शोध अभिकल्प (Research Design)

कोई शोध या अन्वेषण मनगढंत नहीं हो सकता। अनुसंधान या अन्वेषण को क्रमबद्ध एवं प्रभावपूर्ण ढंग से समय, काल एवं लागत के न्यूनतम प्रयासों से संचालित करने से एक अभिकल्प या प्ररचना (Design) का निर्माण होता है। जहोदा एवं कुक के अनुसार “किसी ढंग के प्रयोग द्वारा अनिश्चितता (Uncertaintity) को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता, किन्तु क्रमबद्ध रूप से वैज्ञानिक ढंग का प्रयोग करते हुए अनिश्चितता के इन तत्त्वों को कम किया जा सकता है जो सूचना की कमी से उत्पन्न होते हैं। अनुसंधान के लिए प्रस्तावित प्रश्नों के विकल्पीयउत्तरों की उपयुक्तता के विषय में निर्णय लेने के लिए आवश्यक परिणामों का संयोग पर आधारित ढंग का प्रयोग करते हुए न प्राप्त कर क्रमबद्ध रूप से यथासम्भव अधिक से अधिक नियन्त्रित ढंग का प्रयोग करते हुए प्राप्त किया जाता है। समस्या प्रतिपादन के अन्तर्गत हम सूचना के इन प्रकारों का विशिष्ट विवरण प्रस्तुत करते हैं जो हमें आश्वासन देते हैं कि प्रस्तावित प्रश्नों के उत्तर प्रदान करने के लिए इच्छित एवं अनावश्यक प्रमाण उपलब्ध हो जाएँगे जबकि अनुसंधान प्ररचना का निर्माण करते हुए हम आवश्यक एवं इच्छित प्रमाणों के संग्रह में त्रुटियों से यथासम्भव बचना तथा प्रयासों, समय एवं लागत को कम करना चाहते हैं।”

अल्फ्रेड जे. कान्ह ने लिखा है कि अनुसंधान की आरम्भिक स्थिति में अभिकल्प का निर्माण प्रस्तावित अध्ययन की उपयुक्तता को स्पष्ट करता है तथा ढंग सम्बन्धी प्रमुख समस्याओं के समाधान में सहायता पहुँचाता है।

आर. एल. एकॉफ ने लिखा है “यदि अन्वेषण प्रारम्भ करने से पूर्व प्रत्येक अनुसंधान समस्या के विषय में पर्याप्त विचार-विमर्श करने के बाद यह निर्णय लें कि हमें किन ढंगों एवं कार्यरीतियों का प्रयोग करते हुए अन्वेषण करना है तो नियन्त्रण को लागू करने की आशा बढ़ जाती है।”

इस प्रकार अनुसंधान कार्य में कार्य करने की योजना या अनुसंधान प्रक्रिया की रूपरेखा को ही अनुसंधान अभिकल्प कहा जाता है। इसका स्वरूप, समस्या एवं प्राक्कल्पना के निर्धारण के अनुसार ही होता है। शोध अधिकल्प तथ्यों के संकलन एवं विश्लेषण से सम्बन्धित दशाओं को इस तरह आयोजित करता है कि वे कार्य विधि में बचत करती हुई शोध के प्रयोजन के साथ संगतिपूर्ण हो सकें।

शोध अभिकल्प का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Research Design)

अन्वेषण प्रारम्भ करने से पूर्व हम प्रत्येक अनुसंधान समस्या के विषय में उचित रूप से सोच-विचार करने के पश्चात् यह निर्णय लें कि हमें किन ढंगों एवं कार्यविधियों (Procedures) का प्रयोग करते हुए कार्य करना है तो नियन्त्रण को लागू करने की आशा बढ़ जाती है। अनुसन्धान व प्ररचना निर्णय की वह प्रक्रिया है जो उन परिस्थितियों के पूर्व किए जाते हैं जिनमें ये निर्णय कार्य रूप में लाए जाते हैं। अनेक सामाजिक वैज्ञानिकों ने अनुसंधान प्ररचना को निम्नांकित प्रकार से परिभाषित किया है-

