पियाजे के नैतिक विकास का सिद्धान्त (Piaget’s Theory of Moral Development)
नैतिक विकास व्यक्तित्व विकास का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। नैतिक विकास सामाजिक विकास के साथ-साथ चलता है। जिस व्यक्ति का सामाजिक विकास किसी कारण से अवरुद्ध हो गया हो, जो सामाजिक रूप से कुसमायोजित हो, उसके व्यवहार में अनैतिकता पनपने लगती है।
अनैतिक व्यवहार (Immoral behaviour) वह व्यवहार होता है जो सामाजिक अपेक्षाओं के अनुकूल न हो। यह सामाजिक अपेक्षाओं के अज्ञान के कारण उत्पन्न नहीं होता बल्कि व्यक्ति द्वारा जानबूझ कर सामाजिक स्तरों को अस्वीकृत करने या समाज के प्रति कृतज्ञता के अभाव के कारण उत्पन्न होता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को सामाजिक व्यवहार सीखने के अवसरों से वंचित कर दिया गया हो उसमें भी नैतिकताहीन (Non-moral) व्यवहार पनपने लगता है। नैतिकताहीन (Non- moral) व्यवहार सामाजिक अपेक्षाओं के अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है न कि सामाजिक स्तरों की जान-बूझ कर उपेक्षा से।
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नैतिक विकास का अर्थ (Meaning of Moral Development)
हैमिंग (Hemming) ने अपनी पुस्तक ‘The Development of Children’s Moral Values’ में लिखा है, ‘ नैतिक विकास एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा समुदाय द्वारा सम्मानित मूल्य ग्रहण करता है……..इन मूल्यों के अनुसार ठीक और गलत का विवेक प्राप्त करता है…… अपनी वैयक्तिक इच्छाओं एवं विवशताओं को नियमित करना सीखता है और जब कोई द्वन्द्वात्मक स्थिति उत्पन्न होती है तो वह वैसा करता है जैसा उसे करना चाहिए, न कि ऐसा जैसा वह चाहता है…….नैतिक विकास एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा समुदाय बच्चे की आत्म-केन्द्रिता को परिपक्व व्यस्क के सामाजिक व्यवहार में परिवर्तित करता है।’
नैतिक विकास में नैतिक व्यवहार तथा नैतिक अवधारणायें सम्मिलित हैं
नैतिक व्यवहार (Moral Behaviour)
नैतिक व्यवहार का अर्थ है-समाज की नैतिक संहिता (moral code) के अनुसार व्यवहार करना। ‘Moral’ शब्द लेटिन के ‘Mores’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है व्यवहार-विधियां, रिवाज तथा लोक-विधियां। नैतिक व्यवहार केवल सामाजिक स्तरों के अनुकूल ही नहीं होता बल्कि स्वेच्छा से भी अपनाया जाता है। इस में व्यक्ति के उत्तरदायित्व की भावना निहित होती है। इसमें सामाजिक हित को प्राथमिकता दी जाती है और व्यक्तिगत हित को दूसरे स्थान पर रखा जाता है।
नैतिक अवधारणायें (Moral Concepts)
नैतिक अवधारणायें वे व्यवहार-नियम हैं जो एक संस्कृति के सदस्यों के रिवाज बन जाते हैं और जो उनके लिए व्यावहारिक ढांचे को निर्धारित करते हैं। समाज की नैतिक संहिता (Moral code) के अनुसार काम करना ‘नैतिकता’ कहलाता है अर्थात् समाज द्वारा निर्धारित रीतियों तथा मूल्यों के अनुसार व्यवहार करना ‘नैतिकता’ है। इसमें व्यक्ति की अच्छे-बुरे की पहचान भी सम्मिलित है। नैतिकता में वे विचार तथा नियम सम्मिलित हैं जो व्यक्ति के व्यवहार को परिचालित करते हैं।
नैतिकता का कोई न कोई सामाजिक सन्दर्भ होता है अर्थात् नैतिक स्तर की सामाजिक आधार पर विभिन्नता होती है। एक सामाजिक समूह का नैतिक स्तर दूसरे समूह से भिन्न होता है। सच्ची नैतिकता व्यक्ति के भीतर से उत्पन्न होती है। यह किसी बाह्य सत्ता द्वारा थोपी नहीं जाती।
यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि नैतिक-संहिता (Moral code) नैतिक अवधारणाओं पर आधारित होती है जो लम्बे समय तक धीरे-धीरे सीखी जाती हैं। बुनियादी अवधारणाएं (Concepts) प्रत्यक्ष शिक्षण एवं अनुकरण द्वारा घर में सीखी जाती हैं। यह सीखना दण्ड एवं पुरस्कार द्वारा प्रेरित होता है। बाद में घर में सीखी गई ये अवधारणाएं विस्तृत हो जाती हैं और अध्यापकों, अधिकार-सम्पन्न व्यस्कों तथा समूहों द्वारा सिखाई जाती है।
पियाजे का नैतिक विकास का सिद्धान्त (Piaget’s Theory of Moral Development)
कोहलबर्ग (Kohlberg) की तरह पियाजे, 1940 ने बालक के नैतिक/चरित्र विकास में हमें एक नई अन्तदृष्टि प्रदान की है। उसका विचार है कि अन्य लोगों के प्रति बालक के निर्दिष्टीकरण का विकास धीरे-धीरे आत्म-केन्द्रिता (Self-centrism) से समाज-केन्द्रिता (Socio-centrism) की ओर बढ़ता है। इसका अर्थ यह है कि जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है, उसका नैतिक विकास उसके अपने मन में खुद बनाए गए स्थिर मानकों से समाज के बदलते हुए मानकों की ओर परिवर्तित हो जाता है जो समाज में रह रहे लोगों के कल्याण से सम्बन्धित होते हैं।
नैतिक विकास के चरण (Stages of Moral Development)
जीन पियाजे ने बालक के नैतिक विकास के विभिन्न चरणों का पता लगाने के लिए साक्षात्कार विधि (Interview method) का प्रयोग किया।
1. अनॉमी चरण (Anomy stage) प्रथम 5 वर्ष-अनॉमी चरण कानून-रहित चरण (Stage without law) होता है। इस चरण में बालक का व्यवहार न तो नैतिक या अनैतिक बल्कि गैर-नैतिक या नैतिकता से परे होता है। उसका व्यवहार नैतिक स्तरों द्वारा निर्देशित एवं नियन्त्रित नहीं होता। पीड़ा और हर्ष उसके व्यवहार के नियन्त्रक होते हैं। यह ‘प्राकृतिक परिणामों का अनुशासन’ (“Discipline of natural consequences) है जैसे कि रूसो (Rousseau) ने भी कहा है।
2. हेटरोनॉमी चरण (Heteronomy stage) (5 से 8 वर्ष)–यह चरण अधिकार (Authority) के अनुशासन का चरण है। इसे कृत्रिम परिणामों के अनुशासन (Discipline of artificial consequences) का नाम दिया जा सकता है। इस चरण में नैतिक विकास को बाहरी प्राधिकरण द्वारा नियन्त्रित किया जाता है (Moral development is controlled by external authority.)। पुरस्कार और दंड नैतिक विकास को नियन्त्रित करते हैं।
3. हेटरोनॉमी चरण (Heteronomy stage) (8 से 13 वर्ष)–नैतिक विकास के इस चरण को पारस्परिक आदान-प्रदान (Reciprocity) का चरण कहते हैं। इस चरण में हम-आयु या बराबर के लोगों के साथ सहयोग की नैतिकता होती है यह चरण पारस्परिक आदान-प्रदान द्वारा नियंत्रित होता है जिसका अर्थ है ‘हमें दूसरों साथ वह नहीं करना चाहिए जो हमारे लिए अपमानजनक हो।’ समूह के साथ अनुरूपता अत्यावश्यक बन जाती है।
4. स्वायत्तता चरण (Autonomy stage) (13 से 18 वर्ष)–यह किशोरावस्था (Adolescence) का चरण होता है। पियाजे इसे समता (Equity) का चरण भी कहते हैं जबकि पारस्परिक आदान-प्रदान (Reciprocity) कठोर समानता की माँग करता है। स्वायत्तता (Autonomy) अभिप्रेरणा, परिस्थिति इत्यादि कारकों को ध्यान में रखते हुए समता (Equity) उत्पन्न करती है। इस चरण में व्यक्ति अपने व्यवहार के लिए पूर्णतः जिम्मेदार होता है। हैडफील्ड (Hadfield), 1964 के शब्दों में, ‘नैतिक अधिकार का लक्ष्य है स्वयं को जानना, स्वयं को स्वीकार करना और स्वयं में रहना।’ नैतिक व्यवहार को नियन्त्रित करने वाले नियम व्यक्ति के भीतर से (Within) उत्पन्न होते हैं। ऐसी स्वायत्तता नैतिक विकास का आदर्श है।
