शिक्षण प्रतिमान (Models of Teaching)

प्रतिमान किसी चीज के अस्तित्व में आने से पहले उस चीज का आकल्प (design) या स्वरूप (paradigm) है जो कि कागजों पर तैयार किया जाता है या दिमाग में होता है। यह किसी कार्य के सम्पादन से पूर्व उसका पूर्वनिर्धारित ब्लूप्रिंट होता है। किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये कोई कार्य किया जाये, उससे पूर्व उसकी एक सम्पूर्ण योजना, रूपरेखा तैयार करने का प्रयास किया जाता है, जिससे कार्य का सम्पादन करते समय उस योजना के अनुसार काम किया जा सके। अतः प्रतिरूप (model) एक सम्पूर्ण नक्शा होता है जो कि यह प्रदर्शित करता है कि क्या कार्य करना है, कब करना है तथा किस उद्देश्य हेतु करना है। इस प्रकार शिक्षण का एक प्रतिरूप यह वर्णित करता है कि शिक्षण के उद्देश्य क्या है? उन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये अध्यापक द्वारा क्या-क्या क्रियायें करवायी जायेंगी, विद्यार्थियों को कौन-कौन से व्यवहारों को अपनाना चाहिये, कौन-कौन सी शिक्षण सुविधाओं की आवश्यकता होगी, किस प्रकार के वातावरण का निर्माण करना होगा आदि और इन सभी को एकीकृत रूप में, एक दूसरे के सम्बन्ध में जानना, लिखना, निश्चित करना होगा, अपनाना होगा। शिक्षण की इन अवस्थाओं को ध्यान में रखकर लिये गये निर्णय कभी भी स्वेच्छाचारी नहीं होंगे। वे विश्वसनीय सैद्धान्तिक नियमों के ऊपर आधारित होंगे। ये बुद्धिमानी पूर्वक निर्धारित किये गये होते हैं।

शिक्षण प्रतिमान शिक्षण अधिगम के विभिन्न उपागम या युक्तियाँ भर हैं। वे इस बात का वर्णन करते हैं कि कौन, किस बात पर प्रकाश डालता है। प्राप्त किये जाने वाले लक्ष्यों के अनुसार, शिक्षण के विभिन्न प्रतिमान हैं। जॉयस (Joyce 1972) के अनुसार शिक्षण प्रतिमान अधिगम लक्ष्यों, वातावरणीय प्रहस्तन (environmental manipulation) तथा अन्य प्रक्रियाओं का विशिष्ट संयोग है। एक शिक्षण प्रतिमान शिक्षण अधिगम के बारे में एक विस्तृत सैद्धान्तिक कथन है जो अधिगम के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, वातावरण तथा प्रक्रिया को परिभाष एवं वर्णित करता है। यह शैक्षिक अनुभवों को चयनित करने योग्य मार्गदर्शनीय निर्देशों तथा इन अनुभवों को विद्यार्थियों को प्रदान करने हेतु सर्वोपयुक्त अधिगम वातावरण का निर्माण किया जा सकता है। इनमें शिक्षण के सभी तत्वों का प्रस्तावित विवरण एक एकीकृत रूप में उपस्थित होता है। प्रत्येक प्रतिमान का एक मूल कारण होता है जो इसको न्यायोचित सिद्ध करता है और यह बताता है कि क्या प्रासंगिक है और क्यों?

अतः प्रतिमान सुपरिभाषित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विभिन्न उपागम या युक्तियाँ होते हैं। वे किसी भी क्षेत्र में हो सकती हैं। वे इस बात का वर्णन करती हैं कि कौन किस पर फोकस (ध्यान केन्द्र) करता है। यह सामान्य रूप से इस बात पर जोर देता है कि प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्यों के आधार पर ये प्रतिमान या युक्तियाँ विभिन्न प्रकार की होती हैं।

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शिक्षण प्रतिमान : अर्थ एवं परिभाषा
(Model of Teaching : Meaning and Definition)

प्रतिमान का अर्थ होता है कि किसी अमुक उद्देश्य के अनुसार किसी चीज को व्यवहार में लाने की प्रक्रिया। ‘प्रतिमान’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है – (1) किसी आदर्श के सन्दर्भ में, (2) किसी बड़ी वस्तु के छोटे आकार के रूप में। किसी आदर्श को प्रस्तुत करने के लिये प्रतिमान या मॉडल का प्रयोग किया जा सकता है ताकि विद्यार्थी इन्हें अपनाने का प्रयास कर सके। उदाहरणार्थ- अध्यापक छात्रों के सामने स्वयं भी एक मॉडल का काम करता है जिससे विद्यार्थी उसकी अच्छी बातों व गुणों को सीख लेते हैं तथा बुरी बातों को छोड़ देते हैं।

इसी प्रकार किसी वस्तु के छोटे आकार को भी मॉडल के रूप में प्रयोग कर सकते हैं, जैसे- कोई इन्जीनियर किसी भवन या बाँध की रूपरेखा तैयार करने से पहले उसके मॉडल या छोटे आकार को देखता है। इसी प्रकार बड़े-बड़े भवनों के छोटे-छोटे मॉडल सजावट के लिये रखे जाते हैं ताकि ग्राहक इन्हें देखकर संतुष्ट हो सके और फिर बड़े भवन को खरीदने के बारे में निर्णय ले सके। इसी प्रकार एक भूगोल शिक्षक को या इतिहास शिक्षक को कुछ विषयों का शिक्षण करते समय इन्हीं मॉडलों का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि कुछ चीजों को वास्तविक रूप में कक्षा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, जैसे- ताजमहल या भाखड़ा नांगल बाँध आदि।

शिक्षण क्षेत्र में जिन शिक्षण-प्रारूपों का हम प्रयोग करते हैं उन्हीं को शिक्षण प्रतिमान कहते हैं। शिक्षण प्रतिमानों का विकास सीखने के सिद्धान्तों पर किया जाता है। इस प्रकार शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने के आधार माने जाते हैं-

शिक्षण प्रतिमान को निश्चित शब्दों में विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है-

साधारण शब्दों में- “शिक्षण प्रतिमान शिक्षण के बारे में सोचने-विचारने की एक रीति या ढंग है।”

“Teaching model is a way of thinking about teaching.”

बी० आर० जॉयस – “शिक्षण प्रतिमान अनुदेशनात्मक प्रारूप होते हैं। ये उन विशिष्ट परिस्थितियों का उल्लेख करते हैं जिनमें छात्रों की अन्तःक्रिया इस प्रकार की हो ताकि उनके व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सके।”

“Teaching models are just instructional designs. They describe the process of specifying and producing particular environmental situations which cause the student to interact in such a way that specific change occurs in his behaviour.”  -B.R. Joyce

एच० सी० वील्ड – “प्रतिमान किसी आदर्श के अनुरूप व्यवहार को ढालने की प्रक्रिया को कहते हैं।”

“To confirm in behaviour, action and to direct one to action according to some particular design or idea is called model.” -H. C. Wyld

हायमन – “शिक्षण प्रतिमान शिक्षण के सम्बन्ध में सोचने तथा विचारने की एक रीति है जो किसी वस्तु को विभाजित तथा व्यवस्थित करके तर्कसंगत ढंग से प्रस्तुत करती है।”

“The model is a way to talk and think about instruction in which certain facts may be organised, classified and interpreted.”- Hyman

पाल डी० ईगन तथा उसके सहयोगी – “शिक्षण प्रतिमानों से अभिप्राय विशिष्ट अनुदेशनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये निर्मित उपचारात्मक शिक्षण व्यूह रचनाओं से है।”

“Models are prescriptive teaching strategies designed to accomplish particular instructional goals.” -Paul D. Eggen et. al.

जॉयस तथा वील – “शिक्षण प्रतिमान वह नमूना अथवा योजना है जिसे किसी पाठ्यक्रम अथवा कोर्स का निर्माण करने, अनुदेशनात्मक सामग्री का चयन करने तथा अध्यापक की क्रियाओं के मार्गदर्शन हेतु काम में लाया जा सकता है।”

“Teaching model is a pattern or plan, which can be used to shape a curriculum or course, to select instructional materials and to guide a teacher’s actions.” -Joyce and Weil

डिसेको तथा क्रॉफोर्ड – “शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्त का सर्वोच्च प्रतिस्थापन्न है। शिक्षण प्रतिमान बताते हैं कि किस प्रकार अधिगम तथा शिक्षण परिस्थितियाँ परस्पर सम्बन्धित हैं।”

“The best substitute for a theory of teaching is a model of teaching. Teaching models merely suggest how teaching and learning conditions are interrelated.” –Dececco & Crawford

एन० के० जंगीरा एवं अजीत सिंह – “शिक्षण प्रतिमान क्रमबद्ध एवं परस्पर सम्बन्धित तत्वों का वह समूह है जो निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये शैक्षिक क्रियाओं एवं वातावरणीय सुविधाओं की योजना बनाने एवं उन्हें क्रियान्वित करने में सहायता करता है ।”

“A model of teaching is a set of inter-related components arranged in sequence which provides guidelines to realise goals. It helps in designing instructional activities and environmental facilities, carrying out of these activities and realization of stipulated objectives.” –N. K. Jangira and Ajit Singh

शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएँ
(Characteristics of Teaching Models)

शिक्षण प्रतिमानों की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं-

  1. शैक्षिक प्रतिमान उचित शैक्षिक वातावरण तैयार करने में सहायक होते हैं।
  2. शैक्षिक प्रतिमान छात्रों एवं शिक्षक के मध्य होने वाली अन्तः क्रियाओं को निर्देश करते हैं।
  3. शैक्षिक प्रतिमान शिक्षक के लिये एक मार्गदर्शक (Guide) का कार्य करते हैं तथा अग्रिम रूप से उसे उसकी कार्य योजना का प्रारूप (Blue Print) उपलब्ध कराने में मदद करते हैं।
  4. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान के कुछ निश्चित मूलभूत आधार होते हैं जिन पर केन्द्रित होकर वह कार्य करता है।
  5. शिक्षण प्रतिमान छात्रों एवं शिक्षकों दोनों को वांछित अनुभव प्रदान करते हैं।
  6. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान में कोई न कोई दर्शन (Philosophy) अवश्य निहित रहता है।
  7. शिक्षण प्रतिमान शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का व्यावहारिक पक्ष माना जाता है।
  8. शिक्षण प्रतिमान दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होते हैं।
  9. शिक्षण प्रतिमान शिक्षण को एक कला के रूप में (As an Art) विकसित करने में सहायक होते हैं।
  10. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान कुछ निश्चित शिक्षण सूत्रों (Maxims of Teaching) का प्रयोग अवश्य करता है।
  11. शिक्षण प्रतिमान अधिगम सिद्धान्तों से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित होते हैं।
  12. शिक्षण प्रतिमान सम्पूर्ण शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सुधार लाने में सक्षम होते हैं।
  13. शिक्षण प्रतिमान मूल्यांकन की एक निश्चित कसौटी (Criteria) उपलब्ध कराते हैं।
  14. शिक्षण प्रतिमान में छात्रों की रुचियों का बेहतर प्रयोग किया जाता है।
  15. शिक्षण प्रतिमान शिक्षक की व्यावसायिक कुशलता बढ़ाने में पर्याप्त रूप से सहायक होते हैं।

शिक्षण प्रतिमान के मूल तत्व
(Fundamental Elements of Teaching Models)

किसी भी शिक्षण प्रतिमान के निम्नलिखित मूल तत्व होते हैं-

  • लक्ष्य या उद्देश्य (Focus)
  • संरचना (Syntax)
  • सामाजिक प्रणाली (Social System)
  • मूल्यांकन प्रणाली (Evaluation System)

(1) लक्ष्य या उद्देश्य (Focus) – प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का कोई न कोई लक्ष्य, उद्देश्य केन्द्र बिन्दु होता है तथा इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर उस शिक्षण प्रतिमान का विकास किया जाता है। दूसरे शब्दों में, शिक्षण के उद्देश्य ही शिक्षण प्रतिमानों के उद्देश्य होते हैं।

