अधिगम/सीखने का सिद्धान्त (Theories of Learning)

हिलगार्ड (Hilgard) ने अपनी पुस्तक ‘थ्योरीज ऑफ लर्निग’ (Theories of Learning) में दस से अधिक अधिगम/सीखने के सिद्धान्तों का वर्णन किया है। इनके सम्बन्ध में यह निश्चय करना कठिन है कि कौन-सा सिद्धान्त ठीक और कौन-सा गलत है। फ्रेंडसन (Frandsen) ने ठीक ही लिखा है-“सिद्धान्त न तो ठीक होते हैं और न गलत। वे केवल कुछ विशेष कार्यों के लिए कम या अधिक लाभप्रद होते हैं।” इस कथन को ध्यान में रखकर हम सीखने के अधिक लाभप्रद सिद्धान्तों का वर्णन कर रहे हैं। यथा-

1. थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त (Thorndike’s Theory of Learning)
2. सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Conditioned Response Theory)
3. प्रबलन का सिद्धान्त (Reinforcement’s Theory)
4. स्किनर का सीखने का सिद्धान्त (Skinner’s Theory of Learning)
5. सूझ का सिद्धान्त (Insight’s Theory)

थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त (THORNDIKE’S THEORY OF LEARNING)

ई. एल. थार्नडाइक (E. L. Thorndike) ने 1913 में प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology) में सीखने का एक नवीन सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है; यथा-

  1. थार्नडाइक का सम्बन्धवाद (Thorndike’s Connectionism)
  2. सम्बन्धवाद का सिद्धान्त (Connectionist’s Theory)
  3. उद्दीपन-प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Stimulus-Response (S-R) Theory)
  4. सीखने का सम्बन्ध सिद्धान्त (Bond Theory of Learning)
  5. प्रयत्न एवं भूल का सिद्धान्त (Trial and Error Learning)

1. सिद्धान्त का अर्थ

जब व्यक्ति कोई कार्य सीखता है, तब उसके सामने एक विशेष स्थिति या उद्दीपक (Stimulus) होता है, जो उसे एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया (Response) करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट प्रतिक्रिया से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, जिसे ‘उद्दीपक प्रतिक्रिया सम्बन्ध’ (S-R Bond) द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। इस सम्बन्ध के फलस्वरूप, जब व्यक्ति भविष्य में उसी उद्दीपक का अनुभव करता है, तब वह उससे सम्बन्धित उसी प्रकार की प्रतिक्रिया या व्यवहार करता है।

2. थार्नडाइक द्वारा सिद्धान्त की व्याख्या

थार्नडाइक ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए लिखा है-“सीखना सम्बन्ध स्थापित करना है। सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य मनुष्य का मस्तिष्क करता है।”
“Learning is connecting. The mind is man’s connection system.” -Thorndike : Human Learning

थार्नडाइक की धारणा है—सीखने की प्रक्रिया में शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का विभिन्न मात्राओं में सम्बन्ध होना आवश्यक है। यह सम्बन्ध विशिष्ट उद्दीपकों और विशिष्ट प्रतिक्रियाओं के कारण स्नायुमण्डल (Nervous System) में स्थापित होता है। इस सम्बन्ध की स्थापना सीखने की आधारभूत शर्त है। यह सम्बन्ध अनेक प्रकार का हो सकता है। इस पर प्रकाश डालते हुए बिगी एवं हण्ट (Bigge and Hunt) ने लिखा है-“सीखने की प्रक्रिया में किसी मानसिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से, शारीरिक क्रिया का मानसिक क्रिया से, मानसिक क्रिया का मानसिक क्रिया से या शारीरिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से सम्बन्ध होना आवश्यक है।”

3. थार्नडाइक का प्रयोग

थार्नडाइक ने अपने सीखने के सिद्धान्त की परीक्षा करने के लिए अनेक पशुओं और बिल्लियों पर प्रयोग किये। उसने अपने एक प्रयोग में एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बन्द कर दिया। पिंजड़े का दरवाजा एक खटके के दबने से खुलता था। उसके बाहर भोजन रख दिया। बिल्ली के लिए भोजन उद्दीपक था। उद्दीपक के कारण उसमें प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। उसने अनेक प्रकार से बाहर निकलने का प्रयत्न किया। एक बार संयोग से उसका पंजा खटके पर पड़ गया। फलस्वरूप, वह दब गया और दरवाजा खुल गया। थार्नडाइक ने इस प्रयोग को अनेक बार दोहराया। अन्त में, एक समय ऐसा आ गया, जब बिल्ली किसी प्रकार की भूल न करके खटके को दबाकर पिंजड़े का दरवाजा खोलने लगी। इस प्रकार उद्दीपक और प्रतिक्रिया में सम्बन्ध (R-S Bond) स्थापित हो गया।

