पाठ योजना का अर्थ, महत्व, उपागम, पाठ योजना के सोपान एवं विशेषताएँ

पाठ योजना की आवश्यकता
(Need of Lesson Plan)

अध्यापन कार्य एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। शिक्षण का सम्बन्ध अधिगम या सीखने से है। सिखाना या सीखने को प्रेरित करना एक चुनौती है। यदि हमें इस चुनौती को स्वीकार करना है तो उससे पहले हमें सिखाने की विधियों के प्रति आश्वस्त होना पड़ेगा और हम इन विधियों या रीतियों के प्रति उन पर गम्भीरता से विचार कर यह निर्धारित करें कि सिखाने के लिये अपनाया जा रहा तरीका उपयुक्त है। अत: इन तथ्यों से स्पष्ट है कि सीखने के लिये प्रेरित करने और सिखाने से पूर्व गहरा चिन्तन तथा मनन करना पड़ता है। एक कुशल, सचेत और प्रतिबद्ध शिक्षक अध्यापन करवाने से पूर्व शिक्षण के विभिन्न पहलुओं पर विचार करता है, चिन्तन करता है, फिर उस चिन्तन, विचार और अपने अनुभवों के आधार पर वह अपने शिक्षण की योजना बनाता है। अध्यापक द्वारा चिन्तन करना और योजना बनाना शिक्षण कार्य को सफल बनाने हेतु किये गये शिक्षण के पूर्व का कार्य है। शिक्षण की सफलता और असफलता इन कार्यों पर निर्भर करती हैं। अध्यापक जब कक्षा में शिक्षण करवाने के लिये जाये तो उसे पूर्व तैयारी के साथ जाना चाहिये। अध्यापक को अपना पाठ पढ़ाने से पूर्व निम्नलिखित दृष्टिकोणों से गम्भीरतापूर्वक विचार एवं चिन्तन कर लेना चाहिये-

(1) पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित छात्रों का पूर्व ज्ञान क्या है?
(2) विद्यार्थियों का मानसिक स्तर क्या है?
(3) पाठ्यवस्तु को किस प्रकार प्रस्तुत किया जायेगा?
(4) पाठ्यवस्तु का शिक्षण करवाने के पश्चात् कौन-कौन से व्यवहारगत परिवर्तन विद्यार्थी में हो सकेंगे?
(5) शिक्षण के समय विद्यार्थी और अध्यापक के मध्य कौन-कौन-सी क्रियाएँ होंगी?
(6) विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिये कौन-कौन-सी शिक्षण सहायक सामग्री की आवश्यकता होगी?
(7) इस शिक्षण सहायक सामग्री को कहाँ से तथा किस प्रकार जुटाया जायेगा?
(8) पाठ्यवस्तु का शिक्षण करवाते समय शिक्षण सहायक सामग्री का उपयोग कब एवं किस प्रकार किया जायेगा?
(9) पाठ्यवस्तु की और विद्यार्थियों को उदीप्त या उत्तेजित कैसे रखा जायेगा?
(10) पाठ का प्रारम्भ कैसे किया जायेगा?
(11) शिक्षण करवाते समय श्यामपट्ट पर क्या-क्या लिखा जायेगा?
(12) शिक्षण करवाते समय यह कैसे जाना जायेगा कि विद्यार्थी सीख पा रहे हैं या नहीं?
(13) शिक्षण करवाने के पश्चात् पूर्व निर्धारित व्यवहारगत परिवर्तन हुए या नहीं इसका पता कैसे लगाया जायेगा?
(14) पाठ्यवस्तु पढ़ाने के बाद विद्यार्थियों को गृहकार्य क्या दिया जायेगा?
जब शिक्षक इन सभी दृष्टिकोणों पर विचार कर और निर्णयों पर पहुँच जाता है तब वह कक्षा में पढ़ाने के लिये एक कालांश की पाठ्यवस्तु के लिये अपनी योजना को लिखित रूप प्रदान करता है, इसे पाठ योजना (Lesson Plan) कहते हैं।

पाठ योजना का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Lesson Plan)