(2) संरचना (Syntax) – इसके अन्तर्गत शिक्षण की समस्त क्रियाओं को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है ताकि सीखने की उन परिस्थितियों को जन्म दिया जा सके जो उद्देश्य प्राप्ति में सहायक हों। इस प्रकार की संरचना के अन्तर्गत शिक्षण की क्रियाओं, युक्तियों तथा विद्यार्थी एवं शिक्षक के बीच अन्तःक्रिया को इस प्रकार से व्यवस्थित किया जाता है। ताकि शिक्षण का उद्देश्य सफलतापूर्वक प्राप्त किया जा सके। इस प्रकार, संरचना में शिक्षण प्रक्रिया एक क्रम से चलती है।

(3) सामाजिक प्रणाली (Social System) – सामाजिक प्रणाली शिक्षण प्रतिमान के उद्देश्य के अनुसार तय होती है। चूँकि प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य अलग-अलग होता है इसलिये उसकी सामाजिक प्रणाली भी अलग-अलग होती है। उदाहरणार्थ- कन्डीशनिंग मॉडल में कक्षा में छात्रों को व्यवहार की स्वतन्त्रता नहीं होती, उन्हें वैसा ही करना पड़ता है। जैसा शिक्षक उनसे चाहता है। दूसरे प्रतिमानों में उन्हें पर्याप्त स्वतन्त्रता होती है। इस सामाजिक प्रणाली का निर्माण शिक्षण तथा छात्रों की अन्तःक्रिया से निर्धारित होता है। अध्यापक तथा छात्र के बीच किस प्रकार के सम्बन्ध आवश्यक हैं, इसका निर्धारण इस सोपान में होता है।

(4) मूल्यांकन प्रणाली (Evaluation System) – इस सोपान में यह देखा जाता है कि शिक्षण के उद्देश्य प्राप्त हुए हैं या नहीं अर्थात् शिक्षण कार्य सफल हुआ है या नहीं। यदि नहीं तो क्यों? कारणों का पता लगाकर शिक्षण प्रक्रिया में सुधार लाया जाता है। छात्रों का मूल्यांकन करने के लिये मौखिक तथा लिखित दोनों परीक्षा प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक प्रतिमान की मूल्यांकन प्रणाली अलग-अलग होती है क्योंकि प्रत्येक प्रतिमान का उद्देश्य अलग-अलग होता है।

शिक्षण प्रतिमान (Models of Teaching)
शिक्षण प्रतिमान (Models of Teaching)

शिक्षण प्रतिमान के प्रकार
(Types of Teaching Models)

विभिन्न शिक्षाविदों ने अपनी-अपनी व्यवस्था के अनुसार शिक्षण प्रतिमानों को विभिन्न वर्गों में विभक्त किया है। जॉन पी. डिसेको (John P. Dececco) ने इन प्रतिमानों को चार वर्गों में विभक्त किया है जिसमें ग्लेशर (Robert Glaser) के शिक्षण प्रतिमान को बुनियादी शिक्षण प्रतिमान (Basic Model of Teaching) माना है। आई. शेफलर (I. Schefler) ने इन प्रतिमानों को तीन वर्गों में विभक्त किया है तथा ई. सी. हेडन (E.C. Hadden) ने चार वर्गों में विभक्त किया है। ट्रेवर्स (Travers) ने इन प्रतिमानों को तीन वर्गों में विभक्त किया है लेकिन सबसे अधिक प्रचलित वर्गीकरण जॉयस तथा वील (Joyce and Weil) का है जिन्होंने शिक्षण प्रतिमानों को निम्नलिखित चार वर्गों में विभक्त किया है। ये सभी आधुनिक शिक्षण प्रतिमान (Modern Teaching Models) कहलाते हैं।

  1. सामाजिक अन्तःक्रिया प्रतिमान (Social Interaction Model)
  2. सूचना प्रक्रिया प्रतिमान (Information Process Model)
  3. व्यक्तिगत प्रतिमान (Personal Model)
  4. व्यवहार परिवर्तन प्रतिमान (Behaviour Modification Model)

उपरोक्त चारों वर्गों के अन्तर्गत जो शिक्षण प्रतिमान आते हैं उनका विवरण इस प्रकार है-

आधुनिक शिक्षण प्रतिमान (Modern Teaching Models)

(A) सामाजिक अन्तःप्रक्रिया स्त्रोत (Social Interaction Source)

  1. सामाजिक अन्वेषण प्रतिमान (Group Investigation Model)
  2. जूरिस प्रूडेन्सियल प्रतिमान (Juris Prudential Model)
  3. सामाजिक पृच्छा प्रतिमान (Social Inquiry Model)
  4. प्रयोगशाला प्रतिमान (Laboratory Model)

(B) सूचना प्रक्रिया स्त्रोत (Information Process Source)

  1. निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान (Concept Attainment Model)
  2. आगमन प्रतिमान (Inductive Model)
  3. पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान (Inquiry-Training Model)
  4. जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान (Biological Science Inquiry)
  5. अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान (Advance Organizer Model)
  6. विकासात्मक प्रतिमान (Development Model)

(C) व्यक्तिगत स्रोत (Personal Source)

  1. दिशाविहीन शिक्षण प्रतिमान (Non-directive Teaching Model)
  2. कक्षा-सभा प्रतिमान (Classroom Meeting Teaching Model
  3. सर्जनात्मक शिक्षण प्रतिमान (Synectics Teaching Model)
  4. अभिज्ञान प्रशिक्षण प्रतिमान (Awareness Training Model)

(D) व्यवहार परिवर्तन स्रोत (Behaviour Modification Source)

  1. सक्रिय अनुकूलन प्रतिमान (Operant Conditioning Model of Teaching)

उपरोक्त शिक्षण प्रतिमानों के अतिरिक्त भी कुछ शिक्षण प्रतिमान हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) ऐतिहासिक शिक्षण प्रतिमान (Historical Models of Teaching)

  1. सुकरात का शिक्षण प्रतिमान (The Socratic Teaching Model)
  2. परम्परागत मानवीय शिक्षण प्रतिमान (The Classical Humanistic Teaching Model)
  3. व्यक्तिगत विकास का शिक्षण प्रतिमान (The Personal Development Model)

(2) दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान (Philosophical Teaching Models)

  1. प्रभाव प्रतिमान (The Impression Model)
  2. सूझ प्रतिमान (The Insight Model)
  3. नियम प्रतिमान (The Rule Model)

(3) मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान (Psychological Models of Teaching)

  1. बुनियादी शिक्षण प्रतिमान (A Basic Teaching Model)
  2. कम्प्यूटर आधारित शिक्षण प्रतिमान (A Computer Based Teaching Model)
  3. विद्यालय अधिगम का शिक्षण प्रतिमान (A Teaching Model for School Learning)
  4. अन्तःप्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान (An Interaction Model of Teaching)

(4) अध्यापक शिक्षा के लिये शिक्षण प्रतिमान (Teaching Models for Teacher Education)

  1. तबा का शिक्षण प्रतिमान (Taba’s Model of Teaching)
  2. टरनर का शिक्षण प्रतिमान (Turner’s Model of Teaching)
  3. शिक्षक अभिविन्यास विषमता प्रतिमान (A Model of Variation in Teacher Orientation)
  4. फाक्स लिपिट शिक्षण प्रतिमान (The Fox Lippitt Model)

नीचे हम कुछ अति महत्वपूर्ण शिक्षण प्रतिमानों का विस्तार से वर्णन दे रहे हैं जो इस प्रकार हैं-

  1. टाबा का शिक्षण प्रतिमान (Taba’s Model of Teaching)
  2. ग्लेशर का बुनियादी शिक्षण प्रतिमान (Glaser’s Basic Model of Teaching)
  3. सक्रिय अनुकूलन प्रतिमान (Operant Conditioning Model)
  4. सृजनात्मक शिक्षण प्रतिमान (Synectic or Creativity Teaching Model)
  5. अग्रिम संगठक प्रतिमान (Advance Organizer Model)
  6. पृच्छा (पूछताछ) प्रशिक्षण प्रतिमान (Inquiry Training Model)
  7. संप्रत्यय उपलब्धि प्रतिमान (Concept Attainment Model)
  8. स्वामित्व अधिगम प्रतिमान (Mastery Learning Model)
  9. ज्यूरिस – प्रूडेन्शियल प्रतिमान (Juris-Prudential Model)
  10. सामाजिक पृच्छा (पूछताछ) प्रतिमान (Social Inquiry Model)
  11. जीन पियाजे का विकास प्रतिमान (Jean Piaget’s Development Model)
  12. अन्तः क्रिया शिक्षण प्रतिमान (Interaction Teaching Model)

टाबा का शिक्षण प्रतिमान
(Taba’s Model of Teaching)

इस प्रतिमान को आगमन प्रतिमान (Inductive Model) के नाम से भी जाना जाता है। इस शिक्षण प्रतिमान के प्रर्वत्तक हिल्दा टाबा (Hilda Taba) हैं। इसका विकास अध्यापक शिक्षा के लिये किया गया है जिसमें छात्र अध्यापक अधिगम सम्बन्धी समस्याओं का विश्लेषण कर उनका निदान एवं उपचार कर सके। इस प्रतिमान में विशेष तौर पर तथ्यों एवं सूचनाओं का संग्रह किया जाता है। यह शिक्षण प्रतिमान सामाजिक विषयों के विषय में अत्यन्त उपयोगी है।

उद्देश्य (Focus) – इस शिक्षण प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य मानसिक क्रियाओं का विकास करना तथा सिद्धान्तों का बोध कराना है।

संरचना (Syntex) –इस शिक्षण प्रतिमान में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं ताकि मानसिक क्रियाओं का विकास हो सके। इस प्रतिमान की संरचना विशेषतः तीन कौशलों को लेकर की गई है जिनमें से प्रत्येक के तीन-तीन भाग हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें नौ तत्व (Elements) पाये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. व्याख्या (Explain)
  2. समूहीकरण (Grouping)
  3. पहचान (Identity)
  4. तथ्यों के मध्य सम्बन्ध (Relationship)
  5. सम्बन्ध व्याख्या (Detail)
  6. निष्कर्ष निकालना (Inference)
  7. उपकल्पना निर्माण (Hypothesis Formation)
  8. उपकल्पनाओं की व्याख्या (Detail of Hypothesis)
  9. उपकल्पनाओं की जाँच (Testing the Hypothesis)

सामाजिक प्रणाली (Social System) – इस प्रतिमान में कक्षा का वातावरण ऐसा बनाया जाता है जो शिक्षक – छात्रों के पारस्परिक सहयोग को बढ़ाने में सहायक हो। शिक्षण की क्रियाओं को अध्यापक पहले से ही तय कर लेता है। शिक्षक छात्रों के व्यवहार तथा क्रियाओं को नियन्त्रण में रखता है, साथ ही, कक्षा में सहयोग की भावना को भी बनाये रखता है। शिक्षक यहाँ एक पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य करता है तथा छात्रों को नवीन अनुभवों के लिये तैयार करता है। उन्हें इस प्रकार के अनुभव प्रदान किये जाते हैं ताकि उनके ज्ञानात्मक पक्ष (Cognitive Domain) का अधिक से अधिक विकास किया जा सके।

सहायक प्रणाली (Support System) – इस प्रतिमान में तथ्यों, प्रदत्तों तथा सूचनाओं के बोध पर विशेष बल दिया जाता है। इस दृष्टि से छात्रों को पर्याप्त मात्रा में साहित्य तथा उपकरण उपलब्ध कराने की आवश्यकता महसूस की जाती है।

मूल्यांकन (Evaluation) – इस प्रतिमान में छात्रों के व्यवहार का मूल्यांकन करने हेतु निबन्धात्मक परीक्षायें अधिक उपयोगी नहीं रहतीं। अतः मूल्यांकन हेतु प्रयोगात्मक परीक्षाओं तथा वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का सहारा लिया जाता है।

उपयोग (Application) – इस प्रतिमान को सृजनात्मक चिन्तन के विकास के लिये अधिक उपयोगी माना गया है। इसमें मानसिक क्रियाओं के विकास के लिये छात्रों को अनेक अवसर उपलब्ध कराये जाते हैं। इस प्रतिमान की प्रमुख विशेषता चिन्तन- क्षमताओं का विकास करना है। सामाजिक विषयों के शिक्षण में इस प्रतिमान को अधिक प्रभावी माना गया है। साथ ही, यह प्रतिमान प्रत्यय निर्माण (Concept formation), शिक्षण-कौशल विकास (Teaching Skill), अनुदेशन (Instruction), भूमिका निर्वाह (Role Playing) आदि कार्यों में भी काफी उपयोगी सिद्ध होता है।

ग्लेशर का बुनियादी शिक्षण प्रतिमान
(Glaser’s Basic Model of Teaching)

इस शिक्षण प्रतिमान का विकास रॉबर्ट ग्लेसर ने सन् 1962 में किया था। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रतिमान है। इस प्रतिमान को बुनियादी प्रतिमान (Basic Model) इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसमें मनोविज्ञान के बुनियादी सिद्धान्तों का प्रयोग किया गया है। जॉयस (बी० आर०) ने इसे ‘कक्षा-कक्ष मीटिंग प्रतिमान’ (Classroom Meeting Model) का नाम दिया।

इस प्रतिमान के निम्नलिखित चार मुख्य तत्व हैं-

  • अनुदेशनात्मक उद्देश्य (Instructional Objectives) I.O
  • प्रारम्भिक या पूर्व-व्यवहार (Entering Behaviour) B
  • अनुदेशनात्मक प्रक्रिया (Instructional Procedure) I.P.
  • निष्पत्ति का मूल्यांकन (Performance Assessment) P.A.

