शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त
(PSYCHOLOGICAL PRINCIPLES OF TEACHING)
शिक्षा आजकल ‘बाल-केन्द्रित’ शिक्षा का रूप ले चुकी है। ‘बाल केन्द्रित’ शिक्षा का सम्प्रत्यय मनोविज्ञान की देन है, जिसका तात्पर्य है बालकों की योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों, मानसिक स्तरों तथा उनकी आयु आदि के आधार पर शिक्षा प्रदान करना। बालकों के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए मनोवैज्ञानिकों ने प्रभावशाली शिक्षण हेतु अनेक सिद्धान्तों का निर्माण किया है। नीचे कुछ महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त दिए गए हैं जिनके विषय में एक शिक्षक को अवश्य जानना चाहिए-
Table of Contents
अभिप्रेरणा एवं रुचि का सिद्धान्त (Principle of Motivation and Interest)
अभिप्रेरणा तथा रुचि, शिक्षण प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक और छात्र दोनों ही अभिप्रेरित होकर रुचिपूर्वक कार्य करते हैं। फलस्वरूप अधिगम प्रक्रिया अधिक सजीव तथा प्रभावशाली होती है।
अभ्यास एवं आवृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Repetition and Exercise)
यह सर्वविदित तथ्य है कि यदि अर्जित ज्ञान का अभ्यास एवं पुनरावृत्ति की जाए तो छात्र सरलता से स्मरण रख सकते हैं। अतः शिक्षण प्रक्रिया में पुनरावृत्ति तथा अभ्यास को अवश्य स्थान दिया जाना चाहिए।
तत्परता का सिद्धान्त (Principle of Readiness)
छात्रों को जो कुछ भी पढ़ाया जाए उसके लिए उनमें मानसिक तत्परता अवश्य होनी चाहिए। मानसिक तत्परता के अभाव में छात्र भलीभाँति सीखने में रुचि नहीं लेते। पढ़ाते समय छात्रों की मानसिक परिपक्वता का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए।
परिवर्तन, विश्राम तथा मनोरंजन का सिद्धान्त (Principle of Change, Rest and Recreation)
बोरियत होने पर शिक्षण कार्य पिछड़ने लगता है। अत: शिक्षण में उद्दीपन परिवर्तन, विषय-वस्तु में बदलाव, शिक्षण विधियों में विभिन्नता का प्रावधान होना चाहिए। साथ ही, शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार विश्राम तथा मनोरंजन की भी व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे कि छात्रों के मस्तिष्क को विश्राम मिल सके और फिर से अधिक ताजा होकर आगे के अधिगम के लिए तैयार हो सकें।

प्रतिपुष्टि/पुनर्बलन का सिद्धान्त (Principle of Feedback and Reinforcement)
छात्रों को पुनर्बलन देकर शिक्षण को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। उन्हें उनके अच्छे व्यवहार के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए। उनके द्वारा किए गए कार्यों की प्रगति के विषय में सूचनाएँ दी जानी चाहिए। छात्र ऐसी स्थिति में कार्य जल्दी समझते हैं और दुहराते हैं। उनमें शिक्षक अच्छी आदतों का विकास कर सकता है। इस प्रकार प्रतिपुष्टि एवं पुनर्बलन का प्रयोग करके शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जाता है।
परिवर्तन, विश्राम व मनोरंजन का सिद्धान्त (Principle of Change, Rest and Recreation)
शिक्षण कार्य यदि ज्यादा लम्बा हो जाता है तो छात्रों को थकान होने लगती है, उनकी रुचि पढ़ने में कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में यदि विषय-वस्तु, शिक्षण विधियों या शिक्षण वातावरण में परिवर्तन लाया जाए अथवा छात्रों के विश्राम, मनोरंजन की व्यवस्था की जाए तो शिक्षण प्रभावशाली हो जाता है।
ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Imparting Training to Senses)
प्रभावशाली शिक्षण के लिए आवश्यक है कि ज्ञानेन्द्रियों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए। अधिगम के विभिन्न पक्षों के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमताएँ चाहिए, जो ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही प्राप्त हो सकती हैं। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शिक्षा प्रभावशाली अधिगम की कुंजी है। अत: शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों को पढ़ाते समय ज्ञानेन्द्रियों को आवश्यकतानुसार शिक्षण का आधार मानकर पढ़ाए।
स्व-अधिगम सिद्धान्त (Principle of Encouraging Self-Learning)
यदि छात्र स्वयं प्रयास करके सीखते हैं तो उनका सीखना ज्यादा प्रभावशाली होता है। शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों को इस प्रकार निर्देशित करें कि वे स्वयं अधिगम की ओर प्रयास करें जिससे उनमें ज्यादा आत्म-विश्वास तथा आत्म-निर्भरता विकसित हो। स्व-अधिगम की प्रवृत्ति उचित परिस्थितियों तथा प्रशिक्षण द्वारा डाली जानी चाहिए।
समूह गति शास्त्र का सिद्धान्त (Principle of Group Dynamics)
मनोविज्ञान विश्वास करता है कि छात्र समूह में ज्यादा अच्छा सीखते हैं। अत: एक शिक्षक को समूह-गति-शास्त्र का प्रभावशाली ढंग से उपयोग करना चाहिए।
स्व-अभिव्यक्ति तथा सृजनात्मकता का सिद्धान्त (Principle of Creativity and Self-Expression)
वे छात्र जो कक्षा में नये विचार, नयी खोजें, मौलिकता युक्त क्रियाएँ प्रस्तुत करते हैं, उन्हें शिक्षक द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तभी वे बड़े होकर नवीन आविष्कार तथा नवीन खोजें कर सकने में समर्थ हो सकेंगे। स्व-अभिव्यक्ति इसके लिए पहली सीढ़ी है।
सहानुभूति तथा सहयोग का सिद्धान्त (Principle of Sympathy and Cooperation)
एक अच्छे शिक्षक के साथ छात्रों का बड़ा आत्मिक (Cordial) सम्बन्ध होता है। शिक्षक और छात्र परस्पर एक-दूसरे को समझते हैं। शिक्षक छात्रों के साथ सहानुभूति रखते हुए उनकी मुश्किलों को सरल बनाकर सहयोग देता है, छात्रों की अनुभूतियों और विचारों को समझता है तो शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया अधिक सक्रिय, सरल तथा प्रभावशाली बन जाती है।
उद्दीपन का सिद्धान्त (Principle of Stimulation)
एक अच्छा शिक्षक अपनी कक्षा में छात्रों की अनुक्रियाओं के लिए समुचित उद्दीपनों की व्यवस्था करता है, जिससे छात्रों की रुचि शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बनी रह सके। रायबर्न का यह कथन इस सन्दर्भ में सत्य है-
“The guidance of the teacher is mainly a matter of giving the right kind of stimulus to help to learn the right things in the right way.”
उपचारात्मक शिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Remedial Teaching)
एक अच्छा शिक्षक अपने छात्रों की योग्यताओं और क्षमताओं का समुचित ज्ञान रखता है। उसे पता रहता है कि कक्षा में कौन से छात्र प्रतिभाशाली हैं और कौन से पिछड़े हुए हैं। वह उनकी उसी प्रकार से व्यवस्था करता है।
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