पाठ योजना शिक्षक द्वारा अपनी पाठ्यवस्तु, अधिगम तथा शिक्षण-सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर शिक्षण पूर्व चिन्तन के आधार पर बनायी गयी लिखित योजना है। पाठ की सभी आवश्यकताओं, उद्देश्यों पर भली प्रकार से विचार करने के बाद अध्यापक उस पाठ-योजना को लिखित रूप प्रदान करता है, जिसमें वह सबसे पहले सामान्य जानकारियों के बाद व्यवहारगत परिवर्तनों को उद्देश्य के रूप में लिखता है। बाद में पूर्वज्ञान को आधार बनाते हुए पाठ को प्रस्तावना लिखता है। उसके पश्चात् प्रस्तुतीकरण, शिक्षक शिक्षार्थी अन्त:क्रिया, श्यामपट्ट कार्य एवं पाठान्तर्गत मूल्यांकन आदि को लिखता चला जाता है। पाठ के अन्त में अध्यापक पाठोपरान्त मूल्यांकन तथा गृहकार्य का उल्लेख करता है। यहाँ हमें यह ध्यान सदैव रखना चहिये कि, पाठ-योजना केवल आधार पत्र (ब्ल्यू प्रिन्ट) नहीं है, जिसका अन्धानुकरण किया जाय अपितु यह शिक्षण कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न करने का माध्यम है। यह शिक्षण को सरल, सुबोध और प्रभावी बनाने का तरीका है। शिक्षण को यान्त्रिक क्रिया नहीं बनाया जा सकता। अत: हमें पाठ-योजना को एक पथ-प्रदर्शक के रूप में ग्रहण करना चाहिये। शिक्षक अपने शिक्षण को सफल बनाने के लिये विवेकपूर्ण योजना निर्माण करने के लिये स्वतन्त्र है। पाठ-योजना शिक्षक के लिये साधन है न कि साध्य । वह शिक्षण को केन्द्रित और उद्देश्यपूर्ण बनाकर मूल्यांकन में सहायक है। पाठ-योजना की शिक्षाशास्त्रियों ने अनेक परिभाषाएँ दी हैं, इनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) बोसिंग के अनुसार, “पाठ-योजना उस विवरण का नाम है, जिसमें यह स्पष्ट किया जाता है कि किस पाठ से क्या उपलब्धियाँ प्राप्त करनी है और उन्हें किन साधनों द्वारा कक्षा की क्रियाओं के फलस्वरूप प्राप्त किया जा सकता है?”
(2) डेविस के अनुसार, शिक्षण व्यवस्था के सभी पक्षों का व्यावहारिक रूप का आलेख ही पाठ योजना है।”
(3) बाईनिंग एवं बाईनिंग के अनुसार, “दैनिक पाठ-योजना के निर्माण में उद्देश्यों को परिभाषित करना, पाठ्यवस्तु का चयन करना, उसे क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित करना और प्रस्तुतीकरण की विधियों तथा प्रतिक्रियाओं का निर्धारण करना है।”
(4) आइवर के. डेवीज के अनुसार, ”शिक्षण व्यवस्था के सभी पक्षों में व्यवहारिक रूप का आलेख पाठ-योजना है। कक्षा-शिक्षण की पूर्व अवस्था (Preactive Stage) ही पाठ योजना है।”
(5) डॉ. श्रीमती आर. ए. शर्मा के अनुसार, “शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये शिक्षक जिन क्रियाओं का नियोजन करता है, उनके आलेख को पाठ-योजना की संज्ञा दी जाती है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के प्रकाश में भी हम देख सकते हैं कि शिक्षण को व्यवस्थित रूप से सम्पन्न करवाने के लिये शिक्षण सिद्धान्तों के आधार पर पूर्व में किये गये प्रयासों और विचारों को व्यवस्थित रूप से लिखित रूप में दे देना पाठ-योजना है। यह योजना है अध्यापक के लिये पथ-प्रदर्शक का कार्य करती है लेकिन शिक्षक को इसका अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये क्योंकि शिक्षण कोई यान्त्रिक क्रिया नहीं है। अत: कक्षा-अध्यापन करवाते समय अध्यापक को कक्षा की स्थिति के अनुरूप ही पाठ-योजना का अनुसरण करना चाहिये।

पाठ योजना का अर्थ, महत्व, उपागम, पाठ योजना के सोपान एवं विशेषताएँ
पाठ योजना का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Lesson Plan)

पाठ योजना की उपयोगिता एवं महत्व (Utility and Importance of Lesson Plan)

नियोजित शिक्षा का अर्थ है- निश्चित उद्देश्य, निश्चित पाठ्यचर्या और नियोजित शिक्षण। नियोजित शिक्षण में पाठ-योजना का बड़ा महत्व है। मरसेल के शब्दों में पाठ-योजना के दो विशेष लाभ हैं, एक तो यह उत्तम शिक्षण में योग देती है और दूसरा उत्तम शिक्षण का निर्माण करती है। पाठ योजना के महत्व और उपयोगिता को हम निम्नलिखित प्रकार से देख सकते हैं-