थार्नडाइक (Thorndike) के सम्बन्धवाद के सिद्धान्त ने सीखने के क्षेत्र में प्रयास तथा त्रुटि (Trial and Error) को विशेष महत्त्व दिया है। प्रयास एवं त्रुटि के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जब हम किसी काम को करने में त्रुटि या भूल करते हैं और बार-बार प्रयास करके त्रुटियों की संख्या कम या समाप्त की जाती है तो यह स्थिति प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखना कहलाती है।

वुडवर्थ (Woodworth) ने लिखा है-“प्रयास एवं त्रुटि में किसी कार्य को करने के लिए अनेक प्रयल करने पड़ते हैं, जिनमें अधिकांश गलत होते हैं।”

4. थार्नडाइक का प्रयोग (Experiment by Thorndike)

प्रयास तथा त्रुटि के सिद्धान्त के प्रवर्तक थार्नडाइक ने एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बन्द करके यह प्रयोग किया। भूखी बिल्ली पिंजड़े के बाहर रखा मछली का टुकड़ा प्राप्त करने हेतु पिंजड़े से बाहर आने के अनेक त्रुटिपूर्ण प्रयास करती रही। अन्ततः वह पिंजड़ा खोलना सीख गई। बिल्ली के समान बालक भी चलना, जूते पहनना, चम्मच खाना, आदि क्रियाएँ सीखते हैं । वयस्क लोग भी ड्राइविंग, टेनिस, क्रिकेट, आदि खेलना, टाई की गाँठ बाँधना इसी सिद्धान्त के अनुसार सीखते हैं।

5. सिद्धान्त का शिक्षा में महत्त्व (Importance in Education of Theory)

शिक्षा में प्रयास तथा त्रुटि का सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है। इस सिद्धान्त का महत्त्व इस प्रकार है-

(i) बड़े तथा मन्द बुद्धि बालकों के लिए यह सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है।
(ii) इस सिद्धान्त से बालकों में धैर्य तथा परिश्रम के गुणों का विकास होता है।
(iii) बालकों में परिश्रम के प्रति आशा का संचार करता है
(iv) इस सिद्धान्त से कार्य की धारणाएँ (Concepts) स्पष्ट हो जाती हैं।
(v) अनुभवों का लाभ उठाने की क्षमता का विकास होता है।
(vi) क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, “गणित, विज्ञान तथा समाजशास्त्र जैसे गम्भीर चिन्तन विषयों को सीखने में यह सिद्धान्त उपयोगी है।”
(vii) गैरिसन व अन्य (Garrison and Others) के अनुसार, “इस सिद्धान्त का सीखने की प्रक्रिया में विशेष महत्त्व है। समस्या समाधान पर यह बल देता है।”
(viii) कोलेसनिक (Kolesnik) के शब्दों में, “लिखना, पढ़ना, गणित सिखाने में यह सिद्धान्त उपयोगी है। बीसवीं सदी में अमरीकी शिक्षा पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है।”

6. सिद्धान्त के गुण व विशेषताएँ

‘सम्बन्धवाद’ या ‘उद्दीपन-प्रतिक्रिया’ सिद्धान्त की विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
(i) यह सिद्धान्त, उद्दीपक और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध को सीखने का आधारभूत कारण मानता है।
(ii) यह सिद्धान्त, शिक्षण में प्रेरणा को विशेष महत्त्व देता है।
(iii) यह सिद्धान्त, इस बात पर बल देता है कि सीखना एक असम्बद्ध प्रक्रिया नहीं है, वरन् प्रत्यक्ष, गत्यात्मक, ज्ञानात्मक और भावात्मक अंगों का पुंज है।
(iv) इस सिद्धान्त के अनुसार, जो व्यक्ति उद्दीपकों और प्रतिक्रियाओं में जितने अधिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, उतना ही अधिक बुद्धिमान वह हो जाता है।
(v) इस सिद्धान्त के आधार पर थोर्नडाइक ने सीखने के तीन मुख्य नियम प्रतिपादित किये तत्परता का नियम, अभ्यास का नियम, प्रभाव या परिणाम का नियम।

