किसी भी समाज के लिए शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्धारण करने में दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व वैज्ञानिक विचारधाराओं, सामाजिक मूल्यों, विश्वासों एवं परम्पराओं व राजनीतिक विचारधारा आदि कारकों की महती भूमिका होती है। उदाहरणार्थ दार्शनिक विचारधारा के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण समाज के उद्देश्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए। मनोवैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार पाठ्यक्रम के निर्माण के समय सबसे अधिक बल बालकों की रुचि, रुझान व योग्यता पर दिया जाना चाहिए, वैज्ञानिक आधार पर संगठित पाठ्यक्रम के निर्माण की वैज्ञानिक प्रकृति के विकास पर बल दिया जाना चाहिए। भारत एक जनतन्त्र राज्य होने के कारण पाठ्यक्रम के निर्धारण में जनतन्त्रीय आदर्शों का समावेश किया जाना प्रायः अपेक्षित होता है अतः पाठ्यक्रम निर्माण के सम्बन्ध में जो प्रमुख सिद्धान्त भारत के विद्यालयों में अपनाये जायें, वे जनतन्त्रीय भावना के आधार पर होने चाहिए। इसके साथ ही आज विज्ञान की तीव्र गति व ज्ञान के विस्फोट तथा द्रुतगति से होने वाले नवीन आविष्कारों को देखते हुए यह अपेक्षित है कि विज्ञान तथा वैज्ञानिक प्रवृत्ति को विकसित करने वाले विषयों एवं क्रियाओं का समावेश आज के पाठ्यक्रम से एक अनिवार्य शर्त होनी चाहिए क्योंकि मानव के भौतिक जीवन के लिए क्या उपयोगी है तथा क्या नहीं तथा किसी वस्तु को मानव के लिए कैसे उपयोगी बनाया जा सकता है, इन प्रश्नों का समाधान विज्ञान ही कर सकता है। अतः इन दार्शनिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा वैज्ञानिक प्रवृत्तियों के महत्व के आधार पर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम निर्माण के प्रमुख सिद्धान्तों को निम्नवत प्रस्तुत किया जा सकता है-
Table of Contents
मानव जाति के अनुभवों का सिद्धान्त (Principle of Human Experience)
इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम में ऐसी क्रियाओं, वस्तुओं, समस्याओं को सम्मिलित किया जाना चाहिए जो मानव के अनुभवों से प्राप्त हुई हों। अर्थात् मानव जाति के अनुभवों का ज्ञान कराने वाली क्रियाएं पाठ्यक्रम में सम्मिलित की जानी चाहिए। हेराल्ड स्पीयर्स के शब्दों में “पाठ्यक्रम पुरानी पीढ़ी के द्वारा नई पीढ़ी के लिए नियोजित क्रियाओं तथा अनुभवों की शृंखला है जिससे वे समाज के आदर्श सदस्य बन सकें।”
The curriculum is the series of activities and experiences which older generation plan for younger generation. So that they becomes on ideal member of society. – Harold Spears
जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Relationship with Life)
पाठ्यक्रम में जीवन से सम्बन्धित विभिन्न सम्प्रत्यय (Concepts) आदि होने चाहिए, जो बालक को उसके जीवन में आने वाली समस्याओं को सुलझाने में मदद करें। मुदालियर आयोग ने लिखा भी है कि विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम बन जाता है जो छात्रों के जीवन के हर पहलू को स्पर्श करता है एवं संतुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता करता है।
व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)
मनोविज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि कोई दो बालक एक से नहीं होते हैं। अतः पाठ्यक्रम का निर्धारण व्यक्तिगत भेदों पर होना चाहिए। पाठ्यक्रम द्वारा बालक के विशेष व्यक्तित्व का विकास होना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भी इस सम्बन्ध में अपना विचार व्यक्त किया है। आयोग के अनुसार, “व्यक्तिगत भिन्नताओं की दृष्टि से तथा व्यक्तिगत आवश्यकताओं एवं रुचियों के अनुकूलन के लिए पाठ्यचर्या में पर्याप्त विविधता एवं लचीलापन होना चाहिए।”
