शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education) एवं शिक्षा के विभिन्न अंग

जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य के सीखने की प्रक्रिया चलती रहती है और इस सीखने की प्रक्रिया में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। शिक्षा बहुत ही व्यापक शब्द है जिसमें बहुत से तथ्यों को शामिल किया जाता है- जैसे शिक्षा क्या है? शिक्षा की प्रकृति क्या है? शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षा पद्धतियाँ आदि। इस आर्टिकल में शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education) एवं शिक्षा के विभिन्न अंगों का अध्ययन करेंगे।

शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education)

(i) शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके तीन मुख्य अंग हैं- सिखाने वाला, सीखने वाला और प्रयुक्त होने वाली सामग्री या क्रिया। यह जरूरी नहीं है कि सिखाने वाला सीखने वालों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित रहे वह अप्रत्यक्ष रूप से भी सिखा सकता है।

(ii) समाज में शिक्षा व्यापक एवं सामाजिक दोनों अर्थों में चलती रहती है लेकिन हमें शिक्षा उसके व्यापक रूप में ही लेनी चाहिए। अतः शिक्षा को हम एक अविरत प्रक्रिया भी कह सकते हैं।

(iii) शिक्षा प्रक्रिया के कुछ उद्देश्य होते हैं जो समाज के द्वारा निश्चित होते हैं और विकासोन्मुख होते हैं। अतः शिक्षा को हम विकास की प्रक्रिया कह सकते हैं।

(iv) शिक्षा की विषय सामग्री को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है व्यापक अर्थ में यह बहुत व्यापक होती है लेकिन संकुचित अर्थ में शिक्षा की सामग्री पाठ्यक्रम तक ही सीमित रहती है लेकिन दोनों ही अर्थों में शिक्षा समाज का विकास करती है।

(v) व्यापक अर्थ में शिक्षा की विधियां बहुत व्यापक होती हैं लेकिन प्रायः संकुचित अर्थ में सीमित ही होती हैं।

(vi) शिक्षा का स्वरूप समाज के धर्म, दर्शन, संस्कृति, समाज की संरचना, अर्थतंत्र एवं प्रगति पर निर्भर करता है।

(vii) किसी भी समाज के धर्म-दर्शन, शासन तंत्र अर्थतंत्र एवं वैज्ञानिक परिवर्तनों के साथ-साथ उसकी शिक्षा के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षा की प्रकृति गतिशील होती है।

शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education) एवं शिक्षा के विभिन्न अंग
शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education)

शिक्षा के विभिन्न अंग

शिक्षा के आंगों के विषय में शिक्षाशास्त्रियों में मतभेद है। जॉन एडम ने शिक्षा के दो ही अंग माने हैं- पहला शिक्षार्थी एवं दूसरा शिक्षक। जॉन डीवी भी शिक्षा के दो ही अंग मानते हैं लेकिन वे दो अंग एडम से भिन्न हैं उनके अनुसार शिक्षा के दो अंग हैं।

पहला मनोवैज्ञानिक (सीखने वाले की मानसिक स्थिति)

दूसरा सामाजिक (सीखने वाले का सामाजिक पर्यावरण)।

रायबर्न के अनुसार, “शिक्षा के तीन अंग हैं- शिक्षार्थी, शिक्षक एवं पाठ्यक्रम।” लेकिन पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा तकनीकी के विकास से इस क्षेत्र में क्रान्ति आ गई है। शैक्षिक तकनीकी विशेषज्ञ शिक्षा के तीन अंगों को स्वीकार करते हैं- शिक्षार्थी, शिक्षक और सीखने-सिखाने की परिस्थितियां जिसमें पाठ्यक्रम एवं शिक्षण के साधन, शिक्षा की विधियां, सामाजिक परिवेश, प्राकृतिक पर्यावरण एवं मूल्यांकन की विधियां आती हैं। वर्तमान शिक्षाशास्त्री इन्हीं को शिक्षा के अंग के नाम से जानते हैं। इस अंगों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-