7. सिद्धान्त के दोष 

थार्नडाइक के इस सिद्धान्त में निम्नलिखित स्पष्ट दोष हैं-

(i) यह सिद्धान्त, व्यर्थ के प्रयत्नों पर बल देता है, जिनके कारण सीखने में बहुत समय नष्ट होता है।
(ii) यह सिद्धान्त, किसी क्रिया को सीखने की विधि को बताता है, पर उसे सीखने का कारण नहीं बताता है।
(iii) यह सिद्धान्त, सीखने की क्रिया को यान्त्रिक बना देता है और मानव के विवेक, चिन्तन, आदि गुणों की अवहेलना करता है।
(iv) जब एक कार्य को एक विशिष्ट विधि से एक ही बार में सीखा जा सकता है, तब उसका बार-बार प्रयास करके सीखना व्यर्थ है।

8. निष्कर्ष

इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में स्किनर (Skinner) ने लिखा है-“लगभग आधी शताब्दी तक सम्बन्धवाद का विद्यालय के अभ्यास में प्रमुख स्थान था। पर अब इसे अन्य सिद्धान्तों की रोशनी में सुधारा जा रहा है।”

सम्बद्ध-प्रतिक्रिया सिद्धान्त (CONDITIONED RESPONSE THEORY)

सम्बद्ध-प्रतिक्रिया सिद्धान्त का प्रतिपादन रूसी शरीरशास्त्री आई. पी. पावलव (I. P. Pavlov) ने किया था। इस मत के अनुसार सीखना एक अनुकूलित अनुक्रिया है। बर्नार्ड के शब्दों में- “अनुकूलित अनुक्रिया उत्तेजना की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है जिसमें उत्तेजना पहले किसी विशेष अनुक्रिया के साथ लगी रहती है और अन्त में वह किसी व्यवहार का कारण बन जाती है जो पहले मात्र रूप से साथ लगी हुई थी।”

1. सिद्धान्त का अर्थ

भोजन देखकर कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगती है। यहाँ भोजन एक स्वाभाविक उत्तेजक या उद्दीपक (Stimulus) है और कुत्ते के मुँह से लार टपकना एक स्वाभाविक क्रिया या सहज-प्रक्रिया (Reflex Action) है। पर यदि किसी अस्वाभाविक उत्तेजक के कारण भी कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगे तो, इसे ‘सम्बद्ध-सहज-क्रिया’ या ‘सम्बद्ध-प्रतिक्रिया’ (Conditioned Reflex or Response) कहते हैं। दूसरे शब्दों में, अस्वाभाविक उत्तेजक के प्रति स्वाभाविक उत्तेजक के समान होने वाली प्रतिक्रिया को सम्बद्ध सहज-क्रिया कहते हैं। इसके अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम लैंडल के शब्दों में कह सकते हैं – “सम्बद्ध सहज-क्रिया में कार्य के प्रति स्वाभाविक उत्तेजक के बजाए एक प्रभावहीन उत्तेजक होता है, जो स्वाभाविक उत्तेजक से सम्बन्धित किये जाने के कारण प्रभावपूर्ण हो जाता है। “

2. पावलव का प्रयोग 

क्रिया के सिद्धान्त का सम्बन्ध शरीर विज्ञान से है। इसके मानने वाले विशेष रूप से व्यवहारवादी (Behaviourists) हैं। उनका कहना है कि सीखना एक प्रकार से उद्दीपक और प्रतिक्रिया का सम्बन्ध है। इस विचार को सत्य सिद्ध करने के लिए रूसी मनोवैज्ञानिक पावलव (Pavlov) ने कुत्ते पर एक प्रयोग किया। उसने कुत्ते को भोजन देने से पहले कुछ दिनों तक घण्टी बजाई। उसके बाद उसने भोजन न देकर केवल घण्टी बजाई। तब भी कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगी। इसका कारण यह था कि कुत्ते ने घण्टी बजने से यह सीख लिया था कि उसे भोजन मिलेगा। घण्टी के प्रति कुत्ते की इस प्रतिक्रिया को पावलव ने ‘सम्बद्ध सहज क्रिया’ की संज्ञा दी। कुत्ते के समान बालक और व्यक्ति भी सम्बद्ध सहज क्रिया द्वारा सीखते हैं। पके हुए आमों या मिठाई को देखकर बालकों के मुँह में पानी आ जाता है। उल्टी करना अनेक व्यक्तियों में सहज-क्रिया है, पर अनेक में यह सम्बद्ध सहज-क्रिया भी है। पहाड़ पर बस में यात्रा करते समय कुछ व्यक्ति उल्टी करने लगते हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनको यात्रा प्रारम्भ होने से पहले ही उल्टी होने लगती है। कुछ लोग दूसरों को उल्टी करते हुए देखकर उल्टी करने लगते हैं।