(1) अनुदेशनात्मक उद्देश्य (Instructional Objectives) – अनुदेशनात्मक उद्देश्य शिक्षण प्रारम्भ करने से पहले तय किये जाते हैं। इन उद्देश्यों को शिक्षक ही अपनी सुविधानुसार निर्धारित करता है। जिस प्रकार किसी भी क्रिया को करने से पहले यह तय करना आवश्यक होता है कि वह क्रिया क्यों की जा रही है, ठीक यही बात शिक्षण प्रक्रिया पर भी लागू होती है। शिक्षण प्रक्रिया द्वारा बालक के व्यवहार में परिवर्तन किस प्रकार लाया जाये, इस सोपान में इसी बात पर बल दिया जाता है।

(2) पूर्व व्यवहार (Entering Behaviour) – शिक्षण प्रक्रिया को प्रारम्भ करने से पहले विद्यार्थियों का जो स्तर होता है उसे प्रारम्भिक या पूर्व-व्यवहार कहते हैं। इस पूर्व व्यवहार के अन्तर्गत विद्यार्थी का पूर्व ज्ञान, बुद्धि का स्तर, अभिप्रेरणा तथा सीखने की योग्यतायें आदि आती हैं। सीखने के लिये विद्यार्थी के पास अपेक्षित मानसिक योग्यतायें, बुद्धि आदि हैं या नहीं, यह जानना अध्यापक के लिये अत्यन्त आवश्यक होता है। छात्रों की इन्हीं योग्यताओं के आधार पर अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का चयन किया जाता है जिनमें व्यवहार के तीनों पक्षों, यथा-ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक का ध्यान रखा जाता है।

(3) अनुदेशनात्मक प्रक्रिया (Instructional Procedure) – अनुदेशात्मक प्रक्रिया का सम्बन्ध शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली विभिन्न क्रियाओं से होता है। इन्हीं के आधार पर शिक्षक अपने निर्णय लेता है। ये क्रियायें स्थायी नहीं होनी चाहियें तथा इन्हें भी अनुदेशनात्मक उद्देश्यों के साथ-साथ बदलते रहना चाहिये। यदि इन दोनों में अन्तर रहेगा तो शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी। यह सोपान शिक्षण का क्रियात्मक पक्ष होता है। इस प्रक्रिया में शिक्षक एवं छात्रों के मध्य अन्तः क्रिया का आयोजन किया जाता है। इस प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है।

(4) निष्पत्ति मूल्यांकन (Performance Assessment) – छात्रों ने अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त किया है, इसका परीक्षण करने के लिये निष्पत्ति मूल्यांकन का प्रयोग किया जाता है । इस तत्व से अन्य तीन तत्वों को पृष्ठपोषण (feedback) भी मिलता है, अर्थात् छात्रों एवं अध्यापकों को उनकी सफलताओं एवं असफलताओं का ज्ञान होता है। निष्पत्ति मूल्यांकन द्वारा पहले और दूसरे तत्त्वों के सन्दर्भ में तीसरे तत्व का मूल्यांकन किया जाता है तथा इन तत्त्वों में दूरी को दूर किया जाता है। इसके लिये निरीक्षण, रेटिंग स्केल प्रश्नावली, साक्षात्कार व प्रक्षेपी प्रविधियों, आदि का प्रयोग किया जाता है। निष्पत्ति का मापन चाहे किसी भी विधि से करें वह विश्वसनीय, वैध तथा वस्तुनिष्ठ होना चाहिये।

शिक्षण प्रक्रिया के उपरोक्त चारों तत्व एक दूसरे से पूरी तरह जुड़े होते हैं तथा एक तत्व का प्रभाव दूसरे तत्व पर अवश्य पड़ता है। अतः इन बातों का ध्यान करते हुए ही शिक्षक को अपनी शिक्षण प्रक्रिया निश्चित करनी चाहिये।

सक्रिय अनुकूलन प्रतिमान
(Operant Conditioning Model)

इस प्रतिमान का विकास प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक बी०एफ० स्किनर (B.F. Skinner) ने किया। उनका यह प्रतिमान उनके अधिगम सिद्धान्त ‘सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त’ (Operant Conditioning Theory) पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी परिस्थिति विशेष में कैसा अधिगम होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस स्थिति में अधिगमकर्ता ने किस प्रकार की अनुक्रियाएँ की हैं। इस दृष्टि से अगर कोई अध्यापक अधिगम वातावरण को ठीक प्रकार से व्यवस्थित कर अधिगमकर्ता की अनुक्रियाओं को सही समय, सही अन्तराल तथा सही मात्रा में पुनर्बलन करता है तो निर्धारित उद्देश्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है तथा वांछित व्यवहार निरूपण (Desired Modification Behaviour) किया जा सकता है। चूंकि इस प्रतिमान में मुख्य बात पुनर्बलन कंटिनजैंसी प्रबंधन (Reinforcement Contingency) में निहित है इसलिये इस प्रतिमान को Contingency Management Model भी कहा जाता है। अधिगमकर्ता का व्यवहार दो प्रकार का होता है- अनुक्रिया व्यवहार (Respondent Behaviour) तथा सक्रिय व्यवहार (Operant Behaviour) जिसमें स्किनर सक्रिय व्यवहार पर अधिक बल देता है। अनुक्रिया व्यवहार के पीछे कोई न कोई उद्दीपन अवश्य होता है, जैसे-खाना दिखाई देने पर लार आना, दुर्गन्ध आने पर नाक पर रूमाल रखना आदि। जबकि सक्रिय व्यवहार के पीछे कोई उद्दीपन नहीं होता। यह व्यवहार यूँ ही घटित हो जाता है, जैसे- सीटी बजाना, चहल कदमी करना, हाथ-पैर हिलाना आदि। उसके ऐसा करने के प्रति वातावरणीय अनुक्रिया होती है जो उसे सुखद या दुःखद अनुभूति प्रदान करती है। सुखद अनुभूति कार्य के पुनः किये जाने की संभावना को बढ़ा देती है जबकि दुःखद अनुभूति संभावना को घटा देती है। इस प्रकार व्यक्ति के सक्रिय व्यवहार की पुनरावृत्ति तथा निरंतरता उस व्यवहार के परिणामस्वरूप मिलने वाले पुनर्बलन पर निर्भर करती है। अगर यह पुनर्बलन ठीक से मिलता रहता है तो व्यवहार चालू रहता है और अगर यह पुनर्बलन नहीं मिलता है तो व्यवहार का अंत स्वतः ही हो जाता है। इस प्रकार स्किनर यह कहना चाहता है कि यदि हम छात्र के व्यवहार को वांछित दिशा में अग्रसर होते देखना चाहते हैं तो उसे पुनर्बलन जैसे- शाबाशी देना चाहिये और यदि हम उस व्यवहार की पुनरावृत्ति नहीं देखना चाहते हैं जो उसे कोई पुनर्बलन नहीं देना चाहिये तथा उसकी उपेक्षा करनी चाहिये। स्किनर ने अपने इसी सिद्धान्त की धारणाओं एवं निष्कर्षों को सामने रखकर ही इस प्रतिमान की रचना की है।

(1) केन्द्र बिन्दु (Focus) : इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी के व्यवहार में वांछनीय परिवर्तन लाना है। इसके लिये वह शिक्षण-अधिगम वातावरण को इस प्रकार नियंत्रित करने का प्रयास करता है कि विद्यार्थी को उचित पुनर्बलन प्रदान कर उसके व्यवहार का वांछित निरूपण किया जा सके।

(2) संरचना (Syntax) : इस प्रतिमान की संरचना को अग्रलिखित तीन प्रमुख पदों में विभक्त किया जाता है-

  • प्रथम पद में पाठ्यवस्तु को शाब्दिक तथा अशाब्दिक उद्दीपन के रूप में छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है।
  • द्वितीय पद में छात्रों को अनुक्रिया (Response) के लिये अवसर प्रदान किये जाते हैं, अतिरिक्त उद्दीपनों को भी स्थान दिया जाता है जो छात्र को सही अनुक्रिया करने में मदद करते हैं।
  • तृतीय पद में छात्र की आवश्यकता के अनुसार पुनर्बलन प्रदान किया जाता है। छात्र साथ ही साथ अपनी अनुक्रिया की जाँच भी करता है। सही अनुक्रिया मिलने पर छात्र को प्रसन्नता व प्रोत्साहन मिलता है तथा नवीन ज्ञान की प्राप्ति होती है।

(3) सामाजिक प्रणाली (Social System) : इस प्रतिमान में शिक्षण का स्वरूप पहले से ही सुनिश्चित एवं संगठित होता है। छात्रों की अनुक्रिया और व्यवहार का नियंत्रण शिक्षक के हाथ में होता है। छात्रों को उनकी योग्यताओं, क्षमताओं एवं आवश्यकताओं के अनुसार . सीखने के पर्याप्त अवसर दिये जाते हैं तथा प्रत्येक क्रिया पर शिक्षक का नियन्त्रण हमेशा रहता है। इस प्रकार सामाजिक प्रणाली Co-operative Set-up की माँग करती है।

(4) सहायक प्रणाली (Support System) : प्रतिमान प्रभावी क्रियान्वयन हेतु निम्न प्रकार की अतिरिक्त मांग करता है-

  • व्यवहार के निरीक्षण, अभिलेखन तथा मूल्यांकन हेतु वस्तुनिष्ठ, यथार्थ एवं विश्वसनीय उपकरण।
  • छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने हेतु छात्रों एवं अभिभावकों का सहयोग तथा ऐसे भौतिक साधनों एवं सुविधाओं की उपलब्धता जिनसे पुनर्बलन प्रदान करने तथा शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों को बेहतर बनाने में मदद मिल सके।

(5) मूल्यांकन (Evaluation) : मूल्यांकन कार्य में आन्तरिक एवं बाह्य मानदण्डों का प्रयोग किया जाता है तथा मानदण्ड परीक्षा की रचना की जाती है। मूल्यांकन करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि त्रुटियाँ 10% से अधिक किसी भी हालत में नहीं होनी चाहियें। छात्रों की अनुदेशन के प्रति अभिवृत्ति को भी मूल्यांकन हेतु देखा जाता है तथा पाठ्य-वस्तु के तर्क पूर्ण एवं क्रमबद्ध व्यवस्था की भी जाँच की जाती है।

इस प्रतिमान की उपयोगिता इस प्रकार है-

उपयोगिता (Applicability) :

  1. अभिक्रमित अनुदेशन का आधार यही प्रतिमान होता है।
  2. इस प्रतिमान का प्रयोग व्यवहार के सभी पक्षों के विकास हेतु काम में लाया जा सकता है।
  3. तथ्यों की अपेक्षा प्रत्ययों के शिक्षण के लिये यह प्रतिमान अधिक प्रभावशाली है।
  4. व्यवहार के यथेष्ट परिमार्जन एवं निरूपण के कार्य में भी यह प्रतिमान काफी सहायक सिद्ध होता है।
  5. शिक्षण-अधिगम वातावरण एवं कक्षा-कक्ष अनुदेशन के प्रबन्धन कार्य की संरचना, प्रारूप एवं दिशा निर्धारण आदि में भी इस प्रतिमान से पर्याप्त सहायता ली जा सकती है।