शिक्षार्थी

शिक्षार्थी का अर्थ होता है सीखने वाला। शिक्षार्थी शिक्षा प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। शिक्षार्थी के बिना शिक्षा प्रक्रिया के चलने का प्रश्न ही नहीं उठता है। यह बात भी अक्षरशः सत्य है कि शिक्षार्थी अपनी रूचि, रूझान एवं योग्यता के आधार पर ही सीखता है। उदाहरण के लिए यदि बालक के सामने आध्यात्म की बात की जाए वो बेचारे कुछ भी समझ नहीं पायेंगे। सीखने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

अतः शिक्षा की प्रक्रिया बालक की रूचि, रूझान और योग्यता को ध्यान में रखकर ही चलाई जानी चाहिए।

शिक्षार्थी कुछ बातें सीखते हैं और कुछ बातें नहीं सीखते हैं। ऐसा क्यों होता है? इस विषय में कई प्रकार के अध्ययन हुए हैं और निष्कर्ष यही निकला है कि सीखने की क्रिया शिक्षार्थी के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, अभिवृद्धि, विकास एवं परिपक्वता, बालक की सीखने की इच्छा उसके पूर्व अनुभव एवं ज्ञान, नैतिक गुण, चरित्र, उत्साह एवं थकान और उसकी अध्ययनशीलता पर निर्भर करता है।

शिक्षक बालक को सीखने में सहायता करता है। इसी कारण से शिक्षार्थी को शिक्षा का केन्द्र माना जाता है और शिक्षा की समस्त योजनाएं बालक या शिक्षार्थी को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। यह बात भी सर्वमान्य है कि अंततः हम समाज या राष्ट्र के आदर्श के अनुकूल बनाने का प्रयास करते हैं।

पाठ्यक्रम

नियोजित शिक्षा के उद्देश्य निश्चित होते हैं। इन निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बालकों को विभिन्न विषयों का ज्ञान कराया जाता है। उनसे कई प्रकार की क्रियाएं कराई जाती हैं। इन्हें ही सामान्यतः पाठ्यक्रम कहा जाता है लेकिन अपने वास्तविक अर्थ में पाठ्यक्रम बहुत अधिक व्यापक होता है। उसके अंतर्गत विषयों के ज्ञान एवं क्रियाओं के प्रशिक्षण के साथ-साथ पूरा का पूरा सामाजिक वातावरण आता है जिसके द्वारा निश्चित किये गये उद्देश्यों को प्राप्त किया जाता है। पाठ्यक्रम शिक्षक एवं बालक के बीच एक कड़ी का काम करता है। शिक्षक को पाठ्यक्रम से यह पता चल जाता है कि उसे क्या सीखाना है और शिक्षार्थी भी यह जानता रहता है कि उसे क्या सीखना है।

पाठ्यक्रम शिक्षक एवं शिक्षार्थी पर शासन करता है। चाहे वह राज्य द्वारा तय हो या समाज द्वारा। साम्यवादी एवं राजतंत्र वाले राज्यों में शिक्षा पूर्णतया राज्य के द्वारा चलाई जाती है। वैसे राज्यों में शिक्षक को अपने दर्शन को अभिव्यक्त करने का अधिकार नहीं होता है। शिक्षार्थी भी अपनी योग्यता एवं रूचि के अनुसार शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता है। वहां सभी को राष्ट्र के विचारधारा के अनुसार चलना पड़ता है।

लोकतंत्र इस विषय में छूट देता है। लोकतंत्र में यद्यपि पाठ्यक्रम तो राज्य के द्वारा ही निश्चित होता है लेकिन उनमें विकल्प मौजूद रहते हैं और बालक अपनी रूचि, रूझान के अनुसार विकास करने का अवसर पाता है। जो लोग मानव की प्रकृति का आदर करते हैं वे लोग ऐसी ही शिक्षा का समर्थन करते हैं। ऐसा नहीं होने पर संसार एक कारागार बन जाएगा और उसकी प्रगति अवरूद्ध हो जायेगी; हमें एक बात पर जरूर गौर करना चाहिए की पाठ्यक्रम स्वयं में साध्य नहीं है यह तो राज्य द्वारा निश्चित किये गये उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन होती है।

