आदर्शवाद का अर्थ एवं विशेषताएँ (Meaning and Characteristics of Idealism)

दर्शन जीवन के विभिन्न अनुभवों से प्राप्त वह निष्कर्ष है जो किसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु होता है। व्यापक रूप में दर्शन जीवन, जीवन-यापन के प्रति एक दृष्टिकोण होता है। (Philosophy is an attitude towards life and living)। अतएव जीवन में यह निश्चय है कि कुछ आदर्शों (Ideals) की स्थापना होगी जो जीवन को आगे बढ़ायेगे। यह आदर्श- निर्माण (Formation of Ideals) एक प्रकार का विचार-निर्माण होता है (Formation of Ideas)। मानव इन्हीं विचारों के सहारे अपने चारों ओर की वस्तुओं की कल्पना एवं व्याख्या करता रहा है और करता रहेगा। विचार-निर्माण यद्यपि मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है फिर भी उन विचारों को सामान्य रूप देना एवं मान्यता देना दार्शनिक प्रक्रिया है। विचारों की प्रक्रिया के सहारे जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति को प्रमुखता देने के कारण दर्शन के क्षेत्र में ‘आदर्शवाद’ (Idealism) का विकास हुआ। अंग्रेजी का शब्द Idealim आदर्शवाद का यथार्थ द्योतक है। परन्तु विषय-वस्तु के हिसाब से Idealim के स्थान पर Idealism नाम अधिक समीप एवं अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। प्रचलित परम्परा के अनुसार हम भी आदर्शवाद को Idealism ही कहेंगे जिससे कोई गलत धारणा न बने। आदर्शवाद जीवन की एक बहुत पुरानी विचारधारा कही जाती है जब से मनुष्य ने विचार एवं चिन्तन शुरू किया, लेकिन इसका ऐतिहासिक विकास पाश्चात्य देशों में सुकरात (Socrates) और उसके शिष्य प्लेटो से मानते हैं। हमारे देश में भी उपनिषदकाल से ब्रह्म-चिन्तन पर विचार मिलते हैं जहाँ ‘आत्मा’, ‘जीव’, एवं ‘ब्रह्मॉण्ड‘ पर विचार-विमर्श हुए हैं, अस्तु पश्चिमी देशों से हम पीछे नहीं रहे हैं।

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आदर्शवाद का आधार

आदर्शवाद के कई आधार विद्वानों ने बताये हैं। इनके विषय में कुछ विचार दिये जायेंगे जिससे आदर्शवाद के सम्बन्ध में स्पष्ट हो जायेगा।

आदर्शवाद का आधार विचार

आदर्शवाद का शुद्ध नाम विचारवाद होना चाहिए क्योंकि इसका मुख्य आधार विचार है। जगत की वास्तविकता विचारों पर आश्रित है। प्रकृति एवं भौतिक पदार्थ की सत्ता विचारों के कारण है। अस्तु, आदर्शवाद का आधार भौतिक जगत न होकर मानसिक या आध्यात्मिक जगत है। यही कारण है कि भौतिक जगत भी आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुसार सप्राण है। “विचार अन्तिम एवं सार्वभौमिक महत्त्व वाले होते हैं। वे सार अथवा मौलिक प्रतिरूप हैं जो जगत को आकार देते हैं। वे आदर्श या मानदण्ड हैं जिनसे इन्द्रिय अनुभव योग्य वस्तुओं की जाँच होती है। विचार शाश्वत और अपरिवर्तनीय हैं।” ऐसे ही विचार आदर्शवाद में आधार का काम करते हैं।

आदर्शवाद का आधार आत्मा

एक दूसरा आधार आन्तरिक जगत है जिसे आत्मा या मन (Self, soul, spirit or mind) कहते हैं। इसी के कारण विचार प्राप्त होते हैं और उन विचारों को वास्तविकता मिलती है। “जगत का आधार मनस् है। यह यांत्रिक नहीं है। जीवन हम जटिल भौतिक रासायनिक शक्तियों में ही नहीं घटा सकते। यह मनस् पर आधारित है।” पुद्गल (पदार्थ) को मनस् का प्रकटीकृत बाह्य रूप ही माना जाता है।