चेतावनी के शब्द (A Word of Caution)
चेतावनी के शब्द आवश्यक हैं। भिन्न-भिन्न आयु स्तरों से सम्बन्धित नैतिक विकास के भिन्न भिन्न स्तरों को सभी बच्चों के लिए निश्चित स्तरों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह पहले से ही नहीं मान लेना चाहिए कि प्रत्येक आगामी चरण के साथ बालक पूर्ववर्ती चरणों का त्याग कर देता है।

पियाजे के विचारों की प्रमुख बातें (Highlights of Piaget’s Views)
पियाजे के विचारों की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं :
आत्म- केन्द्रिता (Ego-centricity)
अपनी प्रारम्भिक अवस्था में बालक स्वः केन्द्रित (आत्म केन्द्रित) होता है। उसे अपने खुद के बचपन के मानकों और क्रियाकलापों की अधिक परवाह होती है और वह दूसरों की परवाह नहीं करता। बालक अपनी सही और गलत की पूर्व-धारणा में ऐसी पूर्व धारणाओं द्वारा निर्देशित होता है जिन्हें वह अपने माता-पिता और बड़ों से प्राप्त करता है। वह उन्हें स्वीकार करता है और उन्हें अन्तिम मानकर उन्हीं के अनुसार कार्य करता है।
समाज-केन्द्रिता (Socio-centricity)
जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है, वह समाज पर केन्द्रित होता जाता है अर्थात् वह समाज के मानकों को अपना लेता है। ये मानक समाज में रह रहे लोगों के कल्याण से सम्बन्धित होते हैं। वह बड़ा होता है और समाज में घूमता है तथा अपने कठोर (Rigid) उपागम को पीछे छोड़ देता है। वह खुद को समाज की बदलती आवश्यकताओं के अनुसार ढाल लेता है।
प्रतिफलात्मक न्याय (Retributive justice)
पियाजे ने बाल्यावस्था में प्रतिफलात्मक न्याय की धारणा भी प्रस्तुत की है। वह प्रतिफलात्मक न्याय के एक असभ्य प्रकार के नैतिक विचार द्वारा नियन्त्रित होता है। वह बालक के रूप में महसूस करता है कि बुरे व्यक्ति को दंड दिया जाना चाहिए। वह व्यक्ति में बुराई या कानून तोड़ने के कारणों के बारे में सोचने में असमर्थ होता है। यदि कानून का उल्लंघन किया जाता है, तो दंड अवश्य दिया जाना चाहिए।
सामाजिक न्याय (Social justice)
जब वह बड़ा हो जाता है, तो वह सामाजिक न्याय की धारणा को स्वीकार कर लेता है। वह अपने उपागम (Approach) में बदलाव लाता है। वह उपयुक्तता के आधार पर अपना नैतिक निर्णय लेता है। अपराधी को केवल कानून तोड़ने के आधार पर नहीं, बल्कि अन्य विचारशीलताओं के आधार पर भी दंड दिया जाना चाहिए जिन्होंने उसे कानून तोड़ने के लिए बाध्य किया। अपराध के लिए दंड व्यक्ति की जिम्मेदारी पर आधारित होना चाहिए। यदि किसी बच्चे ने अपनी रोटी पानी में गिरा दी है, तो दूसरा छोटा बच्चा उसे दूसरी रोटी देने के पक्ष में नहीं होगा। उसे रोटी गिराने के लिए दंड मिलना चाहिए। दूसरी तरफ, एक किशोर बालक मानेगा कि बच्चे की छोटी आयु को ध्यान में रखते हुए उसे दूसरी रोटी दे दी जानी चाहिए।
पियाजे के नैतिक विकास के सिद्धान्त का शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implications of Piaget’s Theory of Moral Development)
शिक्षा में बालक के नैतिक विकास के लिए योजना बनाई जानी चाहिए। इससे उसे समाज के सदस्य के रूप में जिम्मेदार भूमिका निभाने में सहायता मिलेगी। अतः नैतिक विकास को शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना जाना चाहिए।
