जे. के. चेस्टर्टन (J. K. Chesterton) ने अपने एक निबन्ध में लिखा है, “कुछ लोगों का विचार हैं कि मनुष्य के विषय में सबसे व्यावहारिक एवं प्रमुख वस्तु ब्रह्माण्ड के विषय में उसका दृष्टिकोण है। मकान मालिक के लिये यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है कि उसके बनने वाले किरायेदार की आय क्या है, किन्तु उसके लिये यह जानना कि उसका जीवन-दर्शन क्या है और भी अधिक महत्वपूर्ण है। सेनापति के लिए दुश्मन से लड़ने के हेतु उसकी सेना की संख्या का जानना तो महत्वपूर्ण है ही किन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण दुश्मन के दर्शन को जानना आवश्यक है।” जब जीवन के इतने छोटे-मोटे सांसारिक कार्यों के लिए जीवन दर्शन की इतनी आवश्यकता है तो हमें इस बात पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि, “शिक्षा सम्बन्धी समस्त प्रश्न अन्तः जीवन-दर्शन से सम्बन्धित हैं।” वास्तव में जीवन में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालकों के सर्वांगीण एवं सन्तुलित विकास की पूर्ति करना है इसके लिए विद्यार्थियों को कदम-कदम पर मार्ग प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। यह मार्ग-प्रदर्शन कौन करे इसके लिए शिक्षा दर्शन की अति आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही दर्शन की नवीन शाखा शिक्षा दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ जो शिक्षक को शिक्षा व विभिन्न अंगों यथा-शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधि, शिक्षार्थी, विद्यालय, अनुशासन आदि के स्वरूप को समझने और उन्हें कार्यान्वित रूप प्रदान करने में मार्ग प्रदर्शक का कार्य करता है।बटलर (Butlar) ने इस तथ्य को प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि, “दर्शन (या शिक्षा दर्शन) शिक्षा के लिए पथ प्रदर्शक है, शिक्षा अनुसंधान के रूप में दार्शनिक निर्णय के हेतु निश्चित सामग्री को प्रदान करती है।”
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शिक्षा दर्शन की आवश्यकता
(Need of Educational Philosophy)
शिक्षा दर्शन की आवश्यकता को निम्न रूपों में प्रस्तुत किया जा सकता है—
शिक्षा एवं शिक्षण के स्वरूप को समझने के लिए आवश्यकता (Need for Understanding the Nature of Education and Teaching)
प्रत्येक शिक्षक यह आशा करता है कि वह अपने व्यवसाय कार्य में सफलता प्राप्त करे। कार्य में सफलता विशेष रूप से कार्य के स्वरूप पर निर्भर होती है। शिक्षक का दायित्व शिक्षा के वास्तविक स्वरूप को समझकर उसका उपयुक्त रूप से शिक्षण करना होता है।
अतः शिक्षक के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने व्यवसाय को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए शिक्षा एवं शिक्षक के स्वरूप को अच्छी तरह समझे। चूंकि शिक्षा एवं शिक्षण के स्वरूप का निर्धारण शिक्षा दर्शन द्वारा ही होता है अतः शिक्षा एवं शिक्षण का स्वरूप समझने के लिए शिक्षक को शिक्षा दर्शन के अध्ययन की आवश्यकता है।
जीवन के रहस्यों एवं अनुभव की एकता से अवगत होने के लिए आवश्यकता (Need for Acquaintance of the Mysteries of Life and Unity of Experience)