आदर्शवाद का आधार तर्क और बुद्धि

आदर्श का एक तीसरा आधार तर्क और बुद्धि (Reason and Intellect) हा जा सकता है। इस सम्बन्ध में प्लेटो द्वारा सुकरात के विचार दिये गये हैं। उनका कथन फेयड्रस   से है। “मेरे अच्छे मित्र, बहुत सत्य है, और मैं आशा करता हूँ कि तुम मुझे माफ करोगे जब तुम तर्क सुन लोगे; जो यह है कि मैं ज्ञान का प्रेमी हूँ, और जो पुरुष शहर में रहते हैं वे मेरे अध्यापक हैं, और न कि पेड़ या देश।” इससे स्पष्ट है कि मनुष्य में ही तर्क की शक्ति है और तर्क द्वारा ही विचार प्राप्त होते हैं ।

आदर्शवाद का आधार मानव

आदर्शवाद का चौथा आधार मानव माना जा सकता है। आत्मा उच्चाशय एवं विचार, तर्क और बुद्धि से युक्त होती है। मानव वह प्राणधारी है जिसमें अनुभव करने, उन्हें धारण करने और उन्हें उपयोग में लाने की विलक्षण शक्ति होती है। मानव सभी प्राणियों व पशुओं में सर्वश्रेष्ठ इसी कारण गिना जाता है क्योंकि महान् अनुभवकर्त्ता है और “वह ईश्वर के दूतों से थोड़ा नीचे होता है, उसे गौरव एवं आदर दिया जाता है, और ईश्वर के अन्य सभी कार्यों पर उसका आधिपत्य होता है।” मानव में जो आत्मा (Spirit) होती है वह वास्तव में विभिन्न उच्च शक्तियों से युक्त होती है, उसमें तर्क, बुद्धि, मूल्य, नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक सत्तायें होती हैं (He possesses reason, intellect, values, moral, religious and spiritual virtues)।

आदर्शवाद का आधार राज्य

आदर्शवाद का पांचवाँ आधार हेगेल ने राज्य को माना है। इस सम्बन्ध में कनिंघम का विचार है कि हेगेल के लिए राज्य महान आत्मा का संसार में सर्वोच्च प्रकाशन है जिसका समय के द्वारा विकास सबसे बड़ा आदर्श है।” “राज्य दैवी विचार है इस पृथ्वी पर जिसका अस्तित्त्व है।” इससे यह ज्ञात होता है कि आज या इसके पूर्व राज्य की जो कल्पना हुई वह आदर्शवादी आधार के कारण ही तो हुई। जर्मनी में विशेषकर राज्य में एक व्यक्तित्त्व की स्थापना की गयी और उसके विकास के लिए प्रयत्न किया गया। यही नहीं साम्यवादी, जनतन्त्रवादी, साम्राज्यवादी सभी शासनों में यही भावना निहित होती है तभी तो कुछ आदर्शों की कल्पना तद्विषयक की जाती है। इस प्रकार की धारणा का प्रभाव शिक्षा पर पड़ा और शिक्षा का वैयक्तिक दृष्टिकोण हट गया तथा सामाजिक आदर्श का भाव सामने आया और समाज, राष्ट्र एवं शासन सभी को प्रधानता दी जाने लगी, यह आदर्शवादी देन कही जाती है अत: समाज, संस्था अथवा राज्य भी आदर्शवादी विचार का एक आधार माना जाता है।

आदर्शवाद का अर्थ एवं विशेषताएँ
आदर्शवाद का अर्थ एवं विशेषताएँ

आदर्शवाद का अर्थ (Meaning of Idealism)

दर्शन का अध्ययन विभिन्न विचारधाराओं से हुआ है। आदर्शवाद भी उनमें से एक है। प्रकृतिवाद के समान ही आदर्शवाद की विचारधारा अति प्राचीन काल से चली आ रही है। भारत एवं विदेश में यह विचारधारा प्राचीन समय से ही चली आ रही है। इस विचारधारा के अनुसार मानसिक जगत या आध्यात्मिक जगत वास्तविकता (Reality) है और विचारों से बना है। प्राकृतिक या भौतिक जगत की अपनी कोई वास्तविकता नहीं, यदि उसमें वास्तविकता आती है तो केवल आत्मा के विचार करने से। तो फिर सत्य क्या है? विचार न कि पदार्थ। ये विचार सत्यं शिवं एवं सुन्दरं के आदर्शों में शाश्वत रूप में पाये जाते हैं।