सृजनात्मक शिक्षण प्रतिमान
(Synectic or Creativity Teaching Model)

इस प्रतिमान का विकास विलियम जे० जे० गॉर्डन (William J. J. Gordon) ने छात्रों की मौलिक एवं सृजनात्मक क्षमताओं के विकास हेतु किया था। इस प्रतिमान के विषय में गोर्डन महोदय ने 1961 में अपनी पुस्तक ‘Synectics’ में विस्तार से चर्चा की है। प्रारम्भ में इस प्रतिमान का प्रयोग औद्योगिक जगत में किया गया था लेकिन बाद में इसका प्रयोग विद्यालयों में भी सफलतापूर्वक किया जाने लगा। साइनेक्टिक्स को एक शिक्षण प्रतिमान के रूप में प्रयोग में लाने हेतु गोर्डन महोदय ने सृजनात्मकता की प्रवृत्ति, प्रक्रिया एवं विकास के सन्दर्भ में कुछ मूलभूत मान्यताओं (Basic assumptions) का जिक्र किया है, जो इस प्रकार हैं-

  1. सृजनात्मकता कोई अति विशिष्ट अथवा अति सामान्य वस्तु नहीं है। यह तो हमारी विषयों के हर पहलू एवं गतिविधि से जुड़ी है जिसकी छाप एवं खूशबू हम अपने दिन-प्रतिदिन के कामों में आसानी से ढूँढ सकते हैं।
  2. सृजनात्मकता कोई रहस्यमय वस्तु नहीं है और न ही जन्मजात शिक्षण प्रशिक्षण के माध्यम से छात्रों में इसका समुचित विकास किया जा सकता है।
  3. जीवन के विविध क्षेत्रों में सृजनात्मकता की बौद्धिक प्रक्रिया का स्वरूप एक जैसा ही देखने को मिलता है।
  4. सृजनात्मकता एक नितान्त व्यक्तिगत अनुभव नहीं है।
  5. जब हम कभी किसी समस्या का हल समस्या समाधान विधि में नहीं कर पाते तब ऐसी स्थिति में हमें साइनेक्टिक्स को अपनाने की जरूरत पड़ती है।
  6. व्यक्तियों में वैयक्तिक एवं सामूहिक रूप में सृजनात्मकता का विकास किया जा सकता है।
  7. सृजनात्मकता निश्चित रूप से एक संवेगात्मक प्रक्रिया है।
  8. संवेगात्मक तर्कहीनता (Emotional irrationality) पर नियन्त्रण करके सृजनात्मकता में विकास किया जा सकता है
  9. मेटाफोरिक गतिविधियाँ भी सृजनात्मकता विकास में पर्याप्त रूप से सहायक होती हैं।

(i) केन्द्र बिन्दु (Focus) : इस प्रतिमान का लक्ष्य व्यक्ति एवं समूह विशेष की सृजनात्मक क्षमताओं का विकास सभी पाठ्यक्रमों के सन्दर्भ में व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक दोनों प्रकार की समस्याओं को हल करने की दृष्टि से किया जाता है।

(ii) संरचना (Syntax) : संरचना के अन्तर्गत निम्नलिखित पाँच सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

  1. प्रथम सोपान में छात्रों की तथ्यों एवं प्रत्ययों को समझने में मदद की जाती है। (Students are helped to understand facts and concepts)
  1. द्वितीय सोपान में छात्रों के सम्मुख सादृश्य अनुभव (Analogies) प्रस्तुत की जाती हैं। (Analogy (similar experiences) is presented by the teacher)
  1. तृतीय सोपान में छात्र इन सादृश्य अनुभवों को अन्य परिस्थितियों में प्रयोग करने का प्रयत्न करते हैं। (Students apply analogies in other situations)
  1. इस सोपान में छात्र सादृश्य अनुभवों तथा विषय वस्तु में परस्पर सम्बन्ध करना सीखते हैं। (Students learn to establish relations between analogy and content)
  1. इस सोपान में बहुत से सादृश्य अनुभवों की तुलना की जाती है। (Various analogies are mutually compared.)

(iii) सामाजिक प्रणाली (Social System) : इस प्रतिमान का प्रारूप सुनिश्चित होता है जिसमें शिक्षक अपनी क्रियायें क्रमबद्ध रूप में आरम्भ करता है। वह व्यावहारिक युक्तियों के प्रयोग के लिये छात्रों को निर्देशन देता है जो छात्रों की मानसिक क्रियाओं के विकास में सहायक होता है। यहाँ छात्रों को अधिक स्वतन्त्रता दी जाती है तथा सृजनात्मक समस्याओं के समाधान के लिये समानता का वातावरण उपस्थित किया जाता है। इसमें छात्रों की आन्तरिक प्रेरणा का विशेष महत्व होता है। सीखने की क्रियाओं से छात्रों को प्रसन्नता होती है तथा उन्हें सन्तोष मिलता है। पूरी कक्षा के साथ इस प्रतिमान को प्रयोग करने में कठिनाई आती है। अतः कक्षा को छोटे-छोटे समूहों में विभक्त करके इसे प्रयोग में लाना चाहिये।

“The class requires a work place of its own and an environment in which creativity will be utilized and prized.”

(iv) सहायक प्रणाली (Support System) : शिक्षक छात्रों को सभी प्रकार की सुविधायें प्रदान करता है। यह सुविधायें विज्ञान प्रयोगशालाओं में आवश्यक होती हैं। शिक्षक तथा छात्रों का समान स्थान होता है। दोनों को तत्पर तथा क्रियाशील रहना पड़ता है। इसके लिये छोटा समूह अधिक अच्छा माना जाता है।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) : इस प्रतिमान में छात्रों की क्रियाशीलता तथा उनकी सृजनात्मक शक्ति का मूल्यांकन प्रयोगशाला, सृजनात्मक परीक्षाओं, कक्षागत तथा अन्य प्रयोगात्मक परीक्षा प्रणालियों द्वारा किया जाता है।

उपयोग (Application) : यह प्रतिमान व्यक्तिगत तथा सामूहिक सर्जनात्मक क्षमताओं के विकास के लिये प्रयुक्त किया जाता है। इसमें सीखने की क्रियायें आन्तरिक होती हैं। एक समूह के छात्रों को अलग-अलग अनुभव होते हैं जिनका प्रयोग अन्तः प्रक्रिया में सफलतापूर्वक किया जाता है। छात्र अध्यापक भी इस प्रतिमान का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते हैं लेकिन इसका प्रयोग छोटे बालकों के लिये नहीं किया जा सकता है क्योंकि। इसमें विश्लेषण तथा संश्लेषण की प्रक्रिया प्रमुख होती है।

अग्रिम संगठक प्रतिमान
(Advance Organizer Model)

अग्रिम संगठक प्रतिमान का विकास प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक तथा शिक्षाशास्त्री डेविड आसुबेल (David Ausubel) द्वारा 1963 में शाब्दिक अधिगम (Verbal Learning) तथा सूचना प्रक्रिया (Information Processing) सिद्धान्त को आधार मानकर किया गया। आसुबेल, ब्रूनर के ‘बौद्धिक अनुशासन संप्रत्यय’ (Academic Discipline Concept) से भी काफी प्रभावित थे। आसुबेल का मानना है कि प्रभावी अधिगम हेतु अध्यापक को किसी विषय वस्तु अथवा प्रकरण को इस प्रकार से व्यवस्थित करना चाहिये ताकि विद्यार्थी उसे सरलता एवं सहजता से आत्मसात कर सकें। उसने परम्परागत तरीके से शिक्षण करने की आलोचना करते हुए कहा कि व्याख्यान जैसे विधियाँ उचित नहीं हैं क्योंकि ये सूचनाओं की बौछार तो करती हैं लेकिन इस ओर ध्यान नहीं देतीं कि छात्र मूकदर्शक बना इस ज्ञान को ग्रहण कर भी रहा है या नहीं। उसने रटन्त प्रणाली की भी आलोचना की। वह आगे कहता है वस्तुतः कमी विधियों में नहीं इन्हें प्रयोग करने के तरीकों में है। अगर हम अपने विषय वस्तु प्रस्तुतीकरण के तरीके में सुधार ले आयें तो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सजीव, सक्रिय एवं सार्थक बनाया जा सकता है।

आसुबेल यह मानते हैं कि प्रत्येक अधिगमकर्ता के पास किसी अधिगम परिस्थिति में उसे सीखने की एक अलग ही संज्ञानात्मक संरचना होती है। अतः वह किसी नवीन ज्ञान को तभी ग्रहण कर सकता है जबकि उसके पास पहले से मौजूद संज्ञानात्मक संरचना में इस नवीन ज्ञान को आत्मसात करने की वांछित सामर्थ्य हो। इस दृष्टि से शिक्षक के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अधिगम सामग्री को इस प्रकार व्यवस्थित करे ताकि पूर्व ज्ञान के साथ नवीन ज्ञान का अच्छी तरह से तालमेल स्थापित किया जा सके।

Teacher should try to sequence the material to be learned and present it in such a way that educational anchors are provided. -Joyce and Weil

इसके लिये आसुबेल ने अग्रिम संगठक के रूप में कुछ आवश्यक अधिगम सामग्री के प्रस्तुतीकरण पर बल दिया। अग्रिम संगठकों से तात्पर्य पढ़ाये जाने वाले विषय की प्रस्तावना हेतु काम में लायी जाने वाली ऐसी अधिगम सामग्री से है जिसे प्रकरण पढ़ाने से पहले प्रस्तुत किया जाता है। इसे इसलिये प्रदान किया जाता है ताकि छात्रों को नवीन अधिगम सामग्री का मोटा-मोटा सामान्य ज्ञान हो जाये तथा उन्हें पाठ बिल्कुल नया न लगे। अग्रिम संगठक दो प्रकार के हो सकते हैं- विवरणात्मक (Expository) तथा तुलनात्मक (Comparative)।

आसुबेल की यह धारणा थी कि कोई व्यक्ति तभी ठीक प्रकार से सीख सकता है जब उसके सामने नवीन ज्ञान को कोडिंग व्यवस्था (coding system) के माध्यम से प्रस्तुत किया जाये। इसी आधार पर उसने यह विश्वास व्यक्त किया कि सीखने में आगमन प्रणाली का अनुसरण करना चाहिये। उसने आगे कहा कि विषयवस्तु को शिक्षण सूत्रों के अनुसार व्यवस्थित करने से संगठन को एक पिरामिड का रूप दिया जा सकता है जिसे अध्यापक को शिक्षण करते समय ध्यान में रखना चाहिये। अग्रिम संगठन द्वारा पढ़ायी जाने वाली विषय वस्तु का जितना अधिक प्रारम्भिक परिचय छात्रों को होगा उतने ही अच्छे ढंग से वे अधिगम सामग्री को सहज एवं सार्थक रूप से ग्रहण कर सकेंगे।

(i) केन्द्र बिन्दु (Focus) : इस प्रतिमान का उद्देश्य छात्रों को प्रत्ययों एवं तथ्यों का बांध कराना तथा उनके ज्ञानात्मक पक्ष को विकसित करना है तथा ज्ञान- पुंज (Package) में सम्बन्ध स्थापित करना।

(ii) संरचना (Syntex) : इस प्रतिमान की संरचना निम्नलिखित तीन तथ्यों पर आधारित

  1. विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण हेतु प्रयोग में लायी जाने वाली विधियों में सुधार करना। (विषय-वस्तु संगठन) (Presentation of Advance Organizer)
  2. व्यापक सूचना व अधिगम सामग्री को प्रभावी एवं सार्थक तरीके से संगठित कर उसे छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करना। (सामग्री प्रस्तुतीकरण) (Presentation of Learning Material)
  3. विद्यार्थियों की इस सम्बन्ध सहायता करना कि वे दिये जाने वाले नवीन ज्ञान को ठीक से अर्जित तथा आत्मसात कर सकें। (शिक्षण सामग्री उपलब्धता) (Strengthening Cognitive Organizations)

(iii) सामाजिक प्रणाली (Social System) : ‘आसुबेल’ (Ausubel) की यह धारणा है कि अमूर्त विचारों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है तथा जिस पाठ्यवस्तु का छात्र विश्लेषण कर लेता है, उससे सम्बन्ध स्थापित करते हुए नवीन ज्ञान का बोध कराया जा सकता है। इसमें शिक्षक का स्थान प्रधान होता है और शिक्षक को अधिक क्रियाशील रहना होता है। इसमें प्रभुत्ववादी सामाजिक वातावरण उत्पन्न किया जाता है, सीखने की परिस्थितियों के अनुसार शिक्षक क्रियायें बदल लेता है, छात्रों और शिक्षक के मध्य अन्तःप्रक्रिया होती है, छात्रों को अवसर दिया जाता है कि वे पाठ्यवस्तु से सम्बन्ध स्थापित कर सकें तथा शिक्षक छात्रों को अभिप्रेरणा भी देता है।

इस प्रतिमान के सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में ब्रूस तथा वैल (Bruce and Weil) कहते हैं- “The model has high structure. Teacher defines roles and controls social and intellectual systems.”