सामान्यतः प्रत्येक शिक्षक किसी विषय का अध्ययन करता है और वह उस विषय का प्रवक्ता, व्याख्याता, प्राध्यापक आदि कहलाने में स्वाभिमान अनुभव करता है। यदि किसी विषय का विद्वान् जीवन की समस्याओं से अपरिचित है तो वह उस विषय का ज्ञाता तक नहीं कहा जा सकता शिक्षक तो दूर की बात है। किसी शिक्षक का शिक्षकत्व इस बात पर निर्भर करता है कि वह बालक के सम्पूर्ण जीवन के रहस्यों से अवगत हो और जीवन के सन्दर्भ में अपने विषय को ‘सम्पूर्ण ज्ञान’ की एक शाखा के रूप में ही पढ़ाये। जीवन के रहस्यों एवं अनुभव की एकता से परिचय प्राप्त करने के लिए शिक्षा दर्शन की अति आवश्यकता है। इसीलिए स्पेन्सर ने कहा है कि, “सच्चा है ने दार्शनिक ही सच्ची शिक्षा को व्यावहारिक बना सकता है।”
शिक्षा की समस्याओं, सिद्धान्तों एवं तत्वों से अवगत होने के लिए आवश्यकता (Need for Acquaintance of the Problems, Principles and Elements of Education)
एडलर का विचार है कि सर्वप्रथम शैक्षिक समस्याएँ जीवन की समस्याएँ बनकर हमारे समक्ष आती हैं। इन प्राथमिक समस्याओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक का सम्बन्ध शिक्षा-दर्शन से होता है और दूसरी स्वतन्त्र होती है। शिक्षक को पहली प्रकार की समस्याओं से परिचत होना चाहिए जो कि व्यावहारिक होती हैं। पुनः व्यावहारिक समस्याएँ दो प्रकार की होती हैं— (i) ‘निरपेक्ष समस्याएँ’ (Absolute Problems) तथा (ii) ‘सापेक्ष समस्याएँ’ (Relative Problems)
प्रथम प्रकार की समस्याएँ सार्वभौमिक तथा द्वितीय प्रकार की समस्याएँ अनिश्चित होती हैं। सार्वभौमिक समस्याएँ ज्ञान पर आधारित होती हैं और अनिश्चित समस्याएँ सम्मति पर। शिक्षा दर्शन सम्मति पर नहीं बल्कि ‘वास्तविक ज्ञान’ (True Knowledge) पर विश्वास करता है। यह स्तर अभ्यास का स्तर होता है, दूसरा स्तर नीति का स्तर है जहाँ पर समस्याएँ वर्गीकृत होती हैं। समस्या का तृतीय स्तर नीति को सिद्धान्त में परिवर्तित कर देता है। इस स्तर पर व्यक्तिगत अभ्यास एवं वर्गीकृत नीति से ऊपर उठकर शिक्षा दर्शन समस्या का व्यापक हल प्रस्तुत करता है।
एडलर के इन विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा दर्शन शिक्षा सिद्धान्तों का जनक है। चूंकि शिक्षक के लिए शिक्षा समस्याओं, शिक्षा-सिद्धान्तों एवं शिक्षा-तत्वों का जानना आवश्यक है अतः उसे शिक्षा-दर्शन की जानकारी होना अति आवश्यक है।

सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक समस्याओं एवं उनके समाधानों से परिचित होने के लिए आवश्यकता (Need for Acquaintance the Theoretical and Practical Problems and their Solutions)
विश्व की सम्पूर्ण समस्याओं को हम मोटे रूप में दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-
(i) सैद्धान्तिक समस्याएँ (Theoretical Problems) तथा (ii) व्यावहारिक समस्याएँ (Practical Problems)
सैद्धान्तिक समस्याएँ प्रकृति के गुणों के विवेचन एवं प्राकृत वस्तुओं के स्वरूप से सम्बन्धित होती हैं। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए विज्ञान तथ्यों का संकलन, विश्लेषण, निरीक्षण एवं परीक्षण करता है। व्यावहारिक समस्याएँ एक पग आगे होती हैं और लक्ष्य की खोज एवं लक्ष्य विशेष की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले प्रयासों से सम्बन्धित होती हैं। शिक्षक का कार्य केवल इन दोनों की समस्याओं यथा—सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक से परिचित होना ही नहीं है बल्कि उनके समाधानों को जानना भी आवश्यक है।