सेलिज, जहोदा, ड्यूश एवं कुक के अनुसार, “एक अनुसंधान प्ररचना आँकड़ों के एकत्रीकरण एवं विश्लेषण के लिए उन दशाओं का प्रबन्ध करती है जो अनुसंधान के उद्देश्यों की संगतता को कार्यरीतियों में आर्थिक नियन्त्रण के साथ सम्मिलित करने का उद्देश्य रखती है।”

आर.एल.एकॉफ के अनुसार, “प्ररचित करना नियोजित करना है, अर्थात् प्ररचना (Design) उस परिस्थिति के उत्पन्न होने से पूर्व निर्णय लेने की प्रक्रिया है जिसमें निर्णय को लागू किया जाना है। यह एक सम्भावित स्थिति को नियन्त्रण में लाने की दिशा में एक पूर्व आशा (Anticipation) की प्रक्रिया है।”

सेनफोर्ड लेबोबिज एवं रॉबर्ट हैगडान के अनुसार, “एक अनुसंधान प्ररचना उस तार्किक ढंग को प्रस्तुत करती है, जिसमें व्यक्तियों एवं अन्य इकाइयों की तुलना एवं विश्लेषण किया जाता है। यह आँकड़ों के लिए विवेचन का आधार है। प्ररचना का उद्देश्य ऐसी तुलना का आश्वासन दिलाना है, जो विकल्पीय विवेचनों से प्रभावित हो।”

अल्फ्रेड जे. कान्ह के अनुसार, “अनुसंधान प्ररचना की सर्वोत्तम परिभाषा अध्ययन की तार्किक युक्ति के रूप में की जाती है। यह एक प्रश्न का उत्तर देने, परिस्थिति का वर्णन करने, अथवा एक परिकल्पना का परीक्षण करने से सम्बन्धित है अर्थात्, यह उस तर्कयुक्तता से सम्बन्धित है जिसके द्वारा कार्यविधियों, जिनमें आँकड़ों का संग्रह एवं विश्लेषण दोनों सम्मिलित हैं, के एक विशिष्ट समूह से एक अध्ययन की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति की आशा की जाती है।”4

एफ.एन.कर्लिंगर लिखते हैं कि “अनुसंधान प्ररचना अन्वेषण की योजना, संरचना एवं एक रणनीति है जिसकी रचना इस प्रकार की जाती है कि अनुसंधान प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो सकें तथा विविधताओं (Variance) को नियन्त्रित किया जा सके। यह प्ररचना या योजना अनुसंधान की सम्पूर्ण रूपरेखा अथवा कार्यक्रम है, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु की रूपरेखा सम्मिलित होती है जो अनुसंधानकर्ता उपकल्पनाओं के निर्माण एवं उनके परिचालनात्मक अभिप्रायों से लेकर आँकड़ों के अन्तिम विश्लेषण तक करता है।”

निष्कर्षत: अनुसंधान प्ररचना एक ऐसी योजना (Plan) या रूपरेखा है जो समस्या के प्रतिपादन से लेकर अनुसंधान प्रतिवेदन (Research Report) के अन्तिम चरण तक के विषय में विकल्पों पर ध्यान देकर इस प्रकार से निर्णय लेती है कि न्यूनतम प्रयासों (Efforts), समय (Time) एवं लागत (Money) के व्यय से अधिक अनुसंधान उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके।

शोध अभिकल्प (Research Design)

​​​​शोध अभिकल्प (Research Design)

शोध अभिकल्प की विशेषताएँ (Characteristics of Research Design)