1. शिक्षण के उद्देश्यों की स्पष्टता- पाठ-योजना का अध्यापक को सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह इसमें शिक्षण के उद्देश्यों को स्पष्ट करता है। शिक्षण के उद्देश्यों की स्पष्टता पर शिक्षण की बड़ी प्रक्रिया आधारित होती है। पाठ योजना में शिक्षक अपनी पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु के उद्देश्यों को स्पष्ट कर उन्हें लिखित स्वरूप प्रदान करता है।
2. विषयवस्तु की स्पष्टता– पाठ-योजना में अध्यापक अपनी विषयवस्तु को भी स्पष्ट करता है। वह भली प्रकार से इस पर विचार कर लेता है कि मुझको क्या पढ़ाना है? और कितना पढ़ाना है? इस तरह से अध्यापक पाठ्यवस्तु को स्पष्ट कर उसका विश्लेषण कर लेता है और पाठ-योजना में निर्धारित स्थान पर उसका उल्लेख करता है।
3. शिक्षण विधि का चयन- पाठ योजना निर्माण से पूर्व अध्यापक को क्या पढ़ाना है?तथा क्यों पढ़ाना है? के साथ-साथ किस प्रकार पढ़ाना है? पर भी विचार करता है और यह विचार अध्यापक से उपयुक्त शिक्षण विधि का चयन करवाता है। अध्यापक को निर्धारित किये गये उद्देश्य शिक्षण विधि के चयन के लिये आधार बनते हैं।
4. शिक्षण सहायक सामग्री का चयन एवं निर्धारण- अध्यापक जब अपने पाठ के शिक्षण पर पूर्व विचार करता है तब वह इस बात पर सोचता है कि शिक्षण करवाते समय किन साधनों का उपयोग किया जा सकता है ? जो शिक्षण को प्रभावी तथा रुचिकर एवं सरल बना सकते हैं। इन साधनों के चयन के पश्चात् अध्यापक को इस पर भी सोचना होता है कि उसका उपयोग कहाँ तथा किस प्रकार किया जायेगा? शिक्षक को लिखित रूप में इसका उल्लेख अपनी पाठ योजना में करना होता है।
5. शिक्षक तथा शिक्षार्थी क्रियाओं का निर्धारण- पाठ-योजना बनाते समय अध्यापक शिक्षक तथा शिक्षार्थी क्रियाओं का निर्धारण कर लेता है। उसको स्वयं किस समय कौन सी क्रिया करनी है और विद्यार्थी को कौन सी? इसका निधारण हो जाने से शिक्षण कार्य व्यवस्थित हो जाता है।
6. पाठ से पूर्व शिक्षक की तैयारी- अपना पाठ पढ़ाने से पूर्व शिक्षक जब विभिन्न पहलुओं पर विचार करता है तब वह अपने पाठ की तैयारी भी भली प्रकार से कर लेता है। अपनी पाठ्यवस्तु का विश्लेषण कर लेने से उसे अध्यापन करवाते समय किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव नहीं होती।
7. समय और शक्ति का सदुपयोग- पाठ-योजना निर्माण करने के पश्चात् शिक्षक का कार्य व्यवस्थित और उद्देश्यपूर्ण हो जाता है, फिर शिक्षक के भटकने की गुंजाइश नहीं रहती। वह कक्षा अध्यापन करवाते समय क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ता जाता है। इससे कम समय में अधिक कार्य होने की गुंजाइश रहती है। इसमें समय और शक्ति दोनों की बचत होती है और उनका सही-सही उपयोग होता है।
8. मूल्यांकन सम्भव- पाठ योजना निर्माण करते समय अध्यापक को इस पर भी विचार करना होता है कि वह पढ़ायी गयी विषयवस्तु का मूल्यांकन किस प्रकार करेगा? शिक्षकों को पाठ-योजना में मूल्यांकन का उल्लेख करना होता है। इस दृष्टि से पाठ-योजना का बहुत महत्व है।
9. गृहकार्य– पाठ योजना में गृहकार्य का प्रावधान भी होता है। शिक्षक को योजना में उल्लेख करना होता है कि गृहकार्य के रूप में छात्र को क्या कार्य दिया जायेगा?

इस प्रकार से हम देखते हैं कि प्रतिबद्ध शिक्षक के लिये पाठ-योजना का अत्यन्त महत्व है। पाठ-योजना के अभाव में शिक्षण उद्देश्यपूर्ण, व्यवस्थित और प्रभावी नहीं हो सकता शिक्षण को सफल बनाने में पाठ-योजना की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है।

पाठ योजना की उपयोगिता एवं महत्व (Utility and Importance of Lesson Plan)
पाठ योजना की उपयोगिता एवं महत्व (Utility and Importance of Lesson Plan)

पाठ योजना के उपागम
(Approaches of Lesson Plan)

पाठ योजना निर्माण में अनेक उपागमों को प्रयुक्त किया जाता है। इन उपागमों में हरबर्ट उपागम, मूल्यांकन उपागम (ब्लूम उपागम), ड्यूवी तथा किलपेट्रिक उपागम, मॉरीसन उपागम, अमेरिकन उपागमन तथा ब्रिटिश उपागम इत्यादि प्रमुख उपागम है।

हरबर्ट उपागम
(Herbartian Approach)

प्रारम्भ में भारत में हरबर्ट की पंचपदी प्रणाली पर आधारित पाठ-योजना बनायी जाती थी। हरबर्ट की पंचपदी प्रणाली के पद निम्नलिखित प्रकार हैं-

(1) प्रस्तावना
(2) प्रस्तुतीकरण
(3) व्यवस्था
(4) तुलना
(5) मूल्यांकन

हरबर्ट द्वारा प्रतिपादित पाठ-योजना के ये पाँचों सोपान बड़े महत्वपूर्ण हैं। आज भी इनका अनुसरण किसी-न-किसी रूप में लिया जाता है। हमारे देश में अधिकतर पाठ-योजनाएँ हरबर्ट उपगाम के आधार पर ही बनायी जाती हैं। हालांकि ब्रिटिश उपागम और अमेरिकन उपागम का भी प्रभाव योजनाओं पर रहता है।

मूल्यांकन उपागम
(Evaluation Approach)

मूल्यांकन उपागम बी. एस. ब्लूम की देन है। मूल्यांकन उपागम में शिक्षण के पश्चात् विद्यार्थी के व्यवहारगत परिवर्तनों का मूल्यांकन किया जाता है। इन व्यवहारगत परिवर्तनों का मूल्यांकन भली प्रकार तभी सम्भव है, जब उद्देश्यों का निर्धारण भली प्रकार से किया गया हो। इस उपागम में पाठ-योजना के उद्देश्यों को बहुत महत्व दिया जाता है। पाठ योजना के उद्देश्य जितने स्पष्ट होंगे, उतना ही स्पष्ट उसका मूल्यांकन होगा। इस उपागम का विशेष प्रभाव पाठ-योजना के उद्देश्यों तथा मूल्यांकन पर ही पड़ा है। उद्देश्य का स्पष्ट निर्धारण एवं विभाजन तथा उनके आधार मूल्यांकन इस उपागम द्वारा निर्मित पाठ-योजनाओं की विशेषता है।

ड्यूवी तथा किलपेट्रिक उपागम
(Dewey and Kilpatric Approach)