पुरस्कार एवं दंड (Reward and punishment)
कुछ मनोवैज्ञानिक किसी भी प्रकार के दंड के विरुद्ध हैं और इसे एक नकारात्मक उपागम मानते हैं। यह बालक की गलत क्रियाओं को रोकने में समर्थ हो सकता है लेकिन वांछित अभिवृत्तियों को विकसित नहीं कर सकता। यह दृष्टिकोण कुछ हद तक सही हो सकता है। फिर भी, कभी-कभी बालक की अवांछनीय क्रियाओं को रोकने के लिए दंड एकमात्र साधन प्रतीत होता है। हमें बालक को दंड तभी देना चाहिए जब वांछित प्राप्ति के लिए अन्य कार्यवाहियां असफल हो जाती हैं। जहां तक पुरस्कारों का सम्बन्ध है, हमें समय-समय पर उचित परन्तु प्रोत्साहन और प्रशंसा का प्रयोग करना चाहिए। इसका प्रयोग भी सावधानी से और आवश्यकता पड़ने पर किया जाना चाहिए।
प्रवृत्तियों एवं संवेगों का प्रशिक्षण (Training of instincts and emotions)
प्रवृत्तियां और संवेग हमारे चरित्र का आधार होते हैं। ये क्रिया के मुख्य स्रोत होते हैं। अतः हमें बालक की प्रवृत्तियों और संवेगों को सामाजिक रूप से वांछनीय प्राप्तियों की ओर परिवर्तित और परिष्कृत करना चाहिए।
दृढ़ संकल्प शक्ति विकसित करना (Developing strong will power)
हमें बच्चे मैं दृढ़ संकल्प शक्ति विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए। इससे बच्चे को हानिकारक कारकों से ऊपर उठने और जीवन की कठिनाइयों को दृढ़ संकल्प एवं निश्चिय से झेलने में सहायता मिलेगी। वह सही समय पर सही निर्णय ले पाएगा। ये गुण व्यक्ति को महान् बनाते हैं।
स्वस्थ आदतें निर्मित करना (Formation of healthy habits)
आदतों को द्वितीय स्वभाव (Second nature) कहा गया है। यदि बच्चे में अच्छी आदतें होती हैं, तो उसका स्वभाव अच्छा होता है। अच्छे स्वभाव से नैतिक विकास अच्छा होता है। अभिभावक और अध्यापक उचित ढंग से समायोजन करके और अपने खुद का अच्छा उदाहरण देकर अच्छी आदतें विकसित कर सकते हैं। अवांछनीय आदतों को स्थिति में सुधार लाकर तोड़ा जाना चाहिए।
उच्चतर आदर्श विकसित करना (Developing higher ideals)
विशेष परिस्थिति में बालक का व्यवहार उसके जीवन के उद्देश्य एवं आदर्शों पर निर्भर करता है। अध्यापक को बालक को जीवन के उच्चतर और उपयुक्त आदर्श रखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। उन्हें प्राप्त करने के लिए बालक को अधिकाधिक प्रयास करना पड़ता है। यह जीवन का एक उचित लक्ष्य होता है और अपने साथियों की दृष्टि में बालक का महत्त्व बढ़ जाता है।
उचित स्थायीभाव विकसित करना (Developing proper sentiments)
नैतिक विकास विभिन्न स्थायीभावों का संगठन होता है। अध्यापक को बच्चे में स्वस्थ स्थायीभाव विकसित करने की योजना बनानी चाहिए। बालक के नैतिक विकास में आत्म-सम्मान स्थायीभावों और नैतिकता, सामाजिक कल्याण और देश-भक्ति, इत्यादि जैसे स्थायीभावों को उचित स्थान दिया जाना चाहिए। इससे उसे नैतिकता विकसित करने और समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सहायता मिलेगी। स्वस्थ स्थायीभावों के उचित विकास के लिए योजना बनाते समय अध्यापक को निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए :
(1) बालक की वैयक्तिक्ता पहचानना (Recognise the individuality of the child)
(2) बालक को कार्य की स्वतन्त्रता देना (Give freedom of action to the child)
