शिक्षा की आधुनिक प्रवृत्तियाँ या शिक्षा की आधुनिक धारणा को समझने के लिए हमें शिक्षा की आधुनिक तथा प्राचीन दोनों धारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक है। अत: निम्नलिखित पंक्तियों में हम शिक्षा के विभिन्न अंगों पर तुलनात्मक दृष्टि डाल रहे हैं, जिससे हमारे सामने आधुनिक शिक्षा का सच्चा चित्र खिंच जाये-
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शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)
शिक्षा शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के एडूकेटम (Educatum) शब्द हुई है। एडूकेटम का अर्थ है शिक्षण की कला। ए (E) का अर्थ है ‘अन्दर से’ तथा ड्यूको (Duco) का अर्थ है-‘आगे बढ़ाना’ या ‘विकास करना’। इस प्रकार आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षा बालक के अन्दर छिपी हुई समस्त शक्तियों को सामाजिक वातावरण में विकसित करने की कला है।
प्राचीन शिक्षा के अन्तर्गत निर्देशन पर बल दिया जाता था। अत: शिक्षा का कार्य था-बालक के मस्तिष्क में पके-पकाए ज्ञान को बलपूर्वक ढूंसना। आजकल मस्तिष्क ‘एक खाली बर्तन’ (An Empty Vessel) तथा ‘एक कोरी प्लेट’ (A Blank Plate) आदि प्राचीन धारणाओं का खण्डन करते हुए इस बात पर बल दिया जाता है कि न तो मस्तिष्क एक खाली बर्तन के समान है, जिसको भरने के लिए निर्देशन द्वारा ज्ञान को बाहर से भरना अथवा बलपूर्वक ढूंसना आवश्यक है तथा न ही एक कोरी प्लेट है, जिस पर विषय-वस्तु को अंकित किया जाये। वस्तुस्थिति यह है कि मस्तिष्क जन्म से ही सक्रिय होता है तथा इसमें वातावरण से सम्बन्ध स्थापित करने की शक्ति होती है।
यही नहीं, मस्तिष्क की विशेषता उस शक्ति से भी है, जो बालक को वातावरण में क्रिया द्वारा सीखने के लिए प्रेरित करती है। अत: आधुनिक शिक्षा, शिक्षण की उपेक्षा सीखने पर बल देती हुई मार्गदर्शन, अभिवृद्धि तथा सामाजिक विकास के रूप में उपस्थित होती है।
शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)
प्राचीन शिक्षा बालक के मानसिक विकास पर बल देती थी, जिसके अनुसार केवल ज्ञानार्जन को ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य माना जाता था। आधुनिक शिक्षाशास्त्री व्यक्ति की प्रकृति का अध्ययन करते हुए मानसिक विकास के साथ-साथ उसके शारीरिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास पर भी बल देते हैं। इस दृष्टि से आधुनिक शिक्षा का उद्देश्य है-बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास तथा उसमें सामाजिक कुशलता के गुणों का विकास करना।
पाठ्यक्रम (Curriculum)
प्राचीन धारणा के अनुसार पाठ्यक्रम में केवल उन विषयों को ही सम्मिलित किया जाता था, जिनके अध्ययन से बालक का मानसिक विकास हो जाये। इससे पाठ्यक्रम पूर्व निश्चित तथा स्थिर बन गया था।
आधुनिक युग में बालक के सर्वांगीण विकास हेतु पाठ्यक्रम सम्बन्धी तथा सहगामी दोनों प्रकार की क्रियाओं एवं अनुभवों को सम्मिलित करके पाठ्यक्रम को लचीला तथा प्रगतिशील बनाने पर बल दिया जाता है, जिससे प्रत्येक बालक अपनी-अपनी रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुसार विकसित होकर समाज की यथाशक्ति सेवा करता रहे। संक्षेप में, आधुनिक पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ज्ञानार्जन सम्बन्धी विषयों की अपेक्षा सामाजिक अध्ययन पर बल दिया जाता है।
शिक्षण-पद्धतियाँ (Methods of Teaching)
शिक्षा की प्राचीन धारणा पाठ्यक्रम के सभी विषयों को कंठस्य करने पर बल देती है। इस रटन-पद्धति (Memorisation) के कारण शिक्षा निर्जीव तथा नीरस हो गयी थी। आधुनिक धारणा के अनुसार अब बालक के सर्वांगीण विकास हेतु रटन-पद्धति की अपेक्षा खेल विधि, करके सीखने की विधि तथा योजना आदि शिक्षण पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है, जिससे प्रत्येक बालक अपनी-अपनी रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुसार वास्तविक जीवन के अनुभव प्राप्त करके स्वयं विकसित होता रहे।
अनुशासन (Discipline)