रॉस महोदय का कथन है कि “आदर्शवादी दर्शन के कई भिन्न रूप हैं लेकिन सभी के पीछे यही प्रमुख विचार है कि मन या आत्मा जगत की सार वस्तु हैं और सच्ची वास्तविकता मानसिक होती है। अनुभव, विचार, आदर्श, मूल्य, व्यक्तित्त्व सभी मानसिक प्रकृति वाले हैं और भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा जगत के हृदय (केन्द्र) के अधिक समीप हैं। अतः आदर्शवाद जोरदार शब्दों में यह अस्वीकार करता है कि मन केवल मस्तिष्क (दिमाग) और उसकी क्रिया है; अथवा चेतना किसी भी प्रकार एक गौण उत्पादन है; बल्कि यह मानता है कि मन स्वयं आधारभूत रूप में वास्तविक वस्तु है।”

गुड महोदय के अनुसार आदर्शवाद वह विचारधारा है जिसमें यह माना जाता है कि “पारलौकिक सार्वभौम तत्त्वों, आकारों या विचारों में वास्तविकता निहित है, और ये ही सत्य ज्ञान की वस्तुएँ हैं जब कि बाह्य रूप मानव के विचारों तथा इन्द्रिय अनुभवों में निहित होते हैं जो विचारों की प्रतिच्छाया या अनुरूप के समान होते हैं।” इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि ‘आदर्शवाद जीवन के प्राकृतिक अथवा वैज्ञानिक तथ्यों की ओर से अपना बल हटाकर मानवीय अनुभव के आध्यात्मिक पहलुओं पर बल देता है। यह वितर्क करता है कि पदार्थगत तथा भौतिक जगत वास्तविकता की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं है।” इस विचारधारा की विशेषताओं पर दृष्टि डालने से इनका अर्थ और भी स्पष्ट हो जायेगा।

आदर्शवाद की विशेषताएँ (Characteristics of Idealism)

आदर्शवादियों ने जो विचार दिये हैं उनका अध्ययन करने पर आदर्शवाद के सम्बन्ध कुछ विशेषताओं का ज्ञान होता है। आदर्शवादी विचारधारा में निम्नलिखित विशेषताएँ मिलती हैं-

आत्मा में विश्वास

आदर्शवादी दार्शनिक दो प्रकार के जगत मानते हैं – (अ) वास्तविक, (ब) मिथ्या। वास्तविक जगत मानसिक एवं आध्यात्मिक है। प्राकृतिक जगत जो हमारी इन्द्रियों के सामने है वह मिथ्या या अवास्तविक (unreal) है। यह प्राकृतिक जगत आन्तरिक जगत का प्रकाशन या प्रतिच्छाया स्वरूप है। मन इनकी सृष्टि करता है अन्यथा इनका अस्तित्व ही नहीं। जीवन में जो कुछ हम धारण करते हैं वे केवल विचार के कारण ही। इन सबके मूल में एक असीम मन (Absolute mind) या परम आत्मा (Higher spirit) है जिसका एक सीमित अंश हम सबके भीतर है। परम आत्मा संसार की समस्त वस्तुओं की सृष्टि करता है। इसका प्रसार चारों ओर है। उसके चिन्तन एवं क्रियाशीलन के परिणाम से उसकी आत्मा का प्रक्षेपण (projection) होता है।

अलौकिक विचारों में विश्वास

आदर्शवाद अलौकिक विचारों (Supernatural Ideas) में विश्वास रखता है और परलोक को मानता है जो ईश्वर या परम आत्मा से प्रभावित है और अधिक सत्य एवं सुन्दर भी है। ‘ईश्वर’, ‘दैविक एकता’, ‘परम पूर्णता’ आदि में आदर्शवादिता का विश्वास होता है।

सर्वोत्कृष्ट ज्ञान आत्मा का ज्ञान

वह ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा सम्भव नहीं है बल्कि तर्क (Reason) के द्वारा होता है। ऐसा ज्ञान चाहे जिस विषय का हो वह विचारों (Ideas) से मिलता है इसके अलावा जो भी ज्ञान मिलता है उसमें पूर्णता होती है, वह उस पूर्ण ज्ञान का एक अंश होता है जिससे यह जगत निर्मित है। तर्क से प्राप्त ज्ञान वास्तविक होता है और मनुष्य की बुद्धि की पहुँच में है।

चरम लक्ष्य आध्यात्मिक वास्तविकता की अनुभूति

आत्मा स्वतन्त्र है। मानव मन – में तीन प्रकार की प्रतिक्रियायें होती हैं-ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं प्रयत्नात्मक। इसके द्वारा मनुष्य अपने भीतर असीम की अनुभूति करता है। ये तीन प्रक्रियायें उसे सत्यं शिवं एवं सुन्दरं के शाश्वत मूल्यों को प्रदान करती हैं। इन सबसे सम्पन्न होने पर मनुष्य चरम लक्ष्य की प्राप्ति करता है और उसमें असीम निरपेक्ष (The Absolute) की अनुभूति होती है।