यह उपागम अधिगम अनुभवों के आधार पर ज्ञान देने का पक्षधर है। ड्यूवी और किलपेट्रिक का मानना है कि विद्यार्थी अपने जीवन की समस्याओं को सुलझाते हुए अनेक प्रकार के अनुभव प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार के जीवन से सम्बन्ध रखने वाली योजनाओं के माध्यम से हमें छात्रों को ज्ञान देना चाहिये। इनके अनुसार अधिगम का आधार प्रायोजना है। किलपेट्रिक ने प्रायोजना विधि के सात पद सुझाये हैं-
(1) परिस्थिति उत्पन्न करना।
(2) योजना का चयन।
(3) योजना का उद्देश्य।
(4) योजना-नियोजन।
(5) योजना का क्रियान्वयन।
(6) कार्यों का मूल्यांकन।
(7) योजना पूर्ण होने पर लेखा लिखना।

मॉरीसन उपागम
(Morrison Approach)

इस उपागम के प्रवर्तक एच. सी. मॉरीसन हैं। मॉरीसन ने अपने इस उपागम में डीवी तथा हरबर्ट उपागमों का समन्वय किया है। इस उपागम में शिक्षण की एक चक्रीय योजना (cycle plan of teaching) का निर्माण किया जाता है, जिसमें निम्नलिखित पाँच पदों का अनुसरण किया जाता है-
(1) अन्वेषण (Exploration)
(2) प्रस्तुतीकरण (Presentation)
(3) आत्मीकरण (Assimilation)
(4) व्याख्या (Organisation)
(5) वर्णन (Recitation)
इस उपागम में इकाई पद्धति (Unit Method) को महत्वपूर्ण माना गया है। इकाई पद्धति विद्यार्थी केन्द्रित होती है। इकाई का निर्माण निद्यार्थियों की सहायता से शिक्षक द्वारा किया जाता है। इसमें उनकी रुचि एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है।

ब्रिटिश उपागम (British Approach)

इस उपागम में केन्द्र बिन्दु शिक्षक है। इस प्रणाली पर आधारित पाठ-योजना बनाते समय शिक्षक की क्रियाओं तथा विद्यार्थी के मूल्यांकन पर विशेष बल दिया जाता है। इस उपागम के अनुसार शिक्षक को प्रभावशाली क्रियाओं पर शिक्षण निर्भर करता है। शिक्षक की क्रियाएँ जितनी अधिक प्रभावी होंगी. शिक्षार्थी उतनी ही भली प्रकार सीखेगा।

अमेरिकन उपागम
(American Approach)

इस उपागम में अधिगम उद्देश्यों पर बल दिया जाता है। उद्देश्य को भली प्रकार स्पष्ट एवं परिभाषित करने के बाद शिक्षक विद्यार्थी अन्त: क्रियाओं को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है कि वे निर्धारित उद्देश्यों को सरलता से प्राप्त कर सके। इसमें (1) उद्देश्य, (2) व्यवहार तथा (3) मूल्यांकन का प्रमुख स्थान है।

भारतीय उपागम (Indian Approach)

भारतीय उपागम पर ब्रिटिश उपागम तथा अमेरिकन उपागम का प्रभाव है। सन् 1960 के बाद राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा उच्च शिक्षा संस्थान द्वारा पाठ-योजना पर अनेक प्रयोग किये गये, “जिसके परिणामस्वरूप पाठ-योजना बनाने का एक नवीन उपागम प्रस्तुत किया गया जिसमें-(1) शिक्षण उद्देश्यों, (2) शिक्षक क्रियाओं तथा (3) छात्र के मूल्यांकन को महत्व दिया गया।
उपर्युक्त कुछ प्रमुख उपागम हैं. जिनका प्रयोग भारत में पाठ-योजनाएँ बनाते समय किया जाता है। वास्तव में दैनिक पाठ योजना का स्वरूप यन्त्रवत नहीं हो सकता क्योंकि शिक्षण क्रिया यान्त्रिक क्रिया नहीं है। पाठ-योजना शिक्षण प्रक्रिया को समझने में सहायक है। वह साध्य नहीं, साधन है, साधारणत: हम शिक्षण प्रक्रिया में निम्नलिखित बिन्दुओं को सम्मिलित करते हैं।

  • शिक्षण उद्देश्य
  • अध्ययन-अध्यापन संस्थितियाँ
  • मूल्यांकन प्रविधियाँ

जब हम प्रचलित उपागमों पर आधारित पाठ योजनाओं को देखते हैं तो पाते हैं कि पाठ योजना का कोई भी प्रारूप उपर्युक्त तीनों तथ्यों की परिधि से बाहर नहीं हो सकता।

पाठ योजना के सोपान
(Steps of Lesson Plan)

ऊपर शिक्षण प्रक्रिया को भारतीय उपागम में तीन तथ्यों  द्वारा स्पष्ट किया गया है। यदि एक शिक्षण इन तीनों बिन्दुओं के सम्बन्ध में एकदम स्पष्ट हो तो उसे अपना पाठ व्यवस्थित रूप से बनाने और अध्यापन करने में कोई परेशानी नहीं होगी। पाठ योजना के विभिन्न उपागमों की चर्चा पहले की जा चुकी है उस आधार पर पाठ योजना के अलग-अलग सोपान हो सकते हैं। हरर्बट की पंचपदीय पद्धति पर आधारित भारतीय उपागम की जो पाठ योजनाएँ हैं, उनमें सामान्यत: निम्नलिखित सोपानों का अनुसरण किया जाता है-
(1) परिचयात्मक सूचनाएँ
(2) उद्देश्य
(3) शिक्षण सहायक सामग्री
(4) पूर्वज्ञान
(5) प्रस्तावना
(6) प्रकरणाभिसूचन या पाठ्याभिसूचन
(7) पाठ का विकास
(8) श्यामपट्ट कार्य
(9) मूल्यांकन
(10) गृह कार्य
इन सभी सोपानों को हम निम्नलिखित प्रकार से समझ सकते हैं-