अतः पाठ्यक्रम को साधन में रूप में ही लेना चाहिए। हमारे देश में आज पाठ्यक्रम को ही साध्य माना जाने लगा है और शिक्षक अपनी शक्ति पाठ्यक्रम का ज्ञान कराने में ही लगा देते हैं और बालक को परीक्षा में पास कराकर अपनी पीठ थपथपाते हैं। अतः बच्चों को पढ़ाते समय पाठ्यचर्या नहीं अपितु उसके द्वारा प्राप्त होने वाले उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।

शिक्षक

शिक्षक के व्यापक अर्थ में रोज एक दूसरे से सीखते हैं। इसलिए हम सभी शिक्षार्थी एवं शिक्षक दोनों हैं लेकिन शिक्षा के संकुचित अर्थ में कुछ विशेष व्यक्ति जो जानबूझ कर दूसरों को प्रभावित करते हैं और उनके आचार विचार में परिवर्तन करते हैं वे शिक्षक कहे जाते हैं। पुराने जमाने में शिक्षक को बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त था लोग मानते थे कि गुरू चरण में बैठकर कोई भी व्यक्ति ज्ञानी बन सकता है। लेकिन मनोवैज्ञानिक अध्ययन इस बात को साबित कर चुके हैं कि बालक का विकास उसके शिक्षक से ज्यादा बालक के उपर ही निर्भर करता है।

प्रत्येक व्यक्ति में कुछ जन्मजात शक्तियां होती हैं शिक्षक केवल उन शक्तियों के आधार पर उनके विकास में सहयता करता है। लेकिन शिक्षक के अभाव में नियोजित शिक्षा की कल्पना आज भी नहीं की जा सकती है। शिक्षक वर्ग में व्यक्ति के रूप में भी उपस्थित रहता है या लेखक के रूप में उपस्थित होता है। शिक्षक कम्प्यूटर या शिक्षण मशीन के रूप में भी उपस्थित हो सकता है। शिक्षक की सफलता इस बात पर निर्भर करती है या शिक्षक अपने दायित्व का निर्वहन तभी कर सकता है जब उनमें निम्नलिखित गुण हों।

उत्तम शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य, उच्च सामाजिकता, उच्च सांस्कृतिक दृष्टिकोण, स्पष्ट जीवन दर्शन, नैतिकता एवं चरित्र बल, विषय का ज्ञान, विभिन्न विषयों का सामान्य ज्ञान, शिक्षण कौशल एवं संगठन शक्ति। इन गुणों के साथ-साथ शिक्षक को अध्ययनशील एवं प्रगतिशील भी होना चाहिए। शिक्षक को गम्भीर एवं विनोदी भी होना चाहिए।

शिक्षण विधियाँ एवं उपकरण

शिक्षण क्रिया द्वारा शिक्षक शिक्षार्थियों को ज्ञान प्राप्त करने एवं क्रियाओं में दक्षता के लिए तैयार करता है, उसका मार्गदर्शन करता है, सीखने में सहायता पहुंचाता है और अपनी ओर से कुछ बताकर बालक के ज्ञान में वृद्धि करता है और प्रशिक्षित करता है। यह सरल कार्य नहीं है। शिक्षण कार्य के लिए शिक्षक को अपने शिक्षार्थी को तैयार करना पड़ता है। जिससे की वह सीखने में रूचि ले।

वैसे तो शिक्षण विधियों पर विचार आदिकाल से होता रहा है। लेकिन गत शताब्दी में इस क्षेत्र में संतोषजनक कार्य हुआ है। विभिन्न प्रयोगों के आधार पर हमने अनेक शिक्षण सिद्धांत, शिक्षण सूत्र, शिक्षण यंत्रों का निर्माण किया है। इन प्रयोगों एवं आविष्कारों के कारण अब शिक्षा प्रक्रिया बहुत बदल गई है और यदि कारण है कि अब ज्यादा से ज्यादा लोग विभिन्न शिक्षण विधियाँ एवं शिक्षण के उपकरण अपना रहे हैं।