​शोध अभिकल्प की अनिवार्य एवं आधारभूत विशेषताओं का निम्नांकित प्रकार से उल्लेख किया जा सकता है-1. ​शोध अभिकल्प का सम्बन्ध सामाजिक अनुसन्धान से होता है।2. ​शोध अभिकल्प अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान की एक निश्चित दिशा का बोध कराती है। इस अर्थ में अनुसंधान प्ररचनाएँ एक प्रकार की दिग्दर्शक हैं।3. शोध अभिकल्प की मुख्य विशेषता सामाजिक घटनाओं की जटिल प्रकृति को सरल रूप में प्रस्तुत करना है।4. ​शोध अभिकल्प, अनुसन्धान की वह रूपरेखा है जिसकी रचना अनुसंधान कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व की जाती है।5. ​शोध अभिकल्प की एक और विशेषता अनुसंधान प्रक्रिया के दौरान आगे आने वाली परिस्थितियों को नियन्त्रित करना एवं अनुसंधान कार्य को सरल बनाना है।6. ​शोध प्ररचना न केवल मानवीय श्रम को कम करती है बल्कि वह समय एवं लागत को भी कम कर के अनुसंधान के अधिकतम उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता करती है।7. शोध अभिकल्प अनुसंधान के दौरान आने वाली कठिनाइयों को भी कम करने में अनुसंधानकर्ता की सहायता करती है।8. शोध अभिकल्प का चयन सामाजिक अनुसंधान की समस्या एवं उपकल्पना की प्रकृति के आधार पर किया जाता है।9. शोध अभिकल्प समस्या की प्रतिस्थापना से लेकर अनुसंधान प्रतिवेदन के अन्तिम चरण तक के विषय में सभी उपलब्ध विकल्पों के बारे में व्यवस्थित रूप में श्रेष्ठ निर्णय लेने में सहायता करती है।

शोध अभिकल्प की विषयवस्तु (Subject-Matter of Research Design)

एक सामान्य शोध अभिकल्प में निम्नलिखित विषयों का उल्लेख किया जाता है-

शोध का विषय (Topic or Research)

ऐसा करने से अध्ययन के विषय का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है तथा उसके क्षेत्र एवं सीमाओं का पता चल पाता है। इसके स्वरूप निर्धारण के लिए सरकारी, गैर-सरकारी, व्यक्तिगत पुस्तकालयों या परिवेश सम्बन्धी उपलब्ध अध्ययन के स्रोतों का अध्ययन करते हैं।

अध्ययन की प्रकृति (Nature of Study)

इसमें शोध का प्रकार एवं स्वरूप निर्धारित करना पड़ता है। यह साँख्यिकीय, व्यक्तिगत, तुलनात्मक, प्रयोगात्मक, विश्लेषणात्मक, अन्वेषणात्मक या मिश्रित प्रकार का हो सकता है।

प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि (Introduction and Background)

इसमें उस विषय को चुनने की पृष्ठभूमि बतानी पड़ती है तथा उसकी शुरूआत करनी पड़ती है। इससे पता चल जाता है कि शोधक की उक्त विषय में रुचि, समस्या एवं स्थिति क्या थी। अब तक प्राप्त परिणामों में व्याप्त कमियों एवं त्रुटियों को दूर किया जाना किस प्रकार सम्भव एवं वांछनीय है आदि।

उद्देश्य (Objectives)

इसमें अनुसन्धानकर्ता या गवेषक अपना उद्देश्य बताता है, उप-उद्देश्य या लक्ष्य भी प्रकट करता है अर्थात् प्रमुख एवं सहायक उद्देश्यों का उल्लेख करता है। ये प्राय: चार या पाँच वाक्यों में स्पष्ट किए जाते हैं।

अध्ययन का सामाजिक, साँस्कृतिक, राजनीतिक एवं भौगोलिक सन्दर्भ (Social, Cultural, Political & Geographical Context of Study)