3. सिद्धान्त के गुण या विशेषताएँ

सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त बालकों की शिक्षा में के बहुत सिद्ध हुआ है। इसकी पुष्टि में निम्नांकित तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
(i) यह सिद्धान्त, सीखने की स्वाभाविक विधि बताता है। अत: यह बालकों को शिक्षा देने में सहायता उपयोगी देता है।
(ii) यह सिद्धान्त, बालकों की अनेक क्रियाओं और असामान्य व्यवहार की व्याख्या करता है।
(iii) यह सिद्धान्त, बालकों के समाजीकरण और वातावरण से उनका सामंजस्य स्थापित करने में सहायता देता है।
(iv) इस सिद्धान्त का प्रयोग करके बालकों के भय सम्बन्धी रोगों का उपचार किया जा सकता है।
(v) समाज-मनोविज्ञान के विद्वानों के अनुसार, इस सिद्धान्त का समूह के निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
(vi) क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, “इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों में अच्छे व्यवहार और उत्तम अनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है।”
(vii) क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, “यह सिद्धान्त उन विषयों की शिक्षा के लिए बहुत उपयोगी है, जिसमें चिन्तन की आवश्यकता नहीं है, जैसे—सुलेख और अक्षर-विन्यास।”
(viii) स्किनर (Skinner A.) के शब्दों में, “सम्बद्ध सहज-क्रिया आधारभूत सिद्धान्त है, जिस पर सीखना निर्भर रहता है।”

प्रबलन-सिद्धान्त (REINFORCEMENT THEORY)

‘प्रबलन-सिद्धान्त’ का प्रतिपादन सी. एल. हल (C. L. Hull) नामक अमरीकी मनोवैज्ञानिक ने 1915 में अपनी पुस्तक ‘Principles of Behaviour‘ में किया था। उसका यह सिद्धान्त थार्नडाइक (Thorndike) और पावलव (Pavlov) के सिद्धान्तों पर आधारित है।

1. सिद्धान्त का अर्थ

हल (Hull) के सीखने के सिद्धान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्टोन्स (Stones) ने लिखा है-सीखने का आधार, आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है। यदि कोई कार्य, पशु या मानव की किसी आवश्यकता को पूर्ण करता है, तो वह उसको सीख लेता है। ‘आवश्यकता की पूर्ति’ (Need Satisfaction) के लिए हल (Hull) ने ‘आवश्यकता की कमी’ (Need Reduction) का प्रयोग किया है।
‘आवश्यकता की पूर्ति’ किस प्रकार सीखने की प्रक्रिया का आधार है, इसको स्टोन्स (Stones) ने एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। एक भूखा पशु पिंजड़े में बन्द है। पिंजड़े के बाहर भोजन रखा है। पिंजड़ा खटके को दबाने से खुलता है। अपनी भूख को सन्तुष्ट करने के लिए पशु क्रियाशील होता है। भोजन उसकी क्रियाशीलता को बलवती बनाता है अर्थात् प्रबलन (Reinforce) करता है। अत: वह पिंजड़े से बाहर निकलने के लिए सभी प्रकार के प्रयास करता है। अपने प्रयासों के फलस्वरूप वह खटके को दबाकर निकलना सीख जाता है। इस प्रकार भोजन की आवश्यकता को सन्तुष्ट करने की प्रक्रिया द्वारा वह पिंजड़े को खोलना सीख जाता है। सीखने का आधार यही है।

हल (Hull) का कथन है-“सीखना आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया के द्वारा होता है।”

“Learning takes place through a process of need reduction.” -Hull, Quoted by Stones