प्राचीन धारणा के अनुसार अनुशासन के लिए कठोर दण्ड अथवा केवल डण्डे को ही शिक्षक की सहायक सामग्री समझा जाता था। पर आधुनिक धारणा दमन की अपेक्षा शिक्षक के प्रभाव तथा नियन्त्रित स्वतन्त्रता पर बल देती है, जिससे बालक में आत्म-अनुशासन (Self-Discipline) की भावना विकसित हो जाये।
परीक्षा (Examination)
शिक्षक को बालक की शैक्षणिक प्रगति का पता लगाने के लिए परीक्षा का प्रयोग करना पड़ता है। अत: परीक्षा के सम्बन्ध में प्राचीन धारणा ने निबन्धात्मक परीक्षाओं को जन्म दिया जिससे बालक की रटन शक्ति का पता लग जाये। चूँकि उक्त परीक्षाओं में अनेक त्रुटियाँ हैं, इसलिए आधुनिक धारणा वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं, प्रगति-पन्नों तथा वर्धनशील लिखित विवरण (Cumulative Records) पर बल देती है, जिससे बालक को विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली प्रगति का ठीक-ठीक पता चल जाये।
शिक्षा के साधन (Agencies of Education)
प्राचीन धारणा के अनुसार शिक्षा का उत्तरदायित्व केवल स्कूल पर ही समझा जाता था। परन्तु आधुनिक धारणा के अनुसार यह उत्तरदायित्व स्कूल के साथ-साथ परिवार, समुदाय, धर्म तथा राज्य आदि सभी अनौपचारिक साधनों पर समझा जाता है। अत: अब इस बात पर बल दिया जाता है कि सभी अनौपचारिक साधनों को स्कूल रूपी औपचारिक साधन के साथ पूर्ण सहयोग प्रदान करना चाहिये।
शिक्षक (Teacher)
प्राचीन धारणा के अनुसार शिक्षा शिक्षक-प्रधान (Teacher-Centred) थी। अत: शिक्षक का स्थान एक निर्देशक अथवा तानाशाह की भाँति समझा जाता था। आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षक एक मित्र, दार्शनिक तथा पथ-प्रदर्शक समझा जाता है। उससे यह आशा की जाती है कि वह बालकों के साथ सहानुभूतिपूर्ण तथा व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करके उनमें सामाजिक रुचियों, आदतों तथा दृष्टिकोणों का विकास करे।
बालक (Child)
प्राचीन धारणा के अनुसार बालक को निष्क्रिय श्रोता के रूप में एक ही आसन से बैठकर शिक्षक के अनुदेशन को सुनने की आदत डाली जाती थी। आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षा बालकेन्द्रित (Child-Centred) हो गई है। अतः अब इस बात पर बल दिया जाता है कि बालक अधिक से अधिक सक्रिय रहकर पाठ के विकास में रुचि ले तथा शिक्षक और बालकों के बीच अधिक से अधिक अन्तः-प्रक्रिया (Interaction) हो, जिससे प्रत्येक बालक का अधिक से अधिक विकास हो।
स्कूल (School)
प्राचीन धारणा के अनुसार स्कूल को ऐसी दुकान समझा जाता था, जहाँ पर ज्ञान के विक्रेता बालकों को डण्डे के भय से विभिन्न विषयों को रटाते थे, भले ही रटा हुआ ज्ञान उनके भावी जीवन में काम आये अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में, प्राचीन धारणा के अनुसार इस बात को आवश्यक नहीं समझा जाता था कि शिक्षा में लगाई गई पूँजी अथवा अदा (Input) के अनुपात से उत्पादन अथवा प्रदा (Out-put) भी हो।
आधुनिक धारणा के अनुसार स्कूल को समाज का लघु रूप (Miniature of Society) माना जाता है। साथ ही शिक्षा को एक उद्योग तथा शिक्षक को इस शिक्षा रूपी उद्योग का व्यवस्थापक समझा जाता है, जो बालकों के लिये सीखने की व्यवस्था करता है और यह देखता है बालकों को शिक्षा में लगाई गई पूँजी अथवा अदा (Input) के अनुपात में प्रक्रिया (Process) द्वारा योग्यता अथवा प्रदा (Out-put) बढ़ी अथवा नहीं।
शिक्षा एक अनुशासन के रूप में (Education as a Discipline)
प्राचीन धारणा के अनुसार शिक्षा को एक प्रक्रिया तथा प्रशिक्षण (Training) के अर्थ में प्रयोग किया जाता था। आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षा को एक प्रक्रिया तथा प्रशिक्षण के अतिरिक्त दूसरे विषयों की भाँति अध्ययन का एक स्वतन्त्र विषय अथवा अनुशासन (Discipline) माना जाता है। इसका कारण यह है कि अन्य विषयों की भाँति शिक्षा में भी वे सभी विशेषतायें हैं, जो प्रत्येक विषय अथवा अनुशासन में होती हैं।
वे विशेषतायें हैं-(1) निजी पाठ्यवस्तु, (2) पाठ्यवस्तु का क्रिया से सम्बन्ध, (3) निजी विधियाँ, (4) शोध की निजी विधियाँ।