्षक में अनिवार्य रूप से होनी चाहिये।
वाचन कौशल
वाणी की मधुरता एवं उचित भाषायी शब्दों का प्रयोग व्यक्ति के वाचन को प्रभावी एवं सौष्ठव से परिपूर्ण बनाता है। शब्दों का सही उच्चारण ही व्यक्ति के विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाता है। वाचन की कुशलता को वह छात्र ही प्राप्त कर सकता है, जिसको भाषायी प्रक्रिया का पूर्ण ज्ञान होता है। किस स्थान पर स्वर तेज करना है तथा किस स्थान पर स्वर धीमा करना है तथा वाणी में किस प्रकार का आरोह एवं अवरोह लाना है? इन सभी तथ्यों के आधार पर ही छात्रों में वाचन कौशल का विकास सम्भव होता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से भाषा का ही योगदान होता है। छात्रों को अन्य विषयों का ज्ञान प्रदान करने से पूर्व शिक्षक को उस विषय में प्रयुक्त भाषा पर विचार करना आवश्यक है। भाषा का प्रयोग सरल बोधगम्य एवं स्तरानुकूल नहीं है तो किसी भी विषय के सीखने सिखाने की प्रक्रिया उचित रूप में सम्पन्न नहीं हो सकती। अतः सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का आधार भाषा को माना जाता है।
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