शिक्षा दर्शन इस कार्य में शिक्षक की सहायता करता है। शिक्षा दर्शन के इस दायित्व व विशेषता की ओर संकेत करते हुए श्री एडलर ने लिखा है, “अतः हम देखते हैं कि शिक्षा सम्बन्धी वे प्रश्न शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में स्पष्ट हो जाते हैं जिनका उत्तर विज्ञान दे ही नहीं पाता। इससे शिक्षा दर्शन की आवश्यकता भी प्रकट होती है। क्योंकि इसके बिना प्रतिदिन के शैक्षिक व्यवहारों की नीतियों में मूलभूत व्यावहारिक सिद्धान्तों के विषय में कोई स्पष्ट निर्णय नहीं हो सकता।”
साध्य एवं साधन के अन्तर को समझने के लिए आवश्यकता (Need for Understanding the Difference between Ends and the Means)
शिक्षक के लिए यह अति आवश्यक है कि वह ‘साध्य’ (Ends) एवं ‘साधन’ (Means) में अन्तर को समझे। प्रायः देखा जाता है कि वास्तविक ज्ञान के अभाव में शिक्षक यह नहीं समझ पाता है कि साध्य क्या है और साधन क्या है। इसके परिणामस्वरूप वह साध्य को साधन और साधन को साध्य समझ बैठता है। यह वास्तव में शिष्य एवं शिक्षक दोनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इस स्थिति से बचना शिक्षक के लिए अति आवश्यक हो जाता है। साध्य एवं साधन के अन्तर का ज्ञान शिक्षा दर्शन द्वारा ही सम्भव है। अतः शिक्षक के लिए शिक्षा दर्शन का अध्ययन अति आवश्यक हो जाता है।
ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समन्वय एवं एकीकरण स्थापित करने के लिए आवश्यकता (Need for Establishment of Correlation and Integration among Various Branches of Knowledge)
हम देखते हैं कि शिक्षक अपने-अपने विषय को प्रधानता देते हुए बिना अन्य विषयों पर ध्यान दिये हुए छात्रों को अपना-अपना विषय पढ़ाते रहते हैं। किन्तु ज्ञान की एकता के कारण इनका इस प्रकार का अध्यापन व्यर्थ चला जाता है और छात्रों को किसी भी विषय का ज्ञान नहीं हो पाता है। इसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण शिक्षा व्यर्थ एवं प्रभावहीन हो जाती है। इस कार्य में अर्थात् ज्ञान की विभिन्न शाखाओं व विषयों में सम्बन्ध व एकीकरण स्थापित करने में शिक्षा दर्शन शिक्षक की बड़ी सहायता करता है। रस्क (Rusk) के शब्दों में, “जो शिक्षक दर्शन की उपेक्षा करते हैं उन्हें अपने कार्य को प्रभावहीन बना डालने के रूप में इस उपेक्षा का दण्ड भुगतना पड़ता है।”
वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के गुणों एवं दोषों को समझने के लिए आवश्यकता (Need for Understanding the Merits and Demerits of Present Education System)
बहुत से शिक्षक वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण-दोषों से कोई सरोकार नहीं रखते। वे सोचते हैं, “हमें क्या मतलब है जैसा चल रहा है वैसा ही ठीक है।” शिक्षकों का यह दृष्टिकोण उचित नहीं है उन्हें समय के प्रवाह के साथ शिक्षा-प्रणाली में जो दोष नजर आते हैं उन्हें समझना ही चाहिए। शिक्षा पर देश एवं काल का गहरा प्रभाव पड़ता है।
अतः बहुत दिनों से चली आने वाली परम्परागत प्रणाली में कुछ दोषों का आ जाना स्वाभाविक है। शिक्षक को वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण-दोषों से अवगत होना अति आवश्यक है। चूंकि शिक्षा के गुण-दोषों का विवेचन करना शिक्षा दर्शन का ही काम होता है, अतः शिक्षक के लिए शिक्षा दर्शन के ज्ञान की अति आवश्यकता है।