मन स्वतन्त्र होता है

मन भौतिक वस्तुओं पर आधारित नहीं रहता। वह अपने नियम स्वयं बनाता है। मन के द्वारा सभी समस्याएँ और प्रश्न हल होते हैं। मन वास्तव में आन्तरिक शक्ति है। इसी से व्यक्ति अनुभव करता है और ये अनुभव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं। आत्मा या मन की एक और विशेषता है-स्वनिश्चितता (Self determinism)। इसका तात्पर्य यह है कि यह स्वयं निश्चित है कि मनुष्य में एक आत्मा है क्योंकि वह विचार करता है। इस स्वयं निश्चित आत्मा के विषय में डेकार्ते, हेगेल तथा कॉण्ट ने अलग नाम दिये हैं और कुछ भिन्नता भी दिखाई है।

आदर्शवादियों के अनुसार तीन शाश्वत मूल्य

सत्यं, शिवं, सुन्दरंये तीनों मूल्य शाश्वत (Eternal) कहे जाते हैं। जीवन में इनकी प्राप्ति करना अत्यावश्यक है। ये तीन मूल्य आध्यात्मिक होते हुए भी सामाजिक हैं। इन तीनों को अलग-अलग माना जाता है परन्तु विचारपूर्वक देखा जाये तो इनमें सह-सम्बन्ध है। सत्यं में शिवं और शिवं में सुन्दरं के गुण होते हैं। कुछ विचारकों के अनुसार ‘धर्म’ भी एक आध्यात्मिक मूल्य है जो इन तीनों के अलावा है। परन्तु धर्म की भावना शिवं में अन्तर्निहित है।

विभिन्नता में एकता

सभी आदर्शवादी दार्शनिक इस विचार से सहमत हैं कि इस में बहुत से जीव है, बहुत से पदार्थ हैं परन्तु इन सबका एक आदि स्रोत या निर्माता है जगत जो सर्वोपरि और सर्वशक्तियुक्त है। इसे ईश्वर, परमशक्ति, परम आत्मा अथवा किसी भी संज्ञा से सम्बोधित करें। इसकी प्रमुख विशेषता है विचार करना (thinking) यह असीम (Infinite) है और सारे अन्य जीव समीप (finite) हैं। ये ससीम उस असीम के तद्रूप अंश मात्र हैं, अस्तु इनमें भी विचार करने की विशेषता है। यह भाव हमारे भारतीय दर्शन में बहुत ही अच्छी तरह व्यक्त हुआ है। इस एक शक्ति या आत्मा की विभिन्न प्रतिच्छाया सारे विश्व में व्याप्त है अतः विश्व की वस्तुएँ अपूर्ण हैं अथवा नकल हैं। पूर्णता तो केवल आध्यात्मिक है जिसे आत्मानुभूति के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। इसी कारण इस लोक एवं परलोक के विचार भारतीय दर्शन में मिलते हैं जिसकी प्राप्ति जीवन का परम उद्देश्य (Highest aim of life) है। मनुष्य की आत्मा भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत के बीच सम्बन्ध स्थापित करती है।

नैतिकता तथा ज्ञान की अभौतिक वास्तविकता

कांट का विचार है कि नैतिकता तथा ज्ञान अभौतिक हैं यद्यपि ये हमारे प्रत्यक्ष अनुभव की वस्तुएँ हैं। ये भौतिक वस्तुओं से कहीं अधिक महत्त्व रखती हैं, पवित्र और उच्च हैं। वास्तव में प्लेटो को छोड़कर प्रायः सभी आदर्शवादियों ने ईश्वर को परम तत्त्व माना है, उसे उसने (Absolute Truth, Absolute Good, Absolute Beauty) माना है, विचार को ही एक प्रकार से प्रमुखता दी गयी है। हाकिङ्ग का विचार है कि धर्म की वास्तविकता इसी में है कि वह मानवीय मूल्यों को बढ़ाये और उनके बढ़ने में सहयोग दें, उनसे दूर न करे। यह आदर्शवादी दृष्टिकोण ही है।