परिचयात्मक सूचनाएँ

दैनिक पाठ योजना बनाते समय अध्यापक को विद्यालय का नाम, कक्षा, वर्ग, कालांश अवधि, विषय एवं प्रकरण आदि का उल्लेख पाठ योजना के प्रारम्भ में करना होता है। स्पष्ट है कि यह सूचनाएँ परिचयात्मक हैं, इन्हें सामान्य सूचनाएँ भी कहा जाता है। इन सूचनाओं के आधार पर भविष्य में उस पाठ योजना का उपयोग किया जा सकता है, दूसरे शिक्षक भी उससे लाभ ले सकते हैं। परिचयात्म्क या सामान्य सूचनाएँ देते समय शिक्षक को यह ध्यान रखना चाहिये कि सूचनाएँ स्पष्ट तथा संक्षिप्त हों।

उद्देश्य

यह दैनिक पाठ योजना का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोपान होता है क्योंकि पाठ योजना की अध्ययन-अध्यापन संस्थितियाँ और मूल्यांकन प्रविधियाँ दोनों इन उद्देश्यों पर निर्भर करती है। उद्देश्यों का भली प्रकार से स्पष्ट हो जाने का अर्थ पाठ योजना की नींव का मजबूत हो जाना होता है। इस दृष्टि से हम उद्देश्यों को दैनिक पाठ योजना का आधार कह सकते हैं। सामान्यत: पाठ के दो प्रकार के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं, सामान्य तथा विशिष्ट। दैनिक पाठ-योजना पूर्णतः क्रियात्मक योजना होती है। अतः उसमें सामान्य उद्देश्यों को न रखकर विशिष्ट उद्देश्यों को रखना चाहिये क्योंकि सामान्य उद्देश्य तो वार्षिक पाठ-योजना में भी सम्मिलित किये जाते हैं। अतः पाठ की योजना बनाते समय विशिष्ट उद्देश्यों पर बल देना चाहिये ताकि उनका मूल्यांकन भी पाठ की समाप्ति पर हो सके। उद्देश्यों का निर्धारण करते समय यह बात आवश्यक रूप से ध्यान रखनी चाहिये कि वे उद्देश्य कालांश की ‘अवधि में प्राप्य हों, जो उद्देश्य कालांश की अवधि में प्राप्य न हो उनका उल्लेख पाठ योजना में अनावश्यक रूप से नहीं करना चाहिये। विषय की प्रकृति के अनुसार निर्धारण उद्देश्यों को व्यवहारगत परिवर्तन के रूप में लिखना चाहिये।

सहायक सामग्री

इस सोपान में शिक्षक को पाठ में उपयोग ली जा रही शिक्षण सहायक सामग्री का उल्लेख करना होता है। किस विषय के किस पाठ में कौन-सी सहायक सामग्री काम में ली जाय? इसका निर्धारण विषय तथा प्रकरण की प्रकृति के अनुसार ही होता। कुछ सहायक सामग्री श्रव्य एवं दृश्य-श्रव्य साधनों के रूप में उपलब्ध रहती है तो कुछ अध्यापक को अपने प्रकरण की प्रकृति के अनुरूप बनानी पड़ती है। शिक्षक को सामान्यत: कम खर्चीली, वातावरण के साधनों से उपलब्ध, सहज, सरल एवं स्पष्ट सहायक सामग्री का निर्माण करना चाहिये। सहायक सामग्री का उपयोग पाठ में क्यों? कब कैसे? तथा कहाँ करना है ? आदि प्रश्नों पर शिक्षक को भली प्रकार से विचार कर लेना चाहिये। सहायक सामग्री को बनाना या उसका चयन करना ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि उसका सही समय पर सही तरीके से उपयोग करना ही उसकी सार्थकता है। पाठ-योजना निर्माण करते समय अध्यापक को अपने पाठ में प्रयोग ली जा रही शिक्षण सहायक सहायक सामग्री का लघुरूप भी संलग्न करना चाहिये। कुछ अध्यापक खड़िया झाड़न आदि का उल्लेख भी पाठ योजना निर्माण करते समय सहायक सामग्री के रूप में करते हैं। इस दृष्टि से तो भी श्यामपट्ट का उल्लेख भी सहायक सामग्री के रूप में किया जाना चाहिये। यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि अध्यापन करवाते समय कक्षा में जो उपकरण दैनिक रूप से काम में आते हैं। वे सहायक सामग्री में नहीं आते, जैसे चॉक एवं झाड़न(Duster), संकेतक(Pointer) आदि। हाँ यदि अध्यापक ‘न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम’ पढ़ा रहा है और उसने कक्षा में चॉक के ऊपर उछालकर विषय वस्तु को समझाने के रूप में काम में लिया है तो चॉक शिक्षण सहायक सामग्री होगा।
अत: हमें चॉक, झाड़न एवं संकेतन आदि उल्लेख सहायक सामग्री के रूप में नहीं करना चाहिये।