शिक्षा-प्रणाली में सुधार के लिए आवश्यकता (Need for Reform in System of Education)
शिक्षा के गुण-दोषों को जान लेने मात्र से ही शिक्षक के कार्य की इतिश्री नहीं हो जाती है बल्कि उसके लिए शिक्षा-सुधार की ओर उन्मुख होना भी अति आवश्यक है। हम देखते हैं कि स्वन्तन्त्रता के पूर्व एवं स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा-सुधार के लिए अमुक ‘आयोग’ (Commissions) बैठाये गये और ‘समितियों’ (Committees) की नियुक्ति की गई। किन्तु सुधार की बात तो दूर रही उससे शिक्षा के क्षेत्र में अवनति ही हुई है। इसका प्रमुख कारण शिक्षकों में उचित दृष्टिकोण का अभाव है क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा सुधार की धुरी है। शिक्षक में उचित दृष्टिकोण का निर्माण केवल शिक्षा दर्शन द्वारा ही सम्भव है। अतः शिक्षा दर्शन का अध्ययन करना अति आवश्यक है।
शिक्षण विधियों में परिवर्तन एवं परिवर्द्धन के लिए आवश्यकता (Need for Change and Revision of Methods of Teaching)
एक सफल एवं प्रभावशाली शिक्षक उसी को माना जाता है जो कि उद्देश्य एवं परिस्थिति के अनुसार अपनी शिक्षण विधि में परिवर्तन एवं परिवर्द्धन कर ले क्योंकि कोई भी शिक्षण-विधि प्रत्येक परिस्थिति एवं उद्देश्य में उपयुक्त नहीं हो सकती है। यदि ऐसा होता तो विभिन्न शिक्षण-विधियों के निर्माण की आवश्यकता न होती। परिस्थिति एवं उद्देश्य के अनुसार शिक्षण-विधियों के परिवर्तन एवं परिवर्द्धन करने में शिक्षा-दर्शन अत्यधिक सहायक होता है। अतः यदि शिक्षक शिक्षा दर्शन से परिचित है तो वह अपनी शिक्षण-विधि में अभीष्ट परिवर्तन करने में समर्थ हो जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिक्षक को अपनी शिक्षण-विधि में परिस्थिति एवं उद्देश्य के अनुसार परिवर्तन एवं परिवर्द्धन करने में शिक्षा दर्शन बड़ा सहायक है।
शिक्षार्थियों में आत्म-अनुशासन का विकास करने के लिए आवश्यकता (Need for the Development of Self-discipline among the Students)
मानव-जीवन के लिए अनुशासन की अति आवश्यकता है। अनुशासन के अभाव में व्यक्ति परिवार, समाज एवं राष्ट्र के लिए तो एक समस्या बन ही जाता है किन्तु वह अपने जीवन को भी एक समस्या बना लेता है। आज हम देखते हैं कि किस प्रकार सही मार्ग प्रदर्शन के अभाव में ‘युवा-तनाव’ (Youth Tension) दिन-पर-दिन बढ़ता जा रहा है। शिक्षा संस्थाएं छात्रों को शिक्षा देने में तो कुछ सीमा तक सफल हो रही हैं किन्तु छात्रों में अनुशासन की भावना का विकास करने में असमर्थ सिद्ध हो रही हैं। यदि छात्रों को बाह्य दबाव द्वारा अनुशासित जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया जाता है तो वे और अधिक उग्र रूप से अनुशासहीनता का प्रदर्शन करने लगते हैं। अनुशासन की समस्या का तभी समाधान हो सकता है जबकि शिक्षक छात्रों में आत्म-अनुशासन की भावना का विकास करने में समर्थ हो। शिक्षकों को इस कार्य में दर्शन से अत्यधिक सहायता प्राप्त हो सकती है क्योंकि इसके द्वारा वे इस बात का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं कि किस प्रकार बालकों की पाश्विक प्रवृत्तियों का ‘शोधन‘ (Sublimation) एवं ‘मार्गान्तीकरण‘ (Re-direction) करके उनमें आत्मनियन्त्रण की क्षमता उत्पन्न की जा सकती है।
छात्रों में श्रम के प्रति प्रेम उत्पन्न करने के लिए आवश्यकता (Need for Producing Love for Labour in Students)