2. सिद्धान्त के गुण तथा विशेषताएँ

हल (Hull) के सीखने के सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

(i) आदर्श व सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त (Ideal and Most Elegant Theory)-स्किनर (Skinner) ने इस सिद्धान्त को वैज्ञानिक होने के कारण आदर्श सिद्धान्त माना है और लिखा है-“अब तक सीखने के जितने भी सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, उनमें यह सर्वश्रेष्ठ है।”

(ii) चालक-न्यूनता सिद्धान्त (Drive Reduction Theory)-स्किनर (Skinner) के अनुसार, “हल का सीखने का सिद्धान्त चालक-न्यूनता का सिद्धान्त है।” (“Hull’s theory of learning is a drive-reduction theory.”)
हल (Hull) का कहना है कि जब प्राण की कोई आवश्यकता पूर्ण नहीं होती है, तब उसमें असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणार्थ-भोजन की आवश्यकता पूर्ण न होने पर प्राणी में तनाव उत्पन्न हो जाता है, उसके फलस्वरूप उसकी दशा असन्तुलित हो जाती है। साथ ही भूख का चालक (Drive) उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील बना देता है। कुछ समय के बाद वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जब उसकी भोजन की आवश्यकता सन्तुष्ट हो जाती है। इसके फलस्वरूप भूख के चालक की शक्ति कम हो जाती है।

(iii) उद्दीपक प्रतिक्रिया सिद्धान्त (S. R. Theory)-स्किनर (Skinner) के अनुसार, “हल का सिद्धान्त, उद्दीपक-प्रतिक्रिया का सिद्धान्त है।” (“Hull’s theory is a stimulus-response theory.”) भूख या भोजन-उद्दीपक का कार्य करता है, जिसके कारण व्यक्ति विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करता है।

(iv) प्राथमिक व द्वितीयक प्रबलन (Primary and Secondary Reinforcement)-हल (Hull) ने प्रबलन के दो रूप बताये हैं, जो विभिन्न अवस्थाओं में दृष्टिगोचर होते हैं। भोजन भूख के चालक को प्रबल बनाता है। यह अवस्था प्राथमिक प्रबलन (Primary Reinforcement) की है। पर भूख उस समय तक शान्त नहीं होती है, जब तक भोजन खा नहीं लिया जाता है। अत: भोजन खाने से पहले भूख का चालक फिर प्रबल हो जाता है। यह अवस्था द्वितीयक प्रबलन (Secondary Reinforcement) की है।

(v) प्रेरणा पर बल (Stress on Motivation)-यह सिद्धान्त बालकों के शिक्षण में प्रेरणा पर अत्यधिक बल देता है, क्योंकि बालकों को प्रेरित करके ही उनके ज्ञान की आवश्यकता को पूर्ण किया जा सकता है

(vi) बालकों की क्रियाओं व आवश्यकताओं का सम्बन्ध (Association of Children’s Activities and Needs)-इस सिद्धान्त की सबसे महत्त्वपूर्ण देन यह है कि यह बालकों की क्रियाओं और आवश्यकताओं में सम्बन्ध स्थापित किये जाने पर बल देता है। उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त उनकी क्रियाओं का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध होना चाहिए। आधुनिक शिक्षा इन दोनों तथ्यों को स्वीकार करती है।

3. निष्कर्ष

आज तक प्रतिपादित किये जाने वाले सीखने के सिद्धान्तों में हल (Hull) के सिद्धान्त को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हुए स्किनर (Skinner) ने लिखा है-“हल का कहना है कि सीखने का कारण किसी आवश्यकता का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूर्ण होना होता है। अतः कुछ दृष्टियों से आधुनिक शिक्षा को हल के सिद्धान्त में एक सैद्धान्तिक आधार मिल जाता है।”

सीखने के सूझ का सिद्धान्त (INSIGHT THEORY OF LEARNING)