“There should be enough of variety and elasticity in the curriculum to allow for individual differences and adaptation to individual needs and interests.” –Secondary Education Commission Report
बाल केन्द्रियता का सिद्धान्त (Principle of Child-Centeredness)
आज शिक्षा बाल केन्द्रित है। अतः पाठ्यक्रम भी बाल केन्द्रित ही होना चाहिए। तब ही वह उपयोगी सिद्ध हो सकेगा। बालक की अपनी रुचि, योग्यताएं, इच्छाएं, आवश्यकतायें होती है, उनको केन्द्र मानकर बनाया गया पाठ्यक्रम ही बालक के लिए सर्वोत्तम होगा। उसमें बालक के जीवन से सम्बन्धित सभी पक्षों व समस्याओं को स्थान मिल सकेगा। बालक के स्तर को ध्यान रखना चाहिए।
क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of Activity)
पाठ्यक्रम को क्रियाशीलता के सिद्धान्त पर आधारित होना चाहिए। इससे बालकों को पाठ्यवस्तु शुष्क व नीरस नहीं लगती है तथा वे अध्ययन में आनन्द की अनुभूति महसूस करते हैं। उनको यान्त्रिक रूप से गणित के तथ्यों, सिद्धान्तों तथा क्रियाओं को रटना नहीं पड़ता है। इससे बालक शारीरिक व मानसिक रूप से क्रियाशील रहते हैं जिससे वे अधिक अच्छी प्रकार से गणित को समझते हैं।
रचनात्मकता का सिद्धान्त (Principle of Creativity)
इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम में उन विषयों व पाठ्यसामग्री को समुचित स्थान दिया जाना चाहिए जो बालकों में सृजनशील रचनात्मकता को पल्लवित कर सकें।
इस सिद्धान्त के महत्व के सम्बन्ध में रेमाण्ट (Raymont) ने लिखा है- “जो पाठ्यचर्या, वर्तमान एवं भविष्य की आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त हैं, उसमें निश्चित रूप से रचनात्मक विषयों के प्रति निश्चित सुझाव होना चाहिए।”
रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interests)
पाठ्यक्रम निर्माण में बालक की रुचि का भी ध्यान रखना चाहिए। बालक किस प्रकार की समस्याओं में रुचि लेता है, उन्हीं को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। अतः बालकों की रुचि का ध्यान रखना जरुरी होता है।
लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of Flexibility)
माध्यमिक शिक्षा आयोग का कथन है- “पाठ्यक्रम में काफी विविधता और लचीलापन होना चाहिए, जिससे कि वैयक्तिक विभिन्नताओं और वैयक्तिक आवश्यकताओं एवं रुचियों का अनुकूलन किया जा सके।” पाठ्यक्रम में परिस्थिति, काल, विचार आदि के अनुरुप समय-समय पर परिवर्तन होते रहने चाहिए। बालकों की आवश्यकता, दर्शन, मनोविज्ञान के अनुसार संशोधन होना चाहिए। राधाकृष्णन आयोग ने भी लिखा है कि “पाठ्यक्रम सभी समयों के लिए नहीं वरन किसी एक समय के लिए बनाया जाता है। वैदिक समय में जो पाठ्यक्रम जीवन्त था उसे यथावत 20वीं शताब्दी में लागू नहीं किया जा सकता है।”
अग्रदर्शिता का सिद्धान्त (Principle of Forward Looking)
यद्यपि पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं का समावेश करना चाहिए, जो बालक के वर्तमान जीवन से सम्बन्ध रखते हों, किन्तु पाठ्यक्रम को बालक को भावी जीवन के सफल जीवन यापन के लिए तैयार करना होता है, इसलिए पाठ्यक्रम को अग्रदर्शी होना चाहिए। इस सम्बन्ध में रायबर्न (Ryburns) का कथन इस प्रकार है- “बालक जो कुछ विद्यालय से सीखता है, उसके द्वारा उसमें ऐसी योग्यता आनी चाहिए कि वह जीवन की परिस्थितियों से अनुकूलन कर सके तथा आवश्यकता पड़ने पर परिस्थितियों में परिवर्तन ला सके।”
सभ्यता व संस्कृति का सिद्धान्त (Principle of Culture and Civilization)
पाठ्यक्रम के अन्तर्गत भारतीय समाज की सभ्यता व संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न प्रकरणों को सम्मिलित किया जाना चाहिए जिसमें छात्रगण अपनी सभ्यता व संस्कृति से परिचित हो सके।
नैतिकता का सिद्धान्त (Principle of Morality)