पूर्व ज्ञान

शिक्षक विद्यार्थी को जो विषयवस्तु पढ़ा रहा है उसका विद्यार्थी के पूर्वज्ञान से सम्बन्ध होना आवश्यक है क्योंकि विद्यार्थी पूर्व अनुभव के आधार पर ही नवीन विषयवस्तु ग्रहण करता है। एक कुशल अध्यापक में यह गुण होता है कि वह विद्यार्थियों के पूर्व अनुभवों का लाभ उठाते हुए अपनी विषयवस्तु सहज, सरल, रोचक एवं प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करता है। यह पाठ की सफलता का आधार है। पूर्वज्ञान की वह प्रस्तावना बिन्दु है, जहाँ से विद्यार्थी नये पाठ की विषयवस्तु को खरीदने के लिये आगे बढ़ता है। अत: पूर्व ज्ञान की जानकारी रखना तथा पाठ-योजना में इस सोपान पर इसका उल्लेख करना आवश्यक है।

प्रस्तावना

विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान का लाभ उठाते हुए अध्यापक पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु के प्रति छात्रों को कितना उद्दीप्त कर पाता है ? यह पाठ की प्रस्तावना पर निर्भर होता है। इस सोपान पर शिक्षक कक्षा में ऐसी परिस्थिति का निर्माण करता है, जिसके द्वारा वह विद्यार्थियों को नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिये कर लेता है। इस परिस्थिति द्वारा विद्यार्थियों
के पूर्व ज्ञान की पुनर्रचना हो जाती है और वे अपने पुराने ज्ञान का तादात्म्य नये ज्ञान के साथ करके नया ज्ञान प्राप्त करने के लिये अभिप्रेरित हो जाते हैं। पाठ की प्रस्तावना जितनी सहज, सरल, रोचक और प्रभावी होगी। उतनी ही सहजता, सरल एवं रोचकता से छात्र विषयवस्तु को ग्रहण करने के लिये उद्दीप्त होंगे। पाठ की प्रस्तावना विषयवस्तु की प्रकृति एवं विद्यार्थी के पूर्व अनुभव एवं उसके मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाती है। प्रस्तावना का मुख्य उद्देश्य बालकों को पढ़ाये जाने वाले पाठ पर केन्द्रित करना है। पाठ की प्रस्तावना का कोई एक तरीका नहीं है, इसको अनेक प्रकार से तैयार किया जा सकता है। एक ही प्रकरण को अनेक प्रकार से तैयार किया जा सकता है। साधारणतया प्रस्तावना प्रश्नों, दृश्य, श्रव्य संसाधनों, अध्यापक कथन, लघु कथा, कवितांश एवं प्रेरक प्रसंग आदि के माध्यम से तैयार की जाती है।

पाठ्याभिसूचन या प्रकरणाभिसूचन

प्रस्तावना के पश्चात् शिक्षक पाठ्याभिसूचन या प्रकरणाभिसूचन करता है। ऐसा इसलिये किया जाता है कि विद्यार्थियों को यह स्पष्टत: ज्ञात हो जाय कि उन्हें किस प्रकरण का अध्ययन करना है? इस कथन से संदिग्धता की
स्थिति समाप्त हो जाती है तथा विद्यार्थी निश्चित दिशा में बढ़ने की ओर अग्रसर होने लगते हैं। कुछ लोग इसी बात को ध्यान में रखते हुए प्रकरणाभिसूचक को उद्देश्य कथन भी कह देते हैं। प्रकरणाभिसूचन पाठ की प्रस्तावना और पाठ के विकास के बीच की कड़ी है। यहाँ हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिये कि केवल प्रकरण की सूचना देना मात्र पाठ्याभिसूचन या प्रकरणाभिसूचन नहीं है बल्कि वह पाठ की रोचकता बढ़ाने वाला तथा पढ़ाये जा रहे पाठ के केन्द्रीय भाव को स्पष्ट करने वाला कथन है। आजकल कुछ अध्यापक इसे केवल औपचारिकता पूरा करने वाला कथन समझते हैं। इसका कारण है-अध्यापकों द्वारा रोज प्रस्तावना के बाद यह कहना कि ‘आज हम यह पढ़ायेंगे’। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि किसी बात को बार-बार उसी रूप में दोहराना रुचिकर और आकर्षक नहीं होता। कुशल शिक्षक सदैव ऐसी स्थिति से बचता है। वह अपने प्रकरणाभिसूचन को भिन्न वाक्यों द्वारा बदल-बदल कर रोचक ढंग से प्रस्तुत करता है। कभी-कभी पाठ का उद्देश्य केवल शीर्षक बता देने मात्र से पूरा नहीं होता। ऐसी स्थिति
में उस प्रकरण का केन्द्रीय भाव प्रकरणाभिसूचन या पाट्याभिसूचन में स्पष्ट कर देना चाहिये। प्रकरणाभिसूचन विद्यार्थियों के सामने एकदम स्पष्ट होना चाहिये। यह आवश्यक है कि प्रकरणाभिसूचन सरल और स्पष्ट शब्दों में किया जाना चाहिये ताकि अनिश्चितता की स्थिति समाप्त हो जाय और शिक्षण कार्य अभीष्ट दिशा की ओर सहज भाव से अग्रसर हो सके।