(3) बालक को प्रेम, स्नेह, सुरक्षा और पहचान देना (Give love, affection, security and recognition to the child)
(4) विभिन्न सामाजिक क्रियाकलापों में बालक को जिम्मेदारियां देना (Give responsibilities to the child in various social activities)
उचित सामाजिक विकास (Proper social development)
बच्चों को उचित सामाजिक वातावरण में रखा जाना चाहिए। इससे उन्हें समाज के प्रति उचित सामाजिक अभिवृत्तियां विकसित करने में सहायता मिलेगी। ऐसे सामाजिक रूप से विकसित बालक का अपने चरित्र विकास के प्रति विवेकशील उपागम (Rational Appoach) होता है। मनोवैज्ञानिकों ने नैतिक एवं सामाजिक विकास के मध्य में सकारात्मक सह-सम्बन्ध पाया है।
स्वस्थ सामाजिक वातावरण (Healthy social environment)
बालक की नैतिकता विकसित करने में सामाजिक वातावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वातावरण में परिवार, विद्यालय, आस पड़ोस और समुदाय शामिल होता है। नैतिक विकास में अभिभावकों, अध्यापकों, सहपाठियों, पड़ोसियों और समुदाय के सदस्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। नैतिक विकास के कार्य में इन सभी सामाजिक शक्तियों को एकजुट हो जाना चाहिए। सामाजिक वातावरण विचारोत्तेजक और प्रेरक होना चाहिए ताकि बच्चे नैतिक विकास के स्वस्थ विशेषकों (गुणों) का चुनाव स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकें।
क्रिया-केन्द्रित विद्यालय कार्यक्रम (Activity-oriented school Programme)
बालक के नैतिक विकास में विद्यालय की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। विभिन्न पाठ्य और पाठ्य-सहायक क्रियाओं के संगठन द्वारा अध्यापकों को बच्चों में अनेक नैतिक गुणों के विकास को प्रोत्साहित करना चाहिए। भाषाओं एवं सामाजिक अध्ययन, इत्यादि जैसे विभिन्न विषयों के शिक्षण में अध्यापक को नैतिक गुणों पर बल देना चाहिए जैसे कि प्रेम, त्याग, आत्म-नियन्त्रण, सच्चाई और ईमानदारी। बच्चों के नैतिक विकास के लिए कुछ क्रियाओं की सूची निम्नलिखित है:
(1) प्रतिदिन प्रातःकालीन विद्यालय सभा का संचालन करना (Conducting daily morning school assembly)
(2) त्यौहार मनाना (Celebrating festivals)
(3) राष्ट्रीय दिवस मनाना (Celebrating national days)
(4) सामूहिक खेलों का संगठन करना (Organising group games)
(5) सामूहिक परियोजनाओं का संगठन करना (Organising group projects)
(6) विद्यालय की पंचायत का संगठन करना (Organising school panchayat)
(7) शिविरों का संगठन करना (Organising camps)
(8) गर्ल गाइडिंग और स्काउटिंग का संगठन करना (Organising girl guiding and scouting)
(9) शैक्षिक पर्यटनों और यात्राओं का संगठन करना (Organising educational excursions and trips)
(10) समाज सेवा कार्यक्रमों का संगठन करना जिनमें ‘श्रमदान’ भी शामिल हो (Organising social service programmes including ‘Shramdan’)
(11) सामुदायिक और विद्यालय मिलन-उत्सव की व्यवस्था करना (Arranging community and school get-together)
(12) ड्रामा और नाटकों का मंचन करना (Staging dramas and plays)
(13) उपयुक्त फिल्में स्क्रीन पर दिखाना (Screening appropriate films)
(14) संतों और ऋषि-मुनियों के उपदेशों पर बल देना (Emphasising teachings of saints and seers)
(15) निर्देशन एवं परामर्श के विस्तृत कार्यक्रम का संगठन करना (Organising a comprehensive programme of guidance and counselling)