पाठ्यक्रम का स्वरुप नैतिक आचरण व आदर्शों के विकास में सहायक होना चाहिए। अतः पाठ्यक्रम में सम्मिलित की जाने वाली विषयवस्तु, विषय व पुस्तकें आदि का चयन इस प्रकार से करना चाहिए कि यह बालकों को उत्तम नैतिक आचरण व आदेशों की प्राप्ति में सहायता कर सकें।
निष्ठा का सिद्धान्त (Principle of Loyalties)
पाठ्यक्रम ऐसा हो कि बच्चे के हृदय में परिवार, स्कूल, नगर, प्रान्त, देश तथा संसार के प्रति सच्ची निष्ठा उत्पन्न हो। बच्चे को यह जानने में समर्थ बनाये कि संसार की असमानता में भी कहीं-न-कहीं समानता है।
स्वस्थ आचरण के आदर्शों का सिद्धान्त (Principles of Achievement of Wholesome Behaviour Patterns)
पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं, वस्तुओं तथा विषयों को स्थान मिलना चाहिये जिनके द्वारा बालक दूसरों के साथ प्रशंसनीय व्यवहार करना सीख जायें। क्रो और क्रो महोदय का कथन है- “पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार से किया जाना चाहिये, जिसे वह बालकों को उत्तम आचरण के आदर्शों की प्राप्ति में सहायता दे सके।”
जनतन्त्रीय भावना का सिद्धान्त (Principle of Democratic Spirit)
प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था में पाठ्यक्रम को अपने छात्रों में जनतन्त्रीय भावना का विकास करने में सक्षम होना चाहिए। जनतन्त्रीय भावना व दृष्टिकोण के विकास से अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति नागरिकों को सचेत करके ही जनतन्त्रीय शासन व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सकता है।
सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त (Principle of All Round Development)
पाठ्यक्रम बालक के सर्वांगीण विकास करने में सहायक होना चाहिए। पाठ्यक्रम बालक के व्यक्तित्व के सभी पक्षों, शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक का विकास करने में सक्षम होना चाहिए।
विकास की सतत् प्रक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Continual Process of Evolution)
किसी भी पाठ्यक्रम का सदैव के लिए निर्माण नहीं किया जा सकता है। उसमें समय के साथ परिवर्तन किये जाने आवश्यक हैं। क्रो व क्रो (Crow and Crow) का कथन है- “वैज्ञानिक प्रगति, नवीन व्यावसायिक अवसर, राष्ट्रों के अधिक विस्तृत अन्तर्सम्बन्ध, प्रगतिशील आदर्श तथा आकांक्षाएँ- यह माँग प्रस्तुत करती हैं कि शिक्षा के सिद्धान्त और व्यवहार को ज्ञान, कुशलता और दृष्टिकोण पर दिये जाने वाले विभिन्न प्रकार के अनुकूल बनाया जाए।”
सामाजिक पक्ष का सिद्धान्त (Principle of Social Concerns)
पाठ्यक्रम को निर्धारित करनें में सामाजिक मूल्यों, अपेक्षाओं, परम्पराओं आदि का ध्यान रखना अपेक्षित हैं। आज का नागरिक उत्पादक एवं उपभोक्ता दोनों ही है। उसे कुशल नागरिक बनाने के लिए उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना आवश्यक है। छात्रों की भावी व्यावसायिक सफलता के लिए भी विभिन्न विषयों का समुचित ज्ञान जरुरी है। समाज के भावी नागरिकों में तर्कपूर्ण चितंन एवं सूक्ष्मतापूर्वक अभिव्यक्ति करने में पाठ्यक्रम को सक्षम होना चाहिए।
परिपक्वता का सिद्धान्त (Principle of Maturity)
पाठ्यक्रम बच्चों के मानसिक स्तर तथा उनके उपक्रम के अनुसार होना चाहिए। प्रारम्भिक शैशव काल में विस्मय तथा कल्पना की प्रधानता होती है। अतः इस अवस्था में बच्चों को जो विषय पढ़ाये जायें, उनमें भी विस्मय तथा कल्पना की मात्रा होनी चाहिए। इससे अगली अवस्था में वे रचनात्मक कार्य में अधिक रुचि रखते हैं। अतः उनका पाठ्यक्रम रचनात्मक समस्याओं से समन्वित होना चाहिए। माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक अवस्था, साहस, खोज तथा नवीन तथ्यों को जानने की अवस्था है, तद्नुसार, पाठ्यक्रम में भी खोज सम्बन्धी विषय होने चाहिए तथा जो कुछ भी उन्हें पढ़ाया जाये वह उनके बौद्धिक स्तर और ग्राह्य बुद्धि से परे की चीज न हो।