प्राकृतिक वातावरण

शिक्षा जिस समय जिस स्थान पर चलती है उस समय एवं उस स्थान का प्राकृतिक वातावरण शिक्षण एवं शिक्षार्थी का प्राकृतिक वातावरण कहलाता है। यदि वातावरण दूषित होता है तो बालक जल्दी ठीक हो जाता है। अत्यधिक गर्मी एवं अत्यधिक सर्दी भी सीखने-सीखाने में बाधक बन जाती है। इसलिए शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों के प्राकृतिक वातावरण का ध्यान रखना आवश्यक है और प्राकृतिक वातावरण को भी शिक्षा के अंग के रूप स्वीकार किया गया है।

प्राचीन काल में बालक गुरूकुलों में रहते थे। गुरूकुल नगरों से दूर सुन्दर प्राकृतिक समय जलवायु वातावरण में बनाए जाते थे। वहां का वातावरण शुद्ध होता था लेकिन आज जब जनसंख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई है और गुरूकुल या आश्रम प्रणाली सम्भव नहीं है, लेकिन विद्यालय प्रांगण को शुद्ध रखा जा सकता है। प्रांगण में फल-फूल के वृक्ष लगाये जा सकते हैं। बालक की पढ़ाई का के अनुसार निश्चित होना चाहिए।

सामाजिक वातावरण

हम जिन लोगों के बीच रहते हैं, जिनसे बात करते हैं, वे और उनकी भाषा, विचार, सभ्यता एवं संस्कृति ही हमारा सामाजिक पर्यावरण होता है। यह देखा गया है कि बच्चे के सामाजिक पर्यावरण का पूरा-पूरा प्रभाव बालक की शिक्षा और विकास पर पड़ता है। इसी कारण से आज सामाजिक पर्यावरण को भी शिक्षा का अंग माना जाता है।

प्राचीन गुरू आश्रमों जो नगरों से दूर सूरम्य प्राकृतिक वातावरण में होते थे, गुरू शिष्य के सम्बन्ध, शिक्षयों के आपसी सम्बन्ध, गुरूआश्रमों की व्यवस्था और गुरू आश्रमों की आचरण प्रणाली शिक्षक एवं शिक्षाथयिों का सामाजिक वातावरण होता था इस कारण बच्चों में उच्च संस्कार आ जाते थे।

आज की शिक्षा में भिन्नता है आज तो शिक्षार्थी कुछ समय परिवार में, कुछ समय अपने पड़ोस में तथा कुछ समय अन्य सामाजिक स्थानों पर रहते हैं और कुछ समय विद्यालयों में रहते हैं। यहां वे सरल एवं दुष्ट दोनों तरह के लोगों से मिलते हैं और इनका प्रभाव बालक पर पूरा-पूरा पड़ता है। वे समाज की धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति से प्रभावित होते हैं और प्रभावित करते हैं।

अतः बच्चों को सुसंस्कृत एवं सामाजिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि घर, समाज या विद्यालय सभी जगह बच्चों के साथ प्रेम, सहानुभूति और सहयोग पूर्ण व्यवहार हो।

मूल्यांकन

शैक्षिक प्रक्रिया के तीन महत्वपूर्ण अंग हैं, शैक्षिक लक्ष्य सीखने-सीखाने की परिस्थितियां एवं मूल्यांकन या मापन। ये तीनों एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। बालकों की रूचि, बुद्धि, अभिरूचि अभिवृत्ति एवं व्यक्तित्व का मापन कर उन्हें शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देश दिया जाता है तथा बालकों की कठिनाईयों का पता लगाया जाता है। शिक्षक के व्यवहार के गुण एवं दोष देखे जाते हैं। शिक्षण विधियों का मूल्यांकन कर उनमें भी सुधार किया जाता है और छात्रों का मार्गदर्शन किया जाता है। यही कारण है कि आज मूल्यांकन को शिक्षा का अंग माना जाता है।

दोस्तों इस आर्टिकल में आपने शिक्षा की प्रकृति और शिक्षा के विभिन्न अंगों का अध्ययन किया। आशा करता हूँ कि आपको यह आर्टिकल ज्ञानवर्द्धक लगा होगा।

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