आदर्शवाद में व्यक्तित्व के पूर्ण विकास का लक्ष्य रहता है

व्यक्तित्व के विकास में आत्माभिव्यक्ति एवं आत्मानुभूति दो सीढ़ियां हैं। आत्माभिव्यक्ति (Self expression) प्रथम सीढ़ी है और आत्मानुभूति दूसरी सीढ़ी है। ‘आत्मा’ व्यक्तियों में अलग-अलग होती है लेकिन सभी का प्रयत्न महान् आत्मा से मिलने की ओर रहता। इस प्रयत्न के लिए सामाजिक एवं नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को बताया गया है। सामाजिक मूल्यों की प्राप्ति में आत्माभिव्यक्ति होती है और अन्य प्रकार के मूल्यों से आत्मानुभूति होती है।

आदर्शवाद का मनुष्य में विश्वास

मनुष्य जीवों की श्रेणियों में सबसे उत्तम माना जाता है क्योंकि उसके पास चिन्तन, तर्क एवं बुद्धि के विशेष गुण हैं। वास्तव में समस्त सृष्टि में मानव अन्तिम सीढ़ी है। मानव व्यक्तित्व का महत्त्व बहुत है क्योंकि उसी में विचारों का एकीकरण होता है। जीवन के जितने भी पहलू हैंज्ञान, विज्ञान, कला, नैतिकता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता–सभी का उद्घाटन मानव की विचार-शक्ति ही करती है। सद्ज्ञान की खोज में मानव मन जुटता है अन्तिम सत्यों की खोज उसी से होती है, मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति उसे अपने चारों ओर के भौतिक वातावरण पर नियन्त्रण करने में सहायता देती है तथा जिन सांस्कृतिक निधियों को मानव प्राप्त करता है, वे सभी मानसिक सृष्टियां या उत्पादन हैं। मानव का आध्यात्मिक स्वभाव उसके जीवन का सार कहा जाना चाहिए।

मूल्यों, आदर्शों आदि में विश्वास

आदर्शवाद मूल्यों, सद्गुणों एवं आदशों, (Values, Virtues & Ideals) में विश्वास रखता है। इसके अलावा इनकी कसौटी पर उचित अनुचित (Good and evil) का निर्णय करता है। इसी प्रकार पाप-पुण्य की भी भावना आदर्शवाद में पायी जाती है। परम आत्मा में केवल सद्गुण होते हैं और जो वैयक्तिक आत्मायें होती हैं उनमें प्राकृतिक अथवा अनाध्यात्मिक वातावरण से गुणों का लोप हो जाता है जिससे व्यवहार में अन्तर पड़ता है। इस प्रकार आदर्शवाद उनके लिए दण्ड का भी विचार रखता है।

अमरता में विश्वास

एक दार्शनिक का विचार है कि आदर्शवाद ईश्वर, जीव की स्वतन्त्रता एवं आत्मा की अमरता में विश्वास रखता है। आदर्शवादी ईश्वर के अस्तित्त्व में विश्वास रखते हैं। मानवीय आचरण की उच्चता, नैतिकता एवं धर्म की पूरकता, कर्तव्य- परायणता, अन्तरात्मा (conscience) की आवाज, मन एवं शरीर का सह-सम्बन्ध आदि में विश्वास रखते हैं।

मानसिक अनुशासन, तर्क के नियम, शुद्ध बुद्धि और ज्ञानात्मक फैकल्टी बल

मानसिक अनुशासन (Mental Discipline) तथा तर्क के नियम (Law of Reason), शुद्धि बुद्धि (Pure Intelligence), ज्ञानात्मक फैकल्टी (Faculty for learning) आदि पर आदर्शवाद विशेष बल देता है। इस कारण इन्द्रिय ज्ञान को भौतिक अनुभूति से निम्न माना जाता है।

सभी की आत्मा स्वतन्त्र

आत्मा की स्वतन्त्रता बाल्य एवं प्रौढ़ सभी अवस्थाओं में होती है। बालक एवं मनुष्य की स्वतन्त्रता प्राकृतिक एवं अवांछनीय भी है। यह स्वतन्त्रता धीरे-धीरे या क्रम से प्राप्त होती है। दार्शनिक दृष्टिकोण से स्वतन्त्रता एक आदर्श है।

आदर्शवादी दार्शनिक, आध्यात्मिक स्वतन्त्रता पर भौतिक स्वतन्त्रता से अधिक बल देते हैं और इसमें उनका अधिक विश्वास भी है। यह स्वतन्त्रता नैतिक एवं धार्मिक शिक्षण तथा मानसिक क्रियाशीलता के द्वारा प्राप्त होती है। धर्म में भी आदर्शवाद की आस्था अधिक पायी जाती है।

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