पूर्णता का सिद्धान्त (Principle of Wholeness)
पाठ्यक्रम निर्माण के समय मानवजाति के अनुभवों की परिपूर्णता का ध्यान रखना भी अत्यन्त जरुरी होता है। छात्रों से द्वारा सैद्धान्तिक विषयों के अध्ययन के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों में अर्जित अनुभवों के संयोजन पर भी ध्यान देना जरूरी है। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यचर्या का अर्थ केवल सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है, बल्कि इसमें अनुभवों की सम्पूर्णता निहित होती है।”
“Curriculum does not mean only the academic subjects but it includes the totality of experiences.” –Secondary Education Commission Report
उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility)
पाठ्यक्रम में उन बातों पर विशेष बल देना चाहिए जो हमारे दैनिक जीवन में उपयोगी हों। शिक्षा बालकों की मानसिक शक्तियों का विकास करके उन्हें जीवन में परिस्थितियों एवं चुनौतियों का सफलता के साथ सामना करने में सक्षम बनाती हैं। इसलिए पाठ्यक्रम में उपयोगिता का सिद्धान्त एक महत्वपूर्ण दिशा प्रदान करता है। रोजगार, स्वास्थ्य, व्यापार, बैंक, बीमा, भूगोल, अर्थ व्यवस्था, उत्पादन, सांख्यिकी, लेखाचित्र आदि ऐसे अनेक पक्ष है जिनमें विभिन्न विषयों के ज्ञान का काफी उपयोग होता है।
पर्याप्त समय की व्यवस्था का सिद्धान्त (Principle of Adequate Time Management)
पाठ्यक्रम में पर्याप्त समय की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसा न हो कि, पाठ्यक्रम में इतनी अधिक विषय वस्तु हो कि शिक्षा सत्र में उसे बालकों द्वारा समझना कठिन हो। इसलिए पाठ्यक्रम की विभिन्न इकाइयों के लिए पर्याप्त समय की व्यवस्था होनी चाहिए।
अवकाश के लिए प्रशिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Training for Leisure)
किन्डरसन (1967) ने संतुलित व्यक्तित्व के लिए अवकाश का सदुपयोग करना आवश्यक बताया। विभिन्न विषयों का ज्ञान अवकाश के सदुपयोग में सहायक सिद्ध हो सकता है। विभिन्न प्रकार के रोचक वृत्तान्त सामान्य जानकारी, आदि इस कार्य को कर सकते है। अतः पाठ्यक्रम में कुछ भाग अथवा विषयवस्तु ऐसी अवश्य होना चाहिए जिसके माध्यम से अवकाश का सदुपयोग किया जा सकें। माध्यमिक शिक्षा आयोग का कथन है- “पाठ्यक्रम इस प्रकार नियोजित किया जाना चाहिए कि वह छात्रों को न केवल कार्य के लिए, वरन् अवकाश के लिए भी प्रशिक्षित करे।”
स्थानीय आवश्यकताओं का सिद्धान्त (Principle of Local Needs)
पाठ्यक्रम को स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होना चाहिए। इसके लिए उस स्थानीय विशेष के उद्योग धन्धों, व्यापार आदि से सम्बन्धित विषय सामग्री पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। कृषि गाँवों का प्रमुख व्यवसाय है, इसलिए गाँवों के विद्यालयों में कृषि सम्बन्धित प्रकरणों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना चाहिए।
निश्चितता का सिद्धान्त (Principle of Definiteness)
निश्चितता का सिद्धान्त एक ऐसा सिद्धान्त है जो प्रत्येक विषय के पाठ्यक्रम निर्माण के लिए आवश्यक है। इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक विषय का पाठ्यक्रम निश्चित हो अर्थात् पाठ्यक्रम को देखकर सभी एक ही अर्थ लगाये। पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये सम्प्रत्यय (Concepts), परिभाषाएँ (Definition), सिद्धान्त (Principles), समस्याएँ (Problems) आदि स्वस्पष्ट (Pin-Pointed) होने चाहिए।
समग्रता का सिद्धान्त (Principle of Integration)