पाठ का विकास

प्रकरणाभिसूचक या पाठ्याभिसूचन के पश्चात् अध्यापक पाठ का विकास करता है। पाठ का विकास पाठ-योजना में निर्धारित किये गये उद्देश्यों के अनुसार ही किया जाता है। पाठ के विकास में अध्यापक क्रिया, छात्र क्रिया एवं अध्ययन-अध्यापन संस्थितियाँ आदि का उल्लेख किया जाता है। यहाँ पर अध्यापक को पढ़ायी जा रही विषयवस्तु को भी शिक्षण बिन्दुओं के रूप में लिखना चाहिये। पाठ के विकास को विभिन्न सोपानों में विभाजित करना उपयुक्त रहता है क्योंकि इससे प्रत्येक सोपान की समाप्ति पर बोध प्रश्न पूछकर पाठान्तर्गत मूल्यांकन का अवसर अध्यापक को मिल जाता है, जो कि विद्यार्थी के अधिगम को स्थायी करने की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। साथ ही अध्यापक को भी इस बात का पता भली प्रकार से लग जाता है कि विद्यार्थी पढ़ायी जा रही विषयवस्तु को सीख पाया या नहीं। यह अध्यापक की कुशलता पर निर्भर करता है कि वह अपने पाठ का विकास किस प्रकार करता है? पाठ के विकास की कसौटी उद्देश्यों के अनुरूप चुनी गयी शिक्षण युकिायाँ होती हैं। ये शिक्षण युक्तियाँ विषय तथा प्रकरण की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। भाषाओं के पाठों में गद्य, पद्य, नाटक एवं कहानी आदि का विकास अलग-अलग ढंग से किया जाता है। इसी तरह से सामाजिक विज्ञान, विज्ञान एवं गणित के पाठ का विकास भिन्न-भिन्न तरह से किया जाता है। अत: सभी शिक्षकों को विभिन्न विषयों के पाठों के विकास की भिन्नताओं एवं समानताओं को बारीकी से समझना चाहिये।

श्यामपट्ट-सार

पूरे पाठ का सार लिखने के लिये शिक्षक को सहज सुलभ साधन श्यामपट्ट होता है। इसी कारण इस प्रक्रिया का नाम श्यामपट्ट सार हो गया है। अध्यापक को श्यामपट्ट सार लिखने के अनेक लाभ हैं। प्रमुख लाभों को हम निम्नलिखित प्रकार से देख सकते हैं-
(1) सारांश लिखने से पूरे पाठ का चित्र मस्तिष्क में उभर आता है, जो विषयवस्तु समझने में सहायक होता है।
(2) श्यामपट्ट सार से विद्यार्थियों में ग्रहण किया गया ज्ञान स्थायी होता है।
(3) श्यामपट्ट सार को विद्यार्थियों द्वारा अपनी अभ्यास पुस्तिका में लिखा जाता है, जिससे वह स्मृति में स्थायी बनता है।
(4) श्यामपट्ट सार विद्यार्थी के पास लिखित अभिलेख के रूप में रहता है।
(5) श्यामपट्ट सार से विद्यार्थियों की लेखन क्षमता का विकास होता है।
(6) यह अध्यापक के लिये पाठ को पुनरावृत्ति में सहयोगी है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि पाठ-योजना में श्यामपट्ट सार का महत्व है। अतः अध्यापक को इस पर भली प्रकार से विचार करके इसको पाठ-योजना के इस सोपान में स्पष्ट दर्शाना चाहिये। अध्यापक को श्यामपट्ट सार किस प्रकार देना चाहिये? इस सम्बन्ध में कोई एक मत नहीं है। श्यामपट्ट सार देने के कुछ तरीके निम्नानुसार हो सकते हैं-

(क) पाठ के विकास के साथ- शिक्षक पाठ के विकास के साथ-साथ क्रमबद्ध रूप से एक ओर मुख्य शिक्षण बिन्दुओं को लिखता चला जाता है और शेष हिस्से में चित्र, लेखाचित्र अन्य या बिन्दु या विवरण लिखता रहता है। श्यामपट्ट सार के विकास में विद्यार्थियों का सहयोग लिया जाता है।

(ख) पाठ के अन्त में श्यामपट्ट सार का विकास- इस तरीके में पुनरावृत्ति के प्रश्नों के साथ शिक्षक श्यामपट्ट सार मुख्य-मुख्य बिन्दुओं के रूप में लिखता चला जाता है। यह तरीका अध्यापक के लिये सुविधाजनक रहता है।

(ग) लपेटफलक पर पूर्व तैयारी- यह ढंग प्रायः तब काम में लिया जाता है जब या तो अध्यापक का लेख सुन्दन न हो या फिर विषयवस्तु बहुत बड़ी हो और उसे कम समय में श्यामपट्ट पर लिखना सम्भव न हो। भाषा शिक्षण में भी कवित पढ़ाते समय यह तरीका काम में लिया जाता है। इस तरीके में अध्यापक लपेटफलक पर श्यामपट्ट सार लिखकर ले आता है और अवसर आने पर उसे टाँगकर विद्यार्थियों को लिखवा देता है।
(घ) विद्यार्थी स्वयं पाठ का सारांश लिखें- इस तरीके में पुनरावृत्ति प्रश्नों के साथ विद्यार्थियों द्वारा श्यामपट्ट सार लिखवाया जाता है। बड़ी कक्षाओं में यह दंग अपनाया जा सकता है। श्यामपट्ट सार देते समय अध्यापक को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये-
(1) श्यामपट्ट सार सम्पूर्ण पाठ पर आधारित होना चाहिये।
(2) श्यामपट्ट सार मुख्य-मुख्य बिन्दुओं के रूप में दिया जाना चाहिये।
(3) श्यामपट्ट सार का विकास विद्यार्थियों के सहयोग से किया जाना चाहिये।
(4) श्यामपट्ट सार क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप से होना चाहिये।
(5) श्यामपट्ट सार का लेख स्पष्ट एवं सुन्दर होना चाहिये।