इसमें शोधक स्पष्ट करता है कि वह किस प्रकार के समाज एवं संस्कृति के पर्यावरण में रह रहा है तथा उसके प्रमुख मूल्य, परम्पराएँ, मान्यताएँ आदि क्या हैं? इसके सन्दर्भ में राजनीतिक व्यवस्था, व्यवहार एवं मूल्य, भौगोलिक सन्दर्भ में मानव-व्यवहार को प्रभावित करने वाले तथ्य, स्थिति, जलवायु, प्राकृतिक बनावट, प्रकृति उत्पादन आदि आते हैं। यदि सम्भव हो तो आर्थिक परिवेश का भी परिचय दे दिया जाना चाहिए। राजनीतिक शोध को सामाजिक, साँस्कृतिक, आर्थिक एवं औद्योगिक आयामों में समायोजित करना चाहिए।

अवधारणा, चर एवं प्राक्कल्पना (Concept, Variable & Hypothesis)

इस क्षेत्र में सबसे पहले यदि कोई सिद्धान्त या अवधारणात्मक रूपरेखा को आधार बनाया गया है तो उसका उल्लेख कर प्रमुख अवधारणाओं को स्पष्ट किया जाना चाहिए। उनको सुनिश्चित बनाने के लिए उनकी कार्यकारी परिभाषाएँ दी जानी चाहिए। जैसे—यदि “भ्रष्टाचार” की अवधारणा को प्रयुक्त किया गया है तो यह बताया जाना चाहिए कि उसे किन अर्थों में प्रयोग किया गया है। इसी तरह यह बताया जा सकता है कि किन-किन चरों को केन्द्रीय विषय बनाया जा रहा है तथा उनसे सम्बन्धित कौन-कौन सी प्राक्कल्पनाओं का निर्माण किया गया है।

कोहन एवं नगेल ने बताया है कि हम समस्या को प्रस्तावित व्याख्याओं या समाधान के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते हैं। ये समस्या से सम्बद्ध विषय-सामग्री तथा शोधक के पूर्व ज्ञान द्वारा सुझाए जाते हैं। जब इन सुझावों या व्याख्याओं को प्रस्तावनाओं की तरह रखा जाता है, वे प्राक्कल्पनाएँ कहलाती हैं जो तथ्योंमें सुव्यवस्था लाकर शोध को निर्देशित कर देती हैं।

काल-निर्देश (Period-Indication)

इसमें यह बताया जाता है कि शोध किस समय, काल या परिवेश से सम्बन्धित है। समय राजनीतिक अनुसन्धान में एक अतिशय महत्त्वपूर्ण कारक होता है।

तथ्य-सामग्री के चयन के आधार एवं संकलन प्रविधियाँ (Basis of Selection of Data and Techniques of Collection)

इसमें तथ्य सामग्री के चयन के आधार बताए एवं निश्चित किए जाते हैं। यहाँ उनका औचित्य भी स्पष्ट किया जाना चाहिए। ये आधार प्रलेखीय, भौतिक अथवा वैचारिक प्रेक्षणीय आदि हो सकते हैं। तथ्य-संकलन की प्रविधियौं मानवीय या मशीनी हो सकती हैं। अवलोकन, प्रश्नावली, साक्षात्कार, प्रक्षेपण आदि युक्तियों के द्वारा तथ्य एकत्र किए जा सकते हैं।

विश्लेषण एवं निर्वचन (Analysis and Interpretation)

सामग्री के एकत्रित होने के बाद उसके सारिणीयन, वर्गीकरण एवं विश्लेषण प्रणालियों का संकेत दिया जा सकता है। उसके निर्वचन में कौनसी पद्धतियों का सहारा लिया जाएगा अथवा उसकी सामान्यता या प्रामाणिकता की मात्रा क्या होगी आदि बातों का उल्लेख न्यूनाधिक मात्रा में किया जा सकता है।

सर्वेक्षण-काल, समय एवं धन (Survey-Period, Time and Money)

इसमें यह भी संकेत दिया जाना चाहिए कि सर्वेक्षण कितने समय के भीतर सम्पन्न हो जायेगा; उसे कितनी बार किया जाएगा, इसी प्रकार शोध में लगने वाले समय एवं धन का अनुमान भी बताया जाना चाहिए।