पाठ्यक्रम निर्माण में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी विषय का सहसम्बन्ध सभी अन्य विषयों से होना चाहिए। इससे बालक की रुचि जाग्रत होती है। अतः गणित, भूगोल, विज्ञान, ड्राइंग, इतिहास आदि सभी विषयों को परस्पर सम्बन्धित करके पढ़ाना अच्छा है। साथ ही साथ विभिन्न विषयों की विभिन्न शाखाओं एवं स्तरों में आपस में सहसम्बन्ध होना चाहिए। इसी के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रम बनाना चाहिए।
शिक्षण उद्देश्यों का सिद्धान्त (Principle of Educational Objectives)
प्रत्येक कक्षा में शिक्षण के कुछ सामान्य एवं कुछ विशिष्ट उद्देश्य होते हैं। पाठ्यक्रम के आधार पर ही शिक्षा देकर इन उद्देश्यों की प्राप्ति करनी होती हैं। अतः पाठ्यक्रम रचना के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसके द्वारा शिक्षण के सामान्य व विशिष्ट, दोनों प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति हो जाये।
पाठ्यक्रम का लंम्बरूप तथा समानान्तर दृष्टि से समन्वय (Vertical and Horizontal Articulation)
एक ओर तो पाठ्यक्रम का आधार पिछले वर्ष का किया गया काम होना चाहिए तथा दूसरी ओर वह आने वाले वर्ष के कार्य के लिए आधार बन सकने के योग्य होना चाहिए। इसलिए यह नितान्त अनिवार्य है कि समस्त पाठ्यक्रम का समन्वय किया जाये।
कोर या सामान्य विषयों का सिद्धान्त (Principle of Core or Common Subjects)
ज्ञान के कई निश्चित विकसित रूप हैं जिनका थोड़ा बहुत ज्ञान तो हर विद्यार्थी को होना ही चाहिए। उच्चतम माध्यमिक शिक्षा में जहाँ कि विभिन्न पाठ्यक्रम जुटाए जाते हैं, तो इस शिक्षा की और भी अधिक आवश्यकता हो जाती है। यह विषय प्रत्येक विद्यार्थी के लिए चाहे वह किसी वर्ग का हो, अनिवार्य होने चाहिए तथा इन्हें सामान्य विषयों के रूप में समझना चाहिए।
विषयों के पारस्परिक सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Inter-Relationship of Subjects)
पाठ्यक्रम को अनेक असम्बन्धित विषयों में खण्डित नहीं करना चाहिए। ऐसा पाठ्यक्रम प्रभावहीन हो जाता है। सभी विषयों का एक-दूसरे से सम्बन्ध होना चाहिए और सभी का जीवन से सम्बन्ध होना चाहिए।
अध्यापक से परामर्श का सिद्धान्त (Principle of Consultation with Teachers)
पाठ्यक्रम को कार्य रूप में परिणत अध्यापक ही करता है। उसे इसे पूरा करने में क्या कठिनाइयाँ, रुकावटें एवं परेशानियाँ आती है, इसका आभास पाठ्यक्रम निर्माताओं को नहीं हो पाता है- क्योंकि वे वास्तविक परिस्थितियों से दूर रहते हैं जिसके कारण उनके द्वारा निर्मित पाठ्यक्रम को अपनाने में शिक्षक असमर्थ रहता है। इसलिए विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम की सफलता एवं उपयोगिता के लिए, पाठ्यक्रम निर्माण में अध्यापकों का सहयोग आवश्यक है।
उच्च शिक्षा आवश्यकताओं की पूर्ति (Principles of Need of Higher Education)
एक कक्षा का पाठ्यक्रम दूसरी कक्षा में जाने के लिए सीढ़ी का कार्य करता है। पिछली कक्षा का ज्ञान अगली कक्षा के लिए आधार बनता है। इसलिए प्राथमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम को माध्यमिक शिक्षा के लिए एवं माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम को उच्च शिक्षा को ग्रहण करने के लिए तैयार करना चाहिए।
मूल्यांकन का सिद्धान्त (Principle of Evaluation)
पाठ्यक्रम निर्माण में मूल्यांकन के सिद्धान्त का भी ध्यान रखना चाहिए। विभिन्न प्रकार की विषय वस्तु के निष्पक्षता पूर्वक मूल्यांकन की व्यवस्था भी पाठ्यक्रम से संभव होनी चाहिए।
विस्तृतता तथा सन्तुलन का सिद्धान्त (Principle of Comprehensiveness and Balance)
पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि जीवन का हर पहलू – आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, व्यावसायिक इत्यादि एक समान महत्व प्राप्त कर सके।
सामुदायिक जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Relationship with Community Life)