गैस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों द्वारा सूझ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया विशेषकर कोहलर (Kohler,1925) तथा कोफ्का, 1924 द्वारा। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति किसी प्रक्रिया को सूझ या अन्त:दृष्टि (insight) द्वारा सीखता है। जब बालक किसी पाठ को सीखता है तो वह सीखने से सम्बन्धित प्रत्येक पक्ष को समझने का प्रयत्न करता है। इस कोशिश में वह परिस्थिति के विभिन्न पहलुओं का नए ढंग से प्रत्यक्षण कर संगठित करने का प्रयत्न करता है ताकि समस्या का आसानी से समाधान हो सके। जब वह परिस्थिति के अनुसार नए ढंग से प्रत्यक्षण कर आपसी सम्बन्धों को समझ जाता है तो अचानक ‘सूझ’ उत्पन्न होती है। इस सूझ को अभ्यास (Practice) की जरूरत नहीं होती है।
फर्नाल्ड तथा फर्नाल्ड (Fernald & Fernald, 1979) के शब्दों में, “सूझ से कोहलर का तात्पर्य इस बात से था कि समस्या का समाधान उद्दीपन अनुक्रिया सम्बन्धों को धीरे-धीरे बनने से नहीं होता है बल्कि उद्दीपन के बीच के सम्बन्धों को अचानक समझने से होता है।”

ऐसा माना जाता है कि जैसे ही व्यक्ति में सूझ आती है वैसे ही वह अनुक्रिया करना सीख लेता है।
कोहलर एवं कोफ्का (Kohler & Koffka) की इस विवेचना से स्पष्ट होता है कि सीखना धीरे-धीरे नहीं बल्कि एकाएक होता है क्योंकि यह सूझ द्वारा होता है जो सहसा होता है न कि अभ्यास (Practice) तथा भूल एवं प्रयत्न द्वारा होता है। कोहलर ने बन्दर, कुत्ता, मुर्गी पर प्रयोग किए हैं परन्तु उनके द्वारा 1913 से 1918 के बीच कैनरी द्वीप में ‘सुल्तान’ (Sultan) नामक वनमानुष पर किया गया प्रयोग सर्वाधिक प्रचलित प्रयोग–कोहलर के सबसे बुद्धिमान ‘वनमानुष’ का नाम ‘सुल्तान’ (Sultan) था उस पर उन्होंने दो प्रयोग किए-

कोहलर के वनमानुष पर प्रयोग

  1. छड़ी समस्या पर प्रयोग
  2. बॉक्स समस्या पर प्रयोग

1. छड़ी समस्या पर प्रयोग (Experiment of Stick Problem)-छड़ी समस्या में एक भूखे सुल्तान नामक वनमानुष को पिंजड़े में बन्द कर दिया गया। पिंजड़े के बाहर मेज पर केला रख दिया गया था और पिंजड़े के अन्दर दो छड़ रख दी गई थीं। इन छड़ों की बनावट ऐसी थी कि वे एक-दूसरे से जुड़ जाती थीं। केले को बाहर रखा देखकर सुल्तान ने अपने हाथ से फिर पैर से तथा बारी-बारी से दोनों छड़ियों के सहारे केले को पिंजड़े के अन्दर खींच लेने का प्रयास किया परन्तु उसे असफलता प्राप्त हुई क्योंकि पिंजड़े की दूरी केले से अधिक थी। निराश होकर उसने पिंजड़े के आस-पास देखना शुरू कर दिया और अन्त में दोनों छड़ियों की सहायता से खेलना प्रारम्भ कर दिया। इस खेल के सिलसिले में दोनों छड़ी अचानक एक-दूसरे से जुड़ गईं। इनके परिणामस्वरूप वनमानुष में उत्साह व खुशी देखने को मिली और लम्बी छड़ी की सहायता से ‘उसने मेज पर रखे केले को खा लिया। जब बाद में यह प्रयोग दोबारा दोहराया गया तो सुल्तान ने तुरन्त छड़ियों को जोड़कर मेज पर रखे केले को खींचकर खा लिया। चित्र कोहलर द्वारा छड़ी समस्या पर किया गया प्रयोग

2. बॉक्स समस्या का प्रयोग सुल्तान को इस प्रयोग में एक बड़े कमरे में बन्द कर दिया गया और उसकी छत से केला लटका दिया गया और कमरे में एक कोने में तीन बक्से रख दिये गये। सुल्तान भूखा था और जैसे ही उसकी नजर केले पर गई वह खुशी के मारे उछल-कूद करने लगा वह उछल-कूद करके उस केले को पाने का प्रयत्न कर रहा था। लेकिन केला ऊँचाई पर होने के कारण वह बार-बार प्रयत्न करने पर भी उसे पाने में असमर्थ रहा था। फिर उसका ध्यान कोने में रखे बक्सों पर गया और उसने बक्सों को लटकते हुए केले के नीचे लाकर रखा। इस पर से वह उछलकर केला प्राप्त करना चाह रहा था परन्तु वह असमर्थ रहा। इसके बाद फिर उसने दूसरे-तीसरे बक्से को पहले बक्से के ऊपर लाकर रखा और उसने ऊपर चढ़कर उछल कर केला प्राप्त कर लिया। बाद में सुल्तान को इस तरह की प्रयोगात्मक परिस्थिति में रखने पर उसने उछल-कूद कम किया और सीधे तीनों बक्सों को एक-दूसरे पर रखकर केला प्राप्त कर लिया। चित्र-कोहलर द्वारा बॉक्स समस्या पर किया गया प्रयोग इन सिद्धान्तों से स्पष्ट होता है कि सीखना सूझ पर निर्भर होता है और सूझ परिस्थितिवश स्वयं ही उत्पन्न होती है।