मूल्यांकन

पाठ की समाप्ति के बाद निर्धारित विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति हुई या नहीं, इसका मूल्यांकन आवश्यक है। मूल्यांकन लिखित एवं मौखिक दोनों प्रकार का हो सकता है। इस सोपान में मूल्यांकन का उल्लेख किया जाता है। अपने कालांश की अवधि के अन्त में 5-7 मिनट अध्यापक को मूल्यांकन के लिये देने चाहिये। इस अवधि में सम्पूर्ण पाठ में से अध्यापक को प्रश्न पूछने चाहिये। इसके लिये अध्यापक को उद्देश्य आधारित विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछने या लिखवाने चाहिये। मूल्यांकन प्रश्न बनाते समय अध्यापक को यह ध्यान रखना चाहिये कि कोई उद्देश्य छूट न जाय। कम-से-कम एक-एक प्रश्न प्रत्येक उद्देश्य से सम्बन्धित होना चाहिये। अध्यापक के प्रश्न के साथ इस उद्देश्य का भी संकेत दे देना चाहिये, जिस उद्देश्य की पूर्ति वह प्रश्न कर रहा है।

गृहकार्य

यह पाठ-योजना का अन्तिम सोपान होता है। गृहकार्य पाठ-योजना का आवश्यक अंग होता है। इस सोपान में अध्यापक को पाठ-योजना में विद्यार्थियों को दिये गये नियम कार्य (गृहकार्य) का उल्लेख करना होता है। गृहकार्य से विद्यार्थियों में अधिगम स्थायी होता है और विद्यार्थी के शैक्षिक विकास में सहायता अच्छे एवं योजनाबद्ध नियम
कार्य में निम्नांकित विशेषताएँ होनी चाहिये-
(1) नियत कार्य का पठित प्रकरण से सीधा सम्बन्ध होना चाहिये।
(2) नियत कार्य द्वारा प्रकरण से सम्बन्धित उद्देश्यों की पूर्ति होनी चाहिये।
(3) नियत कार्य विद्यार्थी की वैयक्तिक योग्यतानुसार दिया जाना चाहिये।
(4) नियत कार्य व्यावहारिक एवं जीवनोपयोगी होना चाहिये।
(5) नियत कार्य विद्यार्थियों की रुचि के अनुरूप दिया जाना चाहिये।
(6) नियत कार्य की भाषा सरल, स्पष्ट एवं बोधगम्य होनी चाहिये।
(7) नियत कार्य की मात्रा सामान्यत: अधिक नहीं होनी चाहिये।
(8) अध्यापक का प्रयास यह होना चाहिये कि विद्यार्थी को इस प्रकार का नियत कार्य दिया जाय, जिसमें विद्यार्थी अपनी मौलिकता का उपयोग कर सके।
(9) विद्यार्थी को दिये जाने वाला नियत कार्य विद्यार्थी को सृजनात्मक क्षमताओं का उपयोग करने वाला होना चाहिये।

उत्तम पाठ योजना की विशेषताएँ
(Characteristics of Good Lesson Plan)

(1) पाठ योजना में परिचयात्मक या सामान्य सूचनाओं का उल्लेख होना चाहिये।
(2) पाठ योजना में उद्देश्यों का स्पष्ट निर्धारण करके उन्हें व्यवहारगत परिवर्तन के रूप में स्पष्ट लिखना चाहिये।
(3) शिक्षण करवाते समय अध्यापक क्रियाएँ कौन कौन-सी होंगी ? इसका स्पष्ट उल्लेख हो।
(4) शिक्षण करवाते समय विद्यार्थी क्रियाएँ कौन-कौन-सी होंगी? इसका स्पष्ट उल्लेख हो।
(5) शिक्षण करवाते समय शिक्षक विद्यार्थी अन्त:क्रियाएँ कौन-कौन-सी होंगी? इसका स्पष्ट उल्लेख हो।
(6) पाठ से सम्बन्धित प्रत्येक क्रिया निर्धारित उद्देश्यों पर आधारित हो।
(7) छात्रों की पाठ सम्बन्धी कठिनाई को किस प्रकार दूर किया जायेगा? इसका वर्णन पाठ-योजना में हो।
(8) पाठ योजना में संक्षेप में यह भी वर्णित हो कि उसमें किस स्थान पर कौन-से सीखने के नियम, कौन-से सिद्धान्त और शिक्षण सूत्रों को ध्यान में रखा जायेगा?
(9) पाठ योजना में इसका स्पष्ट उल्लेख हो कि शिक्षक कौन-सी सहायक सामग्री को कहाँ तथा किस प्रकार प्रयोग में लायेगा?
(10) पाठ योजना बनाते समय शिक्षक द्वारा इस बात का ध्यान रखा गया हो कि छात्र पाठ में अधिक-से-अधिक रुचि ले सकें।
(11) पाठ योजना में लिखित या वर्णित सभी क्रियाएँ छात्रों का ध्यान विषयवस्तु पर केन्द्रित करने वाली हो।
(12) पाठ योजना की प्रायः सभी क्रियाएँ एक ओर छात्रों के जीवन की घटनाओं से तथा दूसरी ओर पाठ से सम्बन्धित हों।
(13) पाठ योजना में पढ़ायी जा रही विषयवस्तु का उल्लेख भी संकेत रूप में अवश्य होना चाहिये।
(14) पाठ योजना में इस बात का भी पता लगाया जाय कि पाठ के जो उद्देश्य निर्धारित किये गये थे, उनकी पूर्ति हुई या नहीं और यदि हुई तो किस सीमा तक?
(15) पाठ योजना के अन्त में इस बात का उल्लेख होना चाहिये कि छात्रों को गृहकार्य के रूप में क्या दिया जाय और किस प्रकार दिया जाय?

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