पाठ्यक्रम का सामुदायिक जीवन से स्पष्ट सम्बन्ध होना चाहिए। पाठ्यक्रम को इस जीवन को महत्त्वपूर्ण विशेषताओं की व्यवस्था करनी चाहिए और बालकों को इसकी कुछ महत्त्वपूर्ण क्रियाओं के सम्पर्क में लाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि पाठ्यक्रम में उत्पादक कार्य को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह कार्य व्यवस्थित मानव जीवन का आधार है। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम स्थानीय आवश्यकताओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाया जाना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार “पाठ्यक्रम सामुदायिक जीवन से सजीव तथा आंगिक रूप में सम्बन्धित होना चाहिए।”
“The Curriculum must be vitally and organically related to community life.” –Secondary Education Commission Report
खेल तथा कार्य में समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Synthesis between Work and Play)
पाठ्यक्रम तैयार करते समय ज्ञान प्राप्त करने की क्रियाओं को इतना रुचिकर बनाने का प्रयास करना चाहिये कि बालक ज्ञान को खेल समझकर प्रभावशाली ढंग से ग्रहण कर लें। क्रो और क्रो के अनुसार – “जो लोग सीखने की प्रक्रिया को निर्देशित करते है, उनका उद्देश्य यह होना चाहिये कि वे ज्ञानात्मक क्रियाओं की ऐसी योजना बनाये कि खेल के दृष्टिकोण को स्थान प्राप्त हो।”
‘The aim of those who guide the learning process should be so to plan learning activities that the play attitude is introduced.” – Crow and Crow
व्यापक दृष्टिकोण का सिद्धान्त (Principle of Descriptive Attitude)
पाठ्यक्रम संकीर्ण सोच पर आधारित नहीं होना चाहिए बल्कि व्यापक दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए ताकि विद्यार्थियों की सोच संकीर्ण न रहकर व्यापक बन सके। इससे वे नए विषयों के सम्बन्ध में ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। इस प्रकार पाठ्यक्रम को समाज के किसी एक पक्ष तक सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि उसे समाज, राष्ट्र व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक का ज्ञान प्रदान करना चाहिए। इसी प्रकार पाठ्यक्रम यदि व्यापकता के साथ ही आधुनिक दृष्टिकोण पर भी आधारित हो तो छात्रों के लिए अधिक लाभकारी सिद्ध हो सकता है।
सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Correlation)
पाठ्यक्रम को अलग-अलग सम्बन्धहीन टुकड़ों में विभाजित करने से उसका महत्त्व एवं प्रभाव कम हो जाता है। इसके विपरीत पाठ्यक्रम के विषयों में सह-सम्बन्ध स्थापित करने से बालक ज्ञान के समग्र रूप से परिचित हो जाता है। अतः इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये हुए विषय पृथक्-पृथक् ही न हों, अपितु उनका एक दूसरे से सह-सम्बन्ध अवश्य हो।
उपर्युक्त सिद्धान्तों का निष्कर्ष यह है कि पाठ्यचर्या का निर्माण बालकों की आवश्यकताओं, रुचियों, योग्यताओं, विशिष्टताओं एवं विभिन्नताओं की दृष्टि में रखते हुए किया जाना चाहिए जिससे उनके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास हो सके तथा भावी जीवन में वे सफल जीवन-यापन के योग्य बन सकें। इस दृष्टि से विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन ही पाठ्यचर्या है। माध्यमिक शिक्षा आयोग का यह कथन इसकी पुष्टि करता है- “विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यचर्या बन जाती है जो छात्रों के लिए जीवन के सभी पहलुओं से जुड़ी होती है तथा सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता प्रदान करती है।”
“The whole life of the school becomes the curriculum, which can touch the life of the students at all points and help in the evolution of a balanced personality.” –Secondary Education Commission Report

माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त (Principles of curriculum Construction according to Secondary Education Commission)
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने पाठ्यक्रम पर विस्तार से विचार किया है। आयोग ने पाठ्यक्रम के पाँच सिद्धान्त बताये हैं, जिनके आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण होना चाहिए। आयोग के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
बालक के समस्त अनुभवों का समावेश (Inclusion of All Experiences of the Child)
पाठ्यक्रम को बालक के समस्त अनुभवों पर आधारित होना चाहिए। बालक अध्ययन कक्ष, पुस्तकालय अथवा खेल के मैदान आदि में जो कुछ सीखता है, वह सब पाठ्यक्रम के अधीन हो। इस प्रकार विद्यालय का समस्त जीवन पाठ्यक्रम है।
विविधता और लचीलापन (Variety and Elasticity)
पाठ्यक्रम में पर्याप्त विविधता और लचीलापन होना चाहिए। बालकों पर अनेक विषयों को थोपने का प्रयास नहीं होना चाहिए। बालकों में शक्ति, योग्यता एवं रुचि में भिन्नता होती है। यदि पाठ्यक्रम में विविधता होगी तो यह बालकों की रुचियों एवं आवश्यकताओं के अनुकूल हो सकेगा।
सामुदायिक जीवन से सम्बन्ध (Relationship with Community Life)
पाठ्यक्रम को सामुदायिक जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए। यह सम्बन्ध सजीव हों और ऐसा हो जैसे शरीर के एक अंग का शरीर से सम्बन्ध होता है। समुदाय से महत्त्वपूर्ण कार्यों के सम्बन्ध में विद्यार्थी को लाने का प्रयत्न तो करना चाहिए। इस दृष्टि से सृजनात्मक कार्यों को पाठ्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए।
अवकाश का सदुपयोग (Training for Leisure)
पाठ्यक्रम का निर्माण केवल कार्य की शिक्षा के लिए नहीं होना चाहिए वरन् अवकाश के समय का सदुपयोग करने की शिक्षा भी पाठ्यक्रम के द्वारा दी जानी चाहिए।
विषयों का पारस्परिक सम्बन्ध (Inter-Relationship of Subjects)
पाठ्यक्रम को अनेक असंगठित एवं पृथक् विषयों में विभाजित करके इसके शैक्षिक मूल्य को कम कर दिया जाता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। विषयों में यथास्थान अन्तः सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए और एक ही विषय के अन्तर्गत विषय-सामग्री को विस्तृत आधार पर नियोजित किया जाये और जीवन के साथ इसे समन्वित किया जाये।
डॉ० सरयू प्रसाद चौबे एवं डॉ. अखिलेश चौबे ने अपनी पुस्तक “आधुनिक शिक्षा के दार्शनिक और समाजशास्त्रीय सिद्धान्त” (Philosophical and Sociological Principle of Modern Education) में पाठ्यक्रम निर्माण के निम्नलिखित बिंदुओं का उल्लेख किया है-
- मानसिक विनय
- निरीक्षण शक्ति का विकास
- तर्क शक्ति का विकास
- स्मृति शक्ति का विकास
- कल्पना शक्ति का विकास
- मानसिक शक्ति का विकास
- पाठ्यक्रम व्यापक हो
- बालक और समाज की आवश्यकताएँ
- प्रत्येक समाज का अलग आदर्श
- विविध रुचियों का विकास
- ज्ञान-वृद्धि के लिए ज्ञानार्जन
- पाठ्यक्रम संगठन का दायित्व
- सार्वभौमिक महत्व के विषय
- स्कूल की अवधि और छात्र की अवस्थानुसार
- व्यावसायिक शिक्षा
- शिक्षा-संस्थाओं को स्वतंत्रता
- बालक की क्षमता अनुसार पाठ्यक्रम
- अन्य विषयों से परस्पर संबंध
- शिक्षा की अवधि
- पाठ्य-पुस्तकें और सहायक पुस्तकें एवं साज-सज्जा
- पाठ्यक्रम साधन मात्र है
- शारीरिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक विकास
- नागरिकता का गुण
- अवकाश और उसका सदुपयोग
- रचनात्मक शक्ति का विकास
- ज्ञान और अनुभव का विकास
- क्रियाशीलता को सही दिशा
- स्वास्थ्य रक्षा
- धार्मिक शिक्षा
- शारीरिक श्रम का सम्मान
- मातृभाषा आवश्यक
- पाठ्यक्रम और वास्तविक जीवन
- ग्राम तथा नगर के पाठ्यक्रमों में अंतर
- बालक, बालिकाओं के पाठ्यक्रम में भेद
- मनुष्य की तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ- जानना, अनुभव करना और प्रयास करना