यंग ने रोले के एक आदर्श-अनुसंधान-अभिकल्पना को प्रस्तुत किया है। उसमें निम्नांकित बारह बातें बताई गई हैं-1. शोध-विषय की प्रकृति : व्यक्तिगत, दो या अधिक व्यक्तियों के समूह, उप-समूह, समाज या इनके मिश्रित समूह।2. घटनाओं की संख्या : एक, कुछ चयनित घटनाएँ या कई चुनी हुई घटनाएँ।3. सामाजिक-भौतिक परिवेश : किसी एक समय में एक ही समाज से सम्बद्ध मामले या कई समाजों के कई मामले।4. घटनाओं को चुनने का प्राथमिक आधार : प्रतिनिधित्वपूर्ण, विश्लेष्णात्मक या दोनों।5. समय का तत्त्व : (एक ही समय में किया जाने वाला) स्थैतिक अध्ययन (एक प्रक्रिया या लम्बे समय में घटित परिवर्तन वाला), गत्यात्मक अध्ययन।6. अध्ययन के अन्तर्गत व्यवस्था के ऊपर के शोधक के नियन्त्रण की सीमा, व्यवस्थित या अव्यवस्थित नियन्त्रण।7. आधार-सामग्री के मूल स्रोत : प्रस्तुत उद्देश्य के लिए शोधक द्वारा नई आधार-सामग्री का संकलन (शोध-समस्या की आवश्यकता के अनुसार)।8. आधार-सामग्री को एकत्र करने की पद्धति : अवलोकन, प्रश्न या दोनों मिश्रित या अन्य कोई।9. शोध में प्रयुक्त चरों या गुणों की संख्या : एक, कुछ या कई।10. एक गुण का विश्लेषण करने की पद्धति : अव्यवस्थित वर्णन, चरों का मापन।11. विभिन्न गुणों या चरों के मध्य सम्बन्धों के विश्लेषण की पद्धति : अव्यवस्थित वर्णन, व्यवस्थित विश्लेषण।12. एकिक या सामूहिक रूप में व्यवस्था के गुणों का अध्ययन।

एक अच्छे अन्वेषण-रूपाँकन या प्ररचना में अनेक विशेषताएँ पाई जाती हैं। वह शोध-प्रक्रिया के दौरान आवश्यकतानुसार संशोधित एवं परिवर्तित किए जा सकने के कारण लचीला होता है। उसकी अवधारणाएँ स्पष्ट, सुनिश्चित एवं आनुभविक होती हैं। इससे शोध में परिशुद्धता आ जाती है। इस प्रकार शोध को अभिनतियों तथा पूर्वाग्रहों से बचाने का पूर्व प्रबन्ध कर लिया जाता है। ऐसा करने से उसमें विश्वसनीयता बढ़ जाती है।

शोध-प्ररचना सभी उपलब्ध सामग्री, साधनों एवं स्रोतों का अध्ययन करने के पश्चात् ही बनाई जाती है। उसको सभी सम्बद्ध पक्षों से जोड़ने का प्रयास भी किया जाता है, किन्तु ऐसा करते समय अन्य विषयों या अनुशासनों से सामग्री यथावत् ग्रहण नहीं की जाती। उसमें अवधारणाओं को प्रयोग करते समय राजनीतिक सन्दर्भ का ध्यान रखा जाता है। चरों का स्वरूप स्पष्ट कर देने से शोधक अपने मूल्यों को पृथक् रखने में सफल हो जाता है और अनुसन्धान मूल्य मुक्त बन जाता है। अनुसन्धान प्रकल्प की उपयुक्त सभी विशेषताएँ एवं अंश किन्हीं कठोर एवं निर्धारित मार्गों पर चलने को बाध्य नहीं हैं। नई स्थितियों, दशाओं एवं विशेषताओं के दृष्टिगोचर हो जाने पर उनमें स्पष्टीकरण देते हुए परिवर्तन कर लिया जाता है। वस्तुत: राजनीतिक-विषयक अनुसंधान प्रकल्प में ऐसा करना आवश्यक भी हो जाता है।

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