सूझ द्वारा सीखने की प्रक्रिया की विशेषताएँ

(1) सूझ उत्पन्न करने के लिए समस्या का सही ढंगसे परीक्षण जरूरी है। कोहलर व कोफ्का के अनुसार, समस्यात्मक परिस्थिति को ऐसा होना चाहिए कि उसका सभी भाग या अंश प्राणी के सामने हो ताकि वह सम्पूर्ण समस्या का प्रत्यक्षण कर सके तथा उसे समझ सके। यदि समस्या का कोई भी हिस्सा था अंश छिपा रहता है तो वैसी परिस्थिति में प्राणी में सीखना सूझ से न होकर प्रयत्न व भूल से होगा।

(2) सीखने की प्रक्रिया अचानक उत्पन्न होती है क्योंकि यह सूझ पर आधारित होती है और सूझ अचानक होती है।

(3) सूझ द्वारा सीखने में व्यक्ति का ध्यान समस्यात्मक परिस्थिति के भिन्न-भिन्न भागों पर केन्द्रित होता है। वह समस्या के समाधान के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार एक के बाद एक सोच-समझकर करता है। वनमानुष द्वारा केला प्राप्त करने के लिए पिंजड़े से हाथ बढ़ाना, पैर बढ़ाना, फिर छड़ी बढ़ाना आदि कुछ अन्वेषणात्मक व्यवहार के उदाहरण हैं। सूझ पैदा होने पर प्राणी को ज्ञान हो जाता है कि इनमें सभी व्यवहार अर्थपूर्ण नहीं थे।

(4) सूझ व्यक्ति के अन्दर स्वत: व अचानक उत्पन्न होती है। कोहलर का कहना है, जब प्राणी समस्या का समाधान करने के प्रयास में शिथिल हो जाता है तो वह समस्या समाधान के लिए प्रयत्न करने लगता है। इन प्रयत्नों के परिणामस्वरूप अपने आप सूझ उत्पन्न हो जाती है और समस्या का समाधान मिल जाता है।

(5) सूझ से पहले निष्क्रियता की अवस्था देखने को मिलती है। इस अवस्था से उसमें शिथिलता आ जाती है जैसे जब वनमानुष उछल-कूद कर छत से लटकते केला प्राप्त नहीं कर सका, तो थोड़ी देर के लिए निष्क्रिय होकर चुपचाप बैठ गया।

(6) कोहलर का मानना है कि प्राणी ने समस्या का समाधान करना सूझ द्वारा सीखा है या नहीं इसकी जाँच स्थानान्तरण (transfer) द्वारा सहजता से की जा सकती है अगर सूझ द्वारा सीखा है तो उसमें स्थानान्तरण का गुण जरूर होता है लेकिन अगर प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखा गया है तो उसमें स्थानान्तरण का गुण नहीं दिखाई देता है। कोहलर ने अनेक ऐसे परीक्षण किए जिनमें वनमानुष ने स्थानान्तरण का गुण दिखाया।

सुल्तान ने जब बक्सों को एक-दूसरे पर रखकर केले को लेना सीख लिया तो तब एक दूसरी समस्या में सीढ़ी के साथ कमरे में रखा सीढ़ी पर केला लटक रहा था लेकिन सुल्तान ने आसानी से सीढ़ी पर चढ़कर केला ले लिया और इस प्रकार वनमानुष ने अपने ज्ञान का स्थानान्तरण किया। सूझ के इस सिद्धान्त से स्पष्ट हो जाता है कि सीखने की प्रक्रिया जब सूझ (insight) द्वारा है तो वह अचानक होती है क्योंकि