(iv) सहायक प्रणाली (Support System) : सुगठित विषय सामग्री चूँकि जटिल होती है इसलिये शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को सहज बनाने के लिये उपयुक्त वातावरण का निर्माण कर छात्रों की सहायता की जाती है। साथ ही, प्रतिमान की सफलता के लिये अग्रिम संगठ तथा कक्षा-परिस्थितियों में तालमेल स्थापित किया जाता है।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) : इसमें मूल्यांकन अनुदेशन के आधार पर किया जाता है जिसके लिये मौखिक तथा निबन्धात्मक परीक्षाओं के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं का भी उपयोग किया जाता है।

उपयोग (Application) : इस प्रतिमान के प्रमुख उपयोग इस प्रकार हैं-

  1. किसी भी विषय के शिक्षण में सहायक।
  2. अमूर्त विषयवस्तु के शिक्षण में सहायक।
  3. अधिगम अन्तरण (Transfer of Learning) में सहायक।
  4. छात्रों में समस्या समाधान की योग्यता उत्पन्न करने में सहायक।
  5. ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च स्तरीय उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक।
  6. पाठ्यवस्तु को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप प्रदान करने में सहायक।
  7. संप्रत्ययों में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक।

पृच्छा (पूछताछ) प्रशिक्षण प्रतिमान
(Inquiry Training Model)

इस प्रतिमान का विकास जे० रिचर्ड सचमैन (J. Richard Suchman) द्वारा 1966 में किया गया था। सचमैन का मुख्य उद्देश्य हिल्दा टाबा के प्रतिमान के समान संप्रत्यय योग्यता का विकास करना था। उसने इस प्रतिमान का विकास सर्वप्रथम भौतिक विज्ञान की समस्या को लेकर किया लेकिन बाद में इसकी उपयोगिता को देखते हुए इसका प्रयोग अन्य विषयों में भी किया जाने लगा। यह प्रतिमान वैज्ञानिक विधि पर आधारित है जो छात्रों को सार्थक पूछताछ के लिये प्रशिक्षित करता है। इसमें छात्रों को पूछताछ की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। साथ ही, उन्हें अनुशासित ढंग से प्रश्न पूछने के लिये प्रेरित किया जाता है। इस प्रतिमान के प्रवर्त्तक सचमैन का विश्वास था कि बालक स्वभाव से ही जिज्ञासु होते हैं तथा वे अपनी जिज्ञासा की सन्तुष्टि के लिये पूछताछ का सहारा लेते हैं तथा इस प्रक्रिया में आनन्द का अनुभव करते हैं। बच्चे हमेशा कुछ न कुछ पूछने के लिये जानने के लिये उत्सुक रहते हैं। इस प्रकार उनमें पूछताछ कौशल (Inquiry Skill) का विकास हो जाता है। बच्चे तन्मय होकर लग्नपूर्वक प्रश्न पूछते हैं तथा सुखद अनुभूति प्राप्त करते हैं। इस प्रकार इस प्रतिमान से छात्रों की सामाजिक क्षमताओं के विकास तथा समायोजन में सहायता मिलती है।

(i) केन्द्र बिन्दु (Focus) : इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य छात्रों में ज्ञानात्मक कौशलों का विकास करना है। इसमें छात्र स्वयं पूछताछ के माध्यम से संप्रत्ययों का तार्किक ढंग से व्याख्या करते हैं जिससे उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न होता है।

(ii) संरचना (Syntax) : इस प्रतिमान में पाँच सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

  • समस्या को पहचानना (Encounter with the Problem) : इस सोपान में छात्र शिक्षक के निर्देशन में समस्या का चयन करते हैं।
  • समस्या सम्बन्धी प्रयोग (Experimentation) : इस सोपान के अन्तर्गत छात्र समस्या से सम्बन्धित प्रश्न शिक्षक से पूछते हैं, जिनका उत्तर शिक्षक ‘Yes’ or ‘No’ में देता है। छात्रों को यह छूट रहती है कि वे जितने चाहें प्रश्न पूछ सकते हैं। साथ ही, पूछताछ के समय वे अपने साथी छात्रों से भी परामर्श या विचार-विमर्श कर सकते हैं। पूछताछ की यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक छात्र को समस्या स्पष्ट नहीं हो जाती।
  • समस्या समाधान के प्रयास (Deciding Strategy): इस सोपान में शिक्षक व छात्र आपस में मिलकर समस्या समाधान के लिये उचित प्रयास या व्यूह-रचना तय करते हैं। वे परिकल्पनाओं का निर्माण करते हैं जिसके आधार पर कार्य-कारण सम्बन्धों (cause-effect-relationships) की सत्यता की जांच की जाती है।
  • सूचनाओं का संगठन (Data Organization): इसके अन्तर्गत सूचनाओं को एकत्रित किया जाता है, संगठित किया जाता है, निष्कर्ष निकाले जाते हैं तथा उनकी व्याख्या की जाती है।
  • विश्लेषण (Analysis) : इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण पूछताछ प्रक्रिया का विश्लेषण किया जाता है तथा यह देखने का प्रयास किया जाता है कि सभी आवश्यक सूचनाएँ प्राप्त हुई हैं अथवा नहीं। शिक्षक सम्पूर्ण प्रक्रिया का मूल्यांकन कर किसी निश्चित परिणाम पर पहुँचने का प्रयास करता है।

(iii) सामाजिक प्रणाली (Social System) : इस प्रतिमान में शिक्षक सम्पूर्ण व्यवस्था पर नियन्त्रण बनाये रखता है। यद्यपि, बौद्धिक वातावरण सभी के विचारों के लिये पूर्णतया खुला रहता है। शिक्षक एवं छात्र दोनों एक दूसरे के सहयोग के रूप में काम करते हैं। फिर भी, इस प्रतिमान में शिक्षक की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वह एक नियंत्रक के रूप में कार्य करता है।

(iv) सहायक प्रणाली (Support System) : कभी-कभी समस्या से सम्बन्धित सामग्री पर्याप्त रूप में उपलब्ध नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में शिक्षक को सामग्री स्वयं विकसित करनी पड़ती है। शिक्षक छात्रों के सम्मुख समस्यात्मक पृष्ठभूमि पैदा करने के लिये अनेक प्रकार के उदाहरणों, चित्रों व अन्य साधनों का प्रयोग सहायक सामग्री के रूप में करता है।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) : इस प्रतिमान के मूल्यांकन के लिये प्रयोगात्मक परीक्षाओं का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है। जिससे पता चलता है कि छात्र समस्या समाधान तरीके से अपना कार्य कितने प्रभावशाली ढंग से करता है।

उपयोग (Application) : इस प्रतिमान के प्रमुख उपयोग इस प्रकार हैं-

  1. भाषा शिक्षण में यह प्रतिमान अधिक प्रभावी है।
  2. सामाजिक विषय के शिक्षण में भी इस प्रतिमान की पर्याप्त उपयोगिता है।
  3. छात्रों में सृजनात्मक एवं उत्पादन चिन्तन का विकास होता है।
  4. छात्र स्वतन्त्र रूप से खोज करना सीखते हैं।
  5. छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न होता है।
  6. छात्रों की जिज्ञासा प्रवृत्ति का विकास होता है।
  7. विभिन्न शैक्षिक परिस्थितियों में इस प्रतिमान का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

संप्रत्यय उपलब्धि प्रतिमान
(Concept Attainment Model)

इस प्रतिमान का विकास जे० एस० ब्रूनर (Jerome S. Bruner), जैकलिन गुडरो (Jacqueline Goodrow) तथा जॉर्ज आस्टिन (George Austine) द्वारा 1956 में किया गया था। इस प्रतिमान का प्रयोग शिक्षक छात्रों को नवीन प्रत्ययों की जानकारी प्रदान करने में करता है। इस प्रतिमान में दो या दो से अधिक वस्तुओं के मध्य समानता तथा असमानता का बोध कराते हुए विभिन्न प्रकार के माध्यमों से तथ्यों का एकीकरण करते हुए प्रक्रिया को पूर्ण किया जाता है। इस प्रतिमान का विकास मुख्यतः छात्रों में आगमन तार्किक क्षमता (Inductive reasoning) विकसित करने के उद्देश्य से किया गया है। ब्रूनर तथा उसके सहयोगियों की यह मान्यता है कि मनुष्य जिस वातावरण में रहता है उसमें इतनी विविधतायें एवं जटिलतायें हैं कि मनुष्य बिना वर्गीकरण किये इसे नहीं समझ सकता। वस्तुओं के इस प्रकार के वर्गीकरण के फलस्वरूप ही व्यक्ति में संप्रत्ययों का विकास सम्भव होता है। यूँ तो संप्रत्यय स्वाभाविक रूप सें ही विकसित होते हैं। फिर भी, संप्रत्ययों के उचित विकास के लिये प्रशिक्षण आवश्यक होता है। इसलिये इस प्रतिमान को संप्रत्यय विकसित करने का एक अच्छा साधन माना गया है।

एक संप्रत्यय मुख्यतया तीन तत्वों में बना हुआ होता है- उदाहरण (Example), गुण (Attributes) तथा गुण-धर्म ( Attribute Value)। उदाहरणार्थ – आम के फल को लीजिये। आम उदाहरण है, खट्टा या मीठा इसके गुण हैं तथा स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त लाभकारी इसके गुण धर्म हैं। ब्रूनर के अनुसार किसी क्रिया के वर्गीकरण के दो तत्व होते हैं-Concept Formation तथा Concept Attainment। इसमें Concept Formation पहले होता है तथा Concept Attainment बाद में। Concept Attainment में केवल एक प्रत्यय होता है। शिक्षक द्वारा दिये गये संकेतों (Clues) के आधार पर ही छात्र किसी प्रत्यय की पहचान अथवा उसे परिभाषित कर पाते हैं। ब्रूनर ने इस प्रतिमान के तीन प्रारूप बताये हैं-

  • आग्रहण प्रतिमान (Reception Model)
  • चयन प्रतिमान (Selection Model)
  • असंगठित सामग्री प्रतिमान (Unorganised Material Model)

(i) केन्द्र बिन्दु (Focus) : इस प्रतिमान का उद्देश्य छात्रों में संप्रत्ययों का विकास करना है। साथ ही, उन्हें संप्रत्ययीकरण प्रक्रिया (Process of conceptualization) से भी अवगत कराना है। उन्हें इस बात का बोध कराया जाता है कि प्रकृति में विभिन्न वस्तुएँ, व्यक्ति या घटनायें एक दूसरे से किस प्रकार भिन्न एवं परस्पर सह-सम्बन्धित हैं ताकि उनकी आगमन तर्क शक्ति का विकास हो सके।

(ii) संरचना (Syntax) : इस प्रतिमान में चार सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

  • आँकड़ों का प्रस्तुतीकरण (Data Presentation): इस सोपान के अन्तर्गत छात्रों के समक्ष किसी घटना या व्यक्ति से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं जिनके आधार पर वह विभिन्न प्रत्ययों का विकास कर सकें।
  • नीति विश्लेषण (Strategy Analysis): इस सोपान में छात्र प्राप्त सूचनाओं का विश्लेषण करते हैं जो शिक्षण सूत्रों पर आधारित होता है।
  • लिखित प्रस्तुतीकरण (Written Presentation): इस सोपान के अन्तर्गत छात्र विश्लेषण की रिपोर्ट लिखित रूप में प्रस्तुत करता है।
  • अभ्यास (Practice): इस सोपान में छात्र सीखे गये प्रत्यय का उपयोग एवं अभ्यास करते हैं जो उनके प्रत्यय निर्माण में सहायक होते हैं।