हमारे देश में शिक्षकों में न श्रम के प्रति प्रेम है और न छात्रों पर प्रभाव। सच्ची शिक्षा पुस्तकों को पढ़ना- पढ़ाना मात्र नहीं बल्कि श्रम द्वारा उत्पादन करके अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी है। किन्तु श्रम के प्रति प्रेम कोई पढ़ाने की वस्तु नहीं होती बल्कि इसे छात्र शिक्षक के आचरण से सीख जाते हैं। आज का शिक्षक एवं छात्र कार्य करने से डरता है। लिखने-पढ़ने को ही सब कुछ समझता है। इस प्रवृत्ति पर प्रकाश डालते हुए श्री आनन्द कुमार स्वामी (Shri Anand Kumar Swamy) ने लिखा है, “आज पूर्व (अर्थात् विश्व के पूर्वी भाग) में कार्य ने अपनी आदर एवं मनुष्य के परिवर्तन पूर्णतः से अपना निकट सम्बन्ध खो दिया है। आज हम यह समझकर आगे बढ़ते हैं मानो सभ्यता का प्रारम्भ कृषि एवं शिल्प से न होकर लिखने पढ़ने से हुआ था।” शिक्षा दर्शन के अध्ययन से न केवल शिक्षक को श्रम के महत्व का ज्ञान होता है, बल्कि वह तद्नुसार व्यवहार करने के लिए उन्मुख रहता है और ऐसा करने के लिए अपने छात्रों को भी प्रेरित करता है।
शिक्षक के व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यकता (Need for Formation of the Influencial Personality of Teacher)
शिक्षण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। अतः उसे स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। किन्तु यह तभी सम्भव हो सकता है जब शिक्षक का व्यक्तित्व और उसका आचरण इतना प्रभावशाली हो कि छात्र उसके सम्पर्क में आते ही शिक्षा ग्रहण कर लें। शिक्षक अपना यह स्वरूप तभी प्राप्त कर सकता है जबकि उसे शिक्षा दर्शन का पर्याप्त अध्ययन हो और उसने यह अध्ययन अपने जीवन में ढाल लिया हो।
शिक्षा के इस स्वरूप या गुण पर प्रकाश डालते हुए आचार्य भावे ने ठीक ही लिखा है, “तथ्य यह है कि जिस तरह सच्चा शिक्षक शिक्षा देता नहीं, उसके पास से स्वयं शिक्षा प्राप्त हो जाती है, ठीक उसी तरह ज्ञानी पुरुष भी स्वयं लोक-संग्रह नहीं करता, लोक-संग्रह उसके हाथों से अनायास हो जाता है। सूर्य स्वयं किसी को प्रकाश नहीं देता उससे स्वाभाविक रूप से सबको प्रकाश प्राप्त हो जाता है। इस अभावात्मक कर्मयोग को ही गीता में ‘सहज कर्म’ कहा है और मनु ने इसी सहज कर्म को ‘निवृत्त कर्म’ की बड़ी सुहावनी संज्ञा दी है।”
सच्चा शिक्षक एवं शिक्षार्थी बनने के लिए आवश्यकता (Need for becoming True Teacher and True Student)
शिक्षक को स्वयं सच्चा शिक्षक बनने एवं शिक्षार्थी को सच्चा शिक्षार्थी बनाने के लिए शिक्षा दर्शन का ज्ञान होना परमावश्यक है। इसीलिए कहा जाता है कि शिक्षक को शिक्षक की सफलता के लिए दार्शनिक बनना ही पड़ता है। यदि शिक्षक का ‘दार्शनिकीकरण’ (Philosophisation) नहीं होता तो वह न तो ‘शिक्षा विज्ञान’ के विभिन्न स्वरूपों को अच्छी तरह समझा सकता है और न ही शिक्षा-सम्बन्धी किसी समस्या को सुलझा सकता है। वास्तव में शिक्षा दर्शन शिक्षक को सूक्ष्म बुद्धि, प्रज्ञा-चक्षु एवं प्रज्ञा-कर्ण देकर उसे सच्चा शिक्षक बनाता है और सच्चा शिक्षक अपने प्रौढ़ छात्रों में परिपक्व जीवन-दर्शन विकसित कर उन्हें सच्चा शिक्षार्थी बनाता है।
इस तथ्य को सामने रखते हुए भारत के भूतपूर्व शिक्षामन्त्री डॉ. कालूलाल श्रीमाली (Dr. K. L. Shrimali) ने लिखा है, “इस प्रकार शिक्षक का कोई कार्य शिक्षा दर्शन अवश्यमेव होना चाहिए, केवल यही नहीं शिक्षक को छात्रों में जीवन दर्शन का विकास करने के लिए तैयार में होकर इस व्यवसाय में प्रवेश करना चाहिए।”
राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए आवश्यकता (Need for the Development of National Integration)
किसी देश व राष्ट्र की प्रगति के लिए राष्ट्रीय एकता की अति आवश्यकता है। किन्तु राष्ट्रीय एकता तभी सम्भव है जबकि लोग अपनी जाति, वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र आदि के स्वार्थों को त्याग कर भावात्मक रूप से एकीकृत हों। अज्ञानता तथा अपरिपक्व ‘जीवन-दर्शन’ के कारण लोग अपनी-अपनी जाति वर्ग व सम्प्रदाय के संकुचित स्वार्थों की पूर्ति के लिए परस्पर संघर्ष करते रहते हैं और समूचे राष्ट्र के कल्याण को तिलांजलि दिये रहते हैं। छात्र भी इस संकुचित दृष्टिकोण से अछूते नहीं रहते बल्कि वे कभी-कभी तो स्वयं अनेक विघटनकारी तत्वों का नेतृत्व करते हैं।
उपयुक्त दर्शन के अभाव में प्रायः वे राजनैतिक दलों व धार्मिक सम्प्रदायों से प्रोत्साहन पाकर हड़ताल, संघर्ष, घेराव आदि कर बैठते हैं। छात्रों की इस प्रकार की विघटनकारी क्रियाएँ शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षण तीनों के लिए विशेष समस्या बन जाती हैं। देश के युवकों एवं छात्रों में राष्ट्रीय एकता के हेतु ‘भावात्मक एकता’ (Emotional Integration) का विकास करने के लिए शिक्षा दर्शन शिक्षक का मार्ग-प्रदर्शन कर सकता है। अतः इस दृष्टिकोण से भी शिक्षक को शिक्षा दर्शन की अति आवश्यकता है।
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का विकास करने के लिए आवश्यकता (Need for the Development of International Understanding )
वर्तमान समय में विज्ञान के क्षेत्र में हुई आश्चर्यजनक प्रगति के परिणामस्वरूप एक ओर संसार के सभी देशों के लोग एक-दूसरे देश के लोगों से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं। इस प्रकार एक ओर भौगोलिक पृथकता का अन्त हो गया है तो दूसरी ओर महाविनाशकारी शस्त्रों, बमों, राकेटों, युद्ध-पद्धतियों के आविष्कार हो जाने के कारण आज मानव जाति विनाश के कगार पर खड़ी हुई है और सदैव मानव-समाज पर युद्ध के बादल मण्डराते रहते हैं।
भला हमारी यह प्रगति जिसमें हम अपने आपको असुरक्षित समझने लगे हैं, किस काम की है। इस समस्या की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए श्री रत्ना नवरत्नम् ने कहा है कि, “मानव-जाति को बचाने के लिए सभी को मिलकर प्रयत्न करना चाहिए।” किन्तु इस प्रयत्न का क्या स्वरूप हो और इसे किस प्रकार क्रियान्वित रूप प्रदान किया जाए इसके लिए मानव जाति को मार्ग-प्रदर्शन की आवश्यकता है। यह मार्ग-प्रदर्शन वैज्ञानिक नहीं बल्कि दार्शनिक विशेष तौर से शिक्षा-दार्शनिक या शिक्षक ही कर सकते हैं।
यदि विश्व के सभी देश के शिक्षक अपने-अपने विद्यालयों में अध्ययन करने वाले छात्रों व युवकों में विश्व बन्धुत्व, विश्व शान्ति के दर्शन का विकास करने का प्रयास करें तो निश्चय ही उनमें ‘अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना’ का विकास होगा और हमारी ‘विश्व समाज’ व ‘विश्व सरकार’ की कल्पना साकार होगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि छात्रों में अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का विकास करने के लिए शिक्षक को दर्शन का अध्ययन करने की आवश्यकता है।