(iii) सामाजिक प्रणाली (Social System): इस प्रतिमान में शिक्षक का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वह छात्रों के सम्मुख आँकड़े प्रस्तुत करता है, योजना बनवाता है तथा उन्हें प्रोत्साहित, प्रेरित व कदम-कदम पर सहायता प्रदान करता है। वह प्रत्ययों के निर्माण एवं विश्लेषण में एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है। इस प्रकार इस प्रतिमान में शिक्षक का एकमात्र कार्य छात्रों की प्रत्यय निर्माण में सहायता करना है।

(iv) सहायक प्रणाली (Support System) : इस प्रतिमान में शिक्षण हेतु कुछ अतिरिक्त सामग्री की सहायता के रूप में आवश्यकता पड़ती है, जो अग्र प्रकार है-

  • संप्रत्यय उपलब्धि हेतु सकारात्मक एवं नकारात्मक उदाहरणों का चयन।
  • श्यामपट्ट या अन्य ऐसा साधन जिन पर विद्यार्थियों के उन उत्तरों को लिखा जा सके जिन्हें वह ‘हाँ’ अथवा ‘नहीं’ में देते हैं।
  • एक फ्लेनल बोर्ड जिस पर संप्रत्यय की परिभाषा या व्याख्या लिखी जा सके।

कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रतिमान में पाठ्य-वस्तु की व्यवस्था इस प्रकार से की जाती है ताकि उससे प्रत्ययों का बोध आसानी से हो सके।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) : मूल्यांकन की दृष्टि से इस प्रतिमान में निबन्धात्मक एवं वस्तुनिष्ठ दोनों ही प्रकार की विधियों को प्रयोग में लाया जा सकता है।

उपयोग (Application) : इस प्रतिमान के प्रमुख उपयोग इस प्रकार हैं-

  1. यह प्रतिमान भाषा तथा व्याकरण सीखने में अधिक उपयोगी है।
  2. गणित तथा विज्ञान के आधारभूत सिद्धान्तों को सरलता से सीखा जा सकता है।
  3. उन सभी विषयों के शिक्षण में सहायक है जहाँ प्रत्यय निर्माण के अधिक अवसर होते हैं।
  4. उदाहरणों के माध्यम से प्रत्ययों को सीखने में सहायक है।
  5. सामान्यीकरण (Generalization) करने में सहायक सिद्ध होता है।
  6. इसके लचीलेपन के कारण इसे सभी क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है।
  7. यह मानव एवं मशीनी पद्धतियों के प्रयोग हेतु आधार का काम भी करता है जो आधुनिक शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

स्वामित्व अधिगम प्रतिमान
(Mastery Learning Model)

मास्टरी अधिगम का अर्थ – मास्टरी अधिगम अनुदेशनों को संगठित करने का एक उपागम है। इस उपागम का प्रचार जे० बी० कैरोल (J.B. Carroll) और बी० एस० ब्लूम (B.S. Bloom) ने किया। यह उपागम स्कूल विषय में निष्पादन (Performance) का संतोषजनक स्तर प्राप्त करने में सहायता करता है। जॉन कैरोल के अनुसार मास्टरी अधिगम अभिरुचि (Aptitude) पर आधारित है। किसी व्यक्ति में जितनी अधिक अभिरुचि होगी, उतना ही वह अधिक सीखेगा।

ब्लूम के अनुसार मास्टरी अधिगम की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  1. किसी विषय की मास्टरी को मुख्य उद्देश्यों के सन्दर्भ में परिभाषित किया जाता है, जो उस इकाई या कोर्स का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  2. सामग्री को छोटी अधिगम इकाइयों में बाँटा जा सकता है। हर इकाई के अपने उद्देश्य होते हैं। ये लघु उद्देश्यों का हिस्सा होते हैं। ये उद्देश्य मास्टरी के लिए आवश्यक होते हैं।
  3. सीखने वाली सामग्री की पहचान की जाती है तत्पश्चात् अनुदेशात्मक व्यूह रचना का चयन किया जाता है।
  4. हर इकाई के साथ विद्यार्थियों की प्रगति के मापन के लिए निदानात्मक परीक्षण (Diagnostic Tests) होते हैं। विद्यार्थी जिन समस्याओं का सामना करता है, ये परीक्षण उनकी भी पहचान कराते हैं।
  5. इन निदानात्मक परीक्षणों में प्राप्त आँकड़ों का प्रयोग विद्यार्थियों को अनुदेशन प्रदान करने के लिए किया जाता है ताकि जिन समस्याओं का सामना विद्यार्थी करते हैं, उन्हें दूर किया जा सके।

जे० बी० कैरोल (J.B. Carroll) (1971) ने निष्कर्ष निकाला कि प्रत्येक बालक अपनी पाठ्यवस्तु पर पूर्ण स्वामित्व (Complete Mastery) स्थापित कर सकता है तथा उसने अपने शिक्षण मनोवैज्ञानिक प्रतिमान में पाँच बातों को महत्व दिया-

(1) अभिरुचि (Aptitude) – अभिरुचि को उसने छात्र द्वारा सीखने पर लगाये गये समय के रूप में परिभाषित किया। (He defined aptitude in terms of time he devotes in learning a particular content)

(2) कड़ी मेहनत (Perseverance) – छात्र में कड़ी मेहनत करने की क्षमता है अथवा नहीं, क्योंकि कड़ी मेहनत से ही वह विभिन्न अनुभव प्राप्त कर सकेगा।

(3) अवबोध की क्षमता (Ability to Comprehend) – छात्र में विभिन्न विषय-वस्तु की योग्यता है अथवा नहीं, क्योंकि योग्यता होने पर ही वह विभिन्न स्रोतों से नये-नये अनुभव प्राप्त कर सकेगा।

(4) अधिगम अवसर (Opportunity to Learn) – अध्यापक सीखने के विभिन्न अवसर देता है। सीखने के जितने अधिक अवसर छात्रों को दिये जायेंगें, उतनी ही अच्छी तरह वे नवीन ज्ञान को आत्मसात् कर पायेगें।

(5) अधिगम गुण (Quality of Learning) – नवीन ज्ञान को आत्मसात करना अधिगम की गुणात्मकता पर भी निर्भर करता है। अध्यापक विभिन्न तकनीकी साधनों का उपयोग करके जितना अधिक अपने शिक्षण को गुणात्मक बनायेंगे, उतनी ही अधिगम गुणों में वृद्धि भी होगी।

पहली तीन बातें छात्रों के प्रारम्भिक व्यवहार (Entering Behaviour) से सम्बन्ध है तथा अंतिम दो बातें अनुदेशन विधि (Instructional Procedure) से सम्बधित हैं।

स्वामित्व अधिगम प्रतिमान के तत्व
(Elements of Mastery Learning Model)

स्वामित्व अधिगम मॉडल के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं-

(i) उद्देश्य (Focus) – ब्लूम के मास्टरी अधिगम मॉडल का मुख्य उद्देश्य विषय पर समय सीमा लागू किए बगैर तथा विद्यार्थी की स्वयं की गति, रुचि तथा विषय के पूर्व ज्ञान के अनुरूप मास्टरी करना या अधिकार करना है। दूसरे शब्दों में, इस मॉडल का मुख्य उद्देश्य स्कूल-विषयों में निष्पादन (Performance) के संतोषजनक स्तर को अर्जित करना है। लेकिन अन्य विद्वान यह नहीं बता सके कि सामान्य कक्षा में मास्टरी अधिगम (Mastery Learning) का सुगमता से प्रयोग कर सकते हैं या नहीं। उनका विश्वास है कि इसे पारम्परिक समूह अनुदेशन ब्लूम और विधियों में संशोधन करके ही प्रयुक्त किया जा सकता है। यह मॉडल निश्चित करता है कि कुछ विद्यार्थियों के पास अधिक समय होता है और वे रचनात्मक मूल्यांकन (Formative Evaluation) के परिणामों के अनुसार अतिरिक्त अनुदेशन प्राप्त करते हैं।

(ii) संरचना (Syntax) – इस प्रतिमान की संरचना में अनुदेशन का वैयक्तिक प्रोग्राम सम्मिलित होता है। वैयक्तिक अनुदेशन प्रोग्राम पाठ्यक्रम की व्याख्या करता है, जिसे प्रणाली विश्लेषण विधियों (System Analysis Procedure) का प्रयोग करके विकसित किया गया है। ऐसे प्रोग्राम नियोजक निम्न पदों का अनुकरण करते हैं-

  1. नियोजक (Planners) सीखने वाले के बारे में धारणाओं और लक्ष्यों के बारे में सोचते हैं।
  2. अधिगम प्रक्रियाओं और सम्बन्धित अधिगम वातावरण के बारे में धारणाओं की ओर ध्यान देना।
  3. व्यावहारिक उद्देश्यों (Behavioural Objectives) को क्रमानुसार संगठित करना।
  4. प्रत्येक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उस सामग्री का विकास करना जिसे विद्यार्थी प्रयोग में लाते हैं।
  5. प्रणाली के घटकों-विद्यार्थी, अध्यापक और सामग्री को निकट लाना।
  6. उपयुक्त प्रतिपुष्टि (Proper Feedback) के लिए विद्यार्थियों की प्रगति पर नजर रखने हेतु प्रबन्ध-प्रणाली (Management System) का सृजन करना।

(iii) सामाजिक प्रणाली (Social System) – किसी भी शिक्षण प्रतिमान में सामाजिक प्रणाली अध्यापक और विद्यार्थियों में अन्तः क्रिया करने के लिए सूचना प्रदान करती है। मास्टरी अधिगम मॉडल में भी अध्यापक की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है। इस माडल में अध्यापक विद्यार्थियों की विषय पर अधिकार करने में सहायता करता है। ऐसा करते समय वह उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर भी नजर रखते हैं। ऐसा वह विषय वस्तु को उप इकाइयों में बाँटकर कर सकते हैं। असफलता का सम्पूर्ण दायित्व विद्यार्थियों की अपेक्षा अध्यापक पर होता है। इसी प्रकार विद्यार्थियों की सफलता के लिए भी अध्यापक ही पूर्ण रूप से उत्तरदायी होता है।

(iv) सहायक प्रणाली (Support System) – यह प्रणाली प्रशिक्षित अध्यापकों की लगन एवं कर्त्तव्यनिष्ठा की अतिरिक्त माँग करती है।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) – यह माडल इस बात का मूल्यांकन करने में विश्वास करता है कि क्या विद्यार्थी ने विशिष्ट उद्देश्य की मास्टरी या अधिकार प्राप्त कर लिया है? यह माडल समस्त कक्षा के मूल्यांकन में विश्वास नहीं करता। यह माडल कसौटी पर आधारित परीक्षणों पर बल देता है। यदि उद्देश्य स्पष्ट है तब मास्टरी का परीक्षण उपयुक्त ढंग से किया जा सकता है।

उपयोग (Application)

इस मॉडल के प्रमुख उपयोग इस प्रकार हैं-

  1. इस मॉडल में प्रत्येक विद्यार्थी अपनी गति के अनुरूप कार्य कर सकता है।
  2. स्वयं शुरुआत (Self-initiation) के विकास में यह मॉडल सहायता करता है।
  3. समस्या समाधान दृष्टिकोण के विकास में यह मॉडल सहायता करता है।
  4. स्व-मूल्यांकन और सीखने के लिए अभिप्रेरणा में यह मॉडल सहायता करता है।
  5. आत्म-विश्वास अर्जित करने में तथा आशावादी बनाने में यह मॉडल धीमी गति के अधिगमकर्त्ताओं (Slow Learners) की सहायता करता है।
  6. स्कूल विषयों में निष्पादन (Performance) के संतोषजनक स्तर को प्राप्त करने में यह मॉडल सहायता करता है।
  7. यह मॉडल अधिगम स्वामित्व के क्षेत्र में अनूठा है।

ज्यूरिस – प्रूडेन्शियल प्रतिमान
(Juris-Prudential Model)

इस प्रतिमान का विकास डोनाल्ड ओलीवर (Donald Oliver) तथा जेम्स शैवर (James Shaver) द्वारा किया गया। इस प्रतिमान के द्वारा छात्रों में सामाजिक भावना तथा निपुणता का विकास किया जाता है। इस प्रतिमान का विकास उन्होंने हारवर्ड सामाजिक अध्ययन प्रोजेक्ट के अन्तर्गत किया था। इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य सूचनाओं तथा तथ्यों के आधार पर तर्क पूर्ण चिन्तन तथा समस्या समाधान विधि से सोचने-समझने की क्षमताओं का विकास किया जाना है। इस प्रतिमान के अन्तर्गत सीखने की प्रक्रिया का आरम्भ सामाजिक जीवन की समस्याओं को पहचानने की क्षमता से होता है। इस प्रतिमान में शिक्षक छात्रों के समक्ष अनेक प्रकार की समस्याएँ रखता है तथा छात्रों के लिये क्रियाओं का निर्धारण इस प्रकार से करते हैं ताकि छात्रों में समस्या को समझने की क्षमता विकसित हो सके। छात्रों को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाती है।

(i) उद्देश्य (Focus) – इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य छात्रों में सूचनाओं तथा तथ्यों के आधार पर समस्या को तर्कपूर्ण ढंग से सोचने तथा समझने की क्षमताओं का विकास करना है।

(ii) संरचना (Syntex) – यह प्रतिमान सामाजिक संरचना पर आधारित है जिसमें मनुष्यों में विचारों तथा प्राथमिकताओं में अन्तर होता है तथा सामाजिक मूल्यों में संघर्ष एक दूसरे से देखने को मिलता है। इन सभी संघर्षों को तथा विवादित विषयों को एक स्वस्थ सामाजिक दायरे में निपटाना अत्यन्त कठिन कार्य है। यह प्रतिमान में अपेक्षित है कि लोग एक दूसरे से बात कर अपने मतभेदों को सही तरीके से हल कर सकें।

इस प्रतिमान के निम्नलिखित छ: पहलू (phases) हैं-

  1. समस्या की जानकारी प्रदान करना (Orientation to the Case)
  2. समस्या को पहचानना (Identifying the Issues)
  3. स्थान ग्रहण करना (Taking Position)
  4. अपना पक्ष प्रस्तुत करना (Exploring the Stances)
  5. अपने पक्ष को बेहतर तरीके से प्रस्तुत करना (Refining and Qualifying Positions)
  6. तर्कों एवं मान्यताओं की पुष्टि (Testing Assumptions about Facts)

(iii) सामाजिक प्रणाली ( Social System) – इसमें सामाजिक व्यवस्था हेतु लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण अपनाया जाता है तथा प्रतिमान ऊपर से नीचे की ओर अग्रसर होता है। सर्वप्रथम, अध्यापक कार्य का शुभारम्भ करता है फिर एक-एक करके वह कार्य के समापन हेतु छात्रों की योग्यता पर निर्भर हो जाता है। इस प्रतिमान के सम्पर्क में आने के बाद छात्रों को बिना किसी दूसरे की मदद के अपना कार्य स्वयं करने की योग्यता हासिल करनी चाहिये अर्थात् उन्हें इस प्रक्रिया पर पूरी तरह से नियन्त्रण करना सीख लेना चाहिये। इस प्रतिमान में शिक्षक तथा छात्र दोनों को अपने विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। तथा सामाजिक वातावरण को उत्साहवर्धक बनाये रखने के भी प्रयास किये जाते हैं।

(iv) सहयोग प्रणाली (Support System) – इस प्रतिमान में ऐसी परिस्थितियों के सृजन पर बल दिया जाता है जो विद्यार्थी के सामाजिक तथा बौद्धिक विकास में सहायक हों। देखा यह जाता है कि हम समस्या से सम्बन्धित कुछ ही तथ्यों को उजागर करते हैं तथा उस मूल परिस्थिति को सामने नहीं लाते जिसने इस विवाद या समस्या को जन्म दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम समस्या पर विस्तार से प्रकाश नहीं डालते। यह नितान्त आवश्यक है। इस प्रणाली के अन्तर्गत वाद-विवाद, अनुकरण आदि को प्रभावी ढंग से प्रयोग में लाया जा सकता है।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) – इस प्रतिमान के मूल्यांकन में दो बिन्दुओं पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया जाता है-एक, समस्या समाधान के लिये छात्र पर्याप्त सूचनायें एकत्र कर सकते हैं अथवा नहीं। दूसरे, वाद-विवाद करते समय छात्र न्याय संगत तथा निष्पक्ष तरीके से वार्तालाप कर सकते हैं अथवा नहीं। साथ ही, इस प्रतिमान में मूल्यांकन हेतु आन्तरिक व बाह्य दोनों प्रकार के मापदण्ड प्रयोग में लाये जा सकते हैं।

(vi) उपयोग (Application) – इस प्रतिमान के प्रमुख उपयोग इस प्रकार हैं-

  1. इस प्रतिमान का प्रयोग छात्रों में सामाजिक क्षमताओं का विकास करने के लिये किया जा सकता है।
  2. छात्र सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण कर सकते हैं।
  3. छात्रों में सामाजिक मूल्यों का अभ्युदय तथा विकास किया जा सकता है।
  4. प्रतिमान का उपयोग उपयुक्त शिक्षण परिस्थितियों के निर्माण में बखूबी किया जा सकता है।
  5. छात्रों में तर्कशक्ति का विकास किया जा सकता है।

सामाजिक पृच्छा (पूछताछ) प्रतिमान
(Social Inquiry Model)

इस शिक्षण प्रतिमान का विकास बैंजामिन कोक्स (Benjamin Cox) तथा बाइरन मेसिअल्स (Byron Massiales) ने किया था। इन दोनों की मान्यता थी कि पूछताछ करने से चिन्तन का विकास होता है जो सामाजिक मूल्यों तथा सामाजिक विचारों के विश्लेषण में सहायक होता है। इसके परिणामस्वरूप छात्रों के व्यवहारों में अपेक्षित परिवर्तन लाते हुए उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में छात्रों की पूछताछ प्रवृत्ति बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह प्रवृत्ति उन्हें सामाजिक समस्याओं को समझने, उनका विश्लेषण करने तथा उनके समाधान खोजने में बहुत सहायक सिद्ध होती है। इस प्रकार इस प्रतिमान का प्रयोग छात्रों की सामाजिक समस्याओं के समाधान हेतु क्षमताओं के विकास में किया जा सकता है।

(i) उद्देश्य (Focus) – इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य छात्रों में वांछित सामाजिक गुणों का विकास करना है ताकि वे सामाजिक संस्कृति के पुनः निर्माण में योगदान दे सकें। साथ ही, उनमें समस्या समाधान क्षमताओं का विकास करना। इस प्रतिमान में ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों की प्राप्ति पर विशेष बल दिया जाता है।

(ii) संरचना (Syntax) – इस प्रतिमान में छः सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

  1. समस्या कथन (Statement of the Problem)
  2. परिकल्पना प्रतिपादन (निर्माण) (Formation of Hypothesis)
  3. परिकल्पना की जाँच हेतु आँकड़े एकत्रित करना (Data Collection)
  4. आँकड़ों का विश्लेषण (Data Analysis)
  5. निष्कर्ष (Conclusion)
  6. सामान्यीकरण (Generalization)

इस प्रतिमान से सम्बन्धित कुछ सिद्धान्त भी प्रयोग में लाये जाते हैं, जो निम्न हैं-

  1. सामाजिक वातावरण प्रदान करने का नियम (Principle of providing Social Environment)
  2. सामाजिक पूछताछ हेतु अवसर प्रदान करने का नियम (Principle of providing opportunity for Social Enquiry)
  3. सही समाधान पर पहुँचने में सहायता करने का नियम (Principle of guiding them to arrive at the Correct Solution)

(iii) सामाजिक प्रणाली ( Social System) – इस प्रतिमान में शिक्षक छात्रों के लिये एक परामर्शदाता का कार्य करता है। छात्रों के चिन्तन स्तर के विकास के लिये पर्याप्त आधार दिये जाते हैं। शिक्षक का यह पूरा प्रयास रहता है कि छात्र स्वयं को ठीक से समझ सकें तथा अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त कर सकें। शिक्षक का कार्य छात्रों को प्रोत्साहन देना है ताकि छात्र सोपानों का ठीक अनुसरण कर सकें। वाद-विवाद प्रक्रिया में छात्रों को समानता का अवसर देते हुए स्वतंत्र रूप से बोलने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। इस प्रकार इस प्रतिमान की सामाजिक प्रणाली संगठित होती है। शिक्षक छात्रों से अधिक सक्रिय रहता है। तथा छात्रों को प्रेरित करता रहता है।

(iv) सहायक प्रणाली (Support System) – इस प्रतिमान में एक ऐसे वातावरण की व्यवस्था करना आवश्यक होता है जहाँ छात्र निःसंकोच एवं ईमानदारी से पूछताछ कर सकें। परन्तु इस प्रकार का वातावरण प्रदान करना शिक्षक के लिये कठिन हो जाता है क्योंकि उसे पहले से यह पता नहीं होता कि छात्र कौन-सी समस्या पर कार्य करेंगे तथा उसके लिये उन्हें किस प्रकार के वातावरण की आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रतिमान के प्रभावी उपयोग के लिये अतिरिक्त सहायता की जरूरत पड़ती है जैसे-सक्षम एवं प्रशिक्षित अध्यापक वर्ग की सेवायें तथा सुसज्जित पुस्तकालय एवं विशेषज्ञों की सेवाएँ आदि।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) – इस प्रतिमान का मूल्यांकन करना थोड़ा कठिन कार्य है क्योंकि मूल्यांकन प्रक्रिया में परिकल्पना निर्माण, आँकड़ों का एकत्रीकरण एवं उनका विश्लेषण, समस्या समाधान सामर्थ्य आदि ऐसी क्रियाएं हैं जो सरल नहीं हैं। चूँकि इस प्रतिमान में लिखित मूल्यांकन किया जाता है इसलिये अधिकतर निबन्धात्मक परीक्षाओं को ही मूल्यांकन प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाता है।

(vi) उपयोग (Application) – इस प्रतिमान का प्रयोग छात्रों में सामाजिक समस्याओं के चिन्तन के लिये किया जाता है। यह प्रतिमान सामाजिक सन्दर्भों में तथ्यों के बोध की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इस प्रतिमान को सामाजिक शिक्षण में भली-भाँति काम लाया जा सकता है। साथ ही, विद्यार्थियों के भावात्मक व्यवहार के क्षेत्र में सार्थक परिवर्तन लाने हेतु भी इसे अच्छी तरह काम में लाया जा सकता है।

जीन पियाजे का विकास प्रतिमान
(Jean Piaget’s Development Model)

संज्ञानात्मक विकास प्रतिमान स्विटजरलैंड निवासी जीन पियाजे द्वारा विकसित किया गया है। उन्होंने इस प्रतिमान में बालक में जन्म के बाद होने वाले संज्ञानात्मक तथा मानसिक विकास की एक निश्चित प्रणाली को अपने अध्ययन का विषय बनाया। पियाजे की मान्यता है कि जीवन की किसी भी अवस्था में व्यक्ति का संज्ञानात्मक विकास उसके वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों की ही देन है। इस बात के समर्थन में पियाजे का कहना है कि मस्तिष्क के दो पक्ष होते हैं – संरचना तथा कार्यप्रणाली। जन्म के समय से ही शिशु के पास कुछ ज्ञानात्मक संरचनाओं एवं कार्यप्रणालियों का तन्त्र मौजूद रहता है। इनकी उपस्थिति का आभास उसकी कुछ क्रियाओं, जैसे-चूसना, देखना, पकड़ना से किया जा सकता है। पियाजे ने इसे शीमाज (Shemas) का नाम दिया है। कुछ गिने चुने शीमाज शिशु की प्रारम्भिक अवस्था में विद्यमान रहते हैं परन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है उसमें अन्य शीमाज का भी विकास होता जाता है। परिणामतः उसकी संज्ञानात्मक संरचना का स्वरूप भी बदलता रहता है। इस प्रकार संज्ञानात्मक विकास वातावरण के साथ की जाने वाली अन्तः क्रिया पर निर्भर करता है। वातावरण के साथ स्वयं को ढालने या अनुकूलन (adaptation) का कार्य दो विभिन्न प्रक्रियाओं आत्मीकरण (Assimilation) तथा समायोजन (Adjustment) द्वारा सम्पन्न होता है। बालक की संज्ञानात्मक संरचना इन दोनों प्रक्रियाओं के माध्यम से लगातार परिवर्तन व विकास के पथ पर अग्रसर रहती है ताकि बालक और उसके वातावरण में पर्याप्त समानीकरण (Equilibration) बना रहे। संज्ञानात्मक संरचना का यह क्रम यूँ तो प्रत्येक बालक में अपने-अपने ढंग से चलता रहता है, फिर भी, पियाजे के अनुसार बालकों का यह संज्ञानात्मक विकास जिन विशेष अवस्थाओं से होकर गुजरता है, वे इस प्रकार हैं-

(1) इन्द्रिय जनित गामिक अवस्था (Sensory Motor Stage) : यह अवस्था 0-2 वर्ष होती है। इस अवस्था में बालक यह जान पाता है कि वह और उसके वातावरण में निहित वस्तुएँ दो अलग-अलग चीजें हैं। बालक का मुख्य कार्य शारीरिक क्रियाओं व अन्य क्रियाओं के मध्य सामंजस्य स्थापित करना होता है। बालक भाषा नहीं समझता केवल वस्तुओं के प्रति प्रतिक्रिया करता है ।

(2) पूर्व क्रियात्मक अवस्था (Pre-operational Stage) : यह अवस्था 2-7 वर्ष होती है। इस अवस्था में उसकी विचार प्रक्रिया भाषा एवं प्रतीक युक्त हो जाती है तथा उसका चिंतन तर्क पर आधारित नहीं होता। यह सतत खोज का समय है। बालक स्वयं के साथ ही वार्तालाप करता है तथा नये संकेतों एवं क्रियाओं की संभावना खोजता है ।

(3) मूर्त क्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational Stage) : यह अवस्था 7-11 वर्ष होती है। इस अवस्था में बालक आगमन एवं निगमन विधियों का प्रयोग कर तर्कयुक्त चिंतन करने लगता है। वह चीजों की वर्गीकृत एवं पुनः वर्गीकृत करने योग्य हो जाता है।

(4) औपचारिक क्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Stage) : यह अवस्था 11-16 वर्ष होती है। इस अवस्था में बालक अमूर्त चिन्तन कर सकता है। साथ ही, वह वैज्ञानिक चिन्तन तथा समस्या समाधान योग्यता भी अर्जित कर लेता है। वह तर्कसंगत प्रक्रियाएँ अपना सकता है।

उपरोक्त विवेचना के माध्यम से पियाजे ने यह संकेत दिया है कि व्यक्ति का संज्ञानात्मक विकास निश्चित अवस्थाओं से होकर गुजरता है। अतः जब कभी हमें शिक्षण- अधिगम प्रक्रिया का आयोजन करना पड़े तो यह अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि उसका के विद्यार्थियों के संज्ञानात्मक विकास का क्या स्तर है। जिस प्रकार का मानसिक विकास स्तर बालकों का होगा उसी के अनुकूल शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य निर्धारित किया जायेगा।

(i) केन्द्र बिन्दु (Focus) : इस प्रतिमान का उद्देश्य शिक्षण-अधिगम वातावरण की गतिविधियों को इस प्रकार से संगठित एवं संचालित करना है ताकि छात्रों का संज्ञानात्मक विकास उनकी अवस्थाओं के सन्दर्भ में ठीक से किया जा सके।

यह प्रतिमान निम्न तीन मान्यताओं पर आधारित है-

  1. उद्देश्यों के सन्दर्भ में संज्ञानात्मक विकास हेतु उपयुक्त वातावरण तैयार करना।
  2. तीन प्रकार का ज्ञानार्जन देना – शारीरिक, सामाजिक तथा तार्किक।
  3. सामाजिक वातावरण का उचित संगठन।

(ii) संरचना (Syntax) : संरचना के अन्तर्गत निम्नलिखित तीन सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

(1) अवस्थाजन्य सार्थक कार्य परिस्थिति प्रदान करना (Providing Relevant Task Stage) : इस सोपान के अन्तर्गत छात्रों का ऐसी सार्थक कार्य परिस्थिति से सामना कराया जाता है जो अपने आप में उलझन भरी, चुनौतीपूर्ण तथा समस्यामूलक नजर आये तथा जिसके माध्यम से वे किसी समस्या मूलक कार्य के समाधान, खोज तथा स्पष्टीकरण में जुट जायें।

(2) पूछताछ या खोजबीन (Enquiry): इस सोपान में छात्रों से समस्याजनक स्थिति से निपटने हेतु अपने सुझाव, समाधान व अन्य अनुक्रियाएँ करने के लिये कहा जाता है। जिस प्रकार की अनुक्रियाएँ वे व्यक्त करते हैं, उन्हीं के आधार पर छात्र के संज्ञानात्मक विकास स्तर की पहचान की जाती है।

(3) स्थानान्तरण (Transfer) : इस सोपान के अन्तर्गत यह जानने का प्रयास किया जाता है कि प्रस्तुत समस्यामूलक परिस्थिति से निपटने के फलस्वरूप उनमें जो चिन्तन, तर्क एवं समस्या समाधान योग्यता का विकास हुआ है वह उसे उसी प्रकार की अन्य समस्यामूलक परिस्थितियों से निपटने में कहाँ तक सहयोगी सिद्ध हो सकती है।

(iii) सामाजिक प्रणाली (Social System) : इस प्रतिमान की सामाजिक प्रणाली काफी संरचनात्मक है जिसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-

  1. अध्यापकों द्वारा ऐसी पहल की जा सकती है कि विद्यार्थियों को अपने संज्ञानात्मक विकास स्तर के अनुकूल बौद्धिक कार्य करने तथा समस्या मूलक परिस्थितियों का सामना करने के अवसर उपलब्ध हो सकें।
  2. छात्रों को शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों के साथ अनुक्रिया करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिये।
  3. पूछताछ प्रक्रिया जनतान्त्रिक माहौल में सम्पन्न की जानी चाहिये।
  4. छात्रों को भली-भाँति अभिप्रेरित एवं उचित मार्गदर्शन प्रदान किया जाना चाहिये।
  5. छात्रों की उचित निष्कर्ष निकालने में पर्याप्त रूप से सहायता की जानी चाहिये।

(iv) सहायक प्रणाली (Support System) : यह प्रतिमान प्रभावी क्रियान्वयन हेतु निम्न प्रकार की सहायक प्रणाली की मांग करता है-

  1. योग्य एवं प्रशिक्षित अध्यापक।
  2. उचित प्रेरणाप्रद, उत्साहवर्धक, सामाजिक एवं जनतान्त्रिक वातावरण।
  3. सशक्त साधन जो समस्या मूलक या चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करने में सहयोग प्रदान करें।
  4. खोजपूर्ण प्रश्नों एवं सार्थक सुझावों की बहुतायत।
  5. अध्यापक एक सहयोगी एवं पथ-प्रदर्शक के रूप में।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) : इस प्रतिमान में छात्रों की ज्ञानात्मक समस्याओं के समाधान की जाँच हेतु निबन्धात्मक परीक्षाओं का प्रयोग किया जाता है।

उपयोग (Application) : इस प्रतिमान के उपयोग इस प्रकार हैं-

  1. इस प्रतिमान का उपयोग ऐसी सभी स्थितियों में किया जा सकता है जो वास्तविक जिन्दगी से जुड़ी समस्या मूलक या चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से सम्बन्धित हों।
  2. इस प्रतिमान का उपयोग वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों स्तरों पर ही छात्रों के संज्ञानात्मक विकास स्तर की प्रकृति का आकलन करने में किया जा सकता है।
  3. इस प्रतिमान का उपयोग छात्रों को उनके संज्ञानात्मक विकास स्तर के अनुकूल अनुदेशनात्मक कार्यों को करने में भली-भाँति किया जा सकता है।
  4. यह प्रतिमान बालकों के सामाजिक विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान देने में अपनी सशक्त भूमिका निभाता है।
  5. यह प्रतिमान बालकों की तार्किक शक्ति को विकसित करने में भी काफी उपयोगी है।

अन्तः क्रिया शिक्षण प्रतिमान
(Interaction Teaching Model)

सन् 1951 एन. फ्लैण्डर (N. Flander) ने अन्तः क्रिया विश्लेषण प्रणाली को विकसित किया था, जिसके आधार पर फ्लैण्डर ने एक अन्तः क्रिया शिक्षण प्रतिमान (Interaction Teaching Model) का भी प्रतिपादन किया था। इस प्रतिमान को सामाजिक अन्तः क्रिया शिक्षण प्रतिमान (Social Interaction Teaching Model) भी कहा जाता है। चूँकि शिक्षण शिक्षक एवं छात्र के मध्य की अन्तः क्रिया है और शिक्षक कक्षागत शिक्षण में विविध क्रियाएं करता हैं, जिन्हें शिक्षण व्यवहार कहा जाता है। इस प्रतिमान में शिक्षक के उन्हीं शिक्षण व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।

अन्तः क्रिया शिक्षण प्रतिमान के प्रमुख तत्व (Main Elements of an Interaction Teaching Model)-

इस प्रतिमान के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-

(i) केन्द्र बिन्दु (Focus) :

  1. कक्षा व्यवहार का अध्ययन करना।
  2. शिक्षक की अन्तः क्रिया का विश्लेषण करना।

(ii) संरचना (Syntax) : इस शिक्षण प्रतिमान के 10 सोपान हैं-

  1. भावनाएं स्वीकृत करना (Accepting Feelings)
  2. प्रशंसा/प्रोत्साहन (Praise/Encouragement)
  3. छात्रों के विचारों की स्वीकृति/उपयोग (Accepting/Using Ideas of Students)
  4. प्रश्न पूछना (Asking Questions)
  5. व्याख्यान देना (Lecturing)
  6. निर्देश देना (Directing)
  7. आलोचना करना एवं अधिकार प्रदर्शित करना (Criticizing and Showing Authority)
  8. छात्र अनुक्रिया (Student Responses )
  9. छात्र पहल (Student Initiation)
  10. मौन/भ्रान्ति (Silence/Confusion)

(iii) सामाजिक प्रणाली (Social System) :

  1. इसमें शिक्षक अपनी क्रियाओं से विचार स्वीकृति, प्रशंसा, प्रोत्साहन, स्वीकृति एवं प्रश्न पूछने आदि के द्वारा अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।
  2. तत्पश्चात भाषण, निर्देश एवं आलोचना के माध्यम से प्रत्यक्ष प्रभाव डालकर शिक्षण को प्रभावपूर्ण बनाता है।
  3. छात्र अनुक्रिया, छात्र पहल के माध्यम से समस्या का समाधान खोजा जाता है।

(iv) सहायक प्रणाली (Support System) :

  1. कक्षा का वातावरण प्रजातांत्रिक होना आवश्यक है।
  2. शिक्षक को कक्षाकक्ष की शिक्षण प्रक्रिया में संचालन में दक्ष होना चाहिए।

(v) मूल्यांकन (Evaluation) : इस प्रतिमान में अन्तः क्रिया विश्लेषण के लिए अंकन प्रक्रिया (Encoding) एवं व्याख्या की प्रक्रिया (Decoding) अपनाई जाती है।

उपयोग (Application) :

इसका उपयोग शिक्षक के कक्षागत व्यवहार का अध्ययन एवं मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

  • अग्रवाल, जे० सी० एवं जायसवाल, विजय (2013), शैक्षिक तकनीकी एवं प्रबन्ध, अग्रवाल पब्लिकेशन्स, आगरा।
  • अग्रवाल,जे० सी० (2013), शैक्षिक तकनीकी एवं प्रबन्ध, अग्रवाल पब्लिकेशन्स, आगरा।
  • कुलश्रेष्ठ, एस० पी०, शैक्षिक तकनीकी के मूल आधार, अग्रवाल पब्लिकेशन्स, आगरा।
  • गौर, अखिला सिंह, शिक्षा के तकनीकी परिप्रेक्ष्य, आलोक प्रकाशन लखनऊ-इलाहाबाद।
  • भटनागर, ए० बी०, भटनागर, मीनाक्षी एवं भटनागर, अनुराग, शैक्षिक तकनीकी, आर० लाल बुक डिपो, मेरठ।
  • मालवीय, राजीव (2013), शैक्षिक तकनीकी एवं प्रबन्ध, शारदा पुस्तक भवन, इलाहाबाद।
  • श्रीवास्तव, स्मिता एवं अग्रवाल, जे. सी. (2018-19), शैक्षिक तकनीकी एवं सूचना सम्प्रेषण तकनीकी, अग्रवाल पब्लिकेशन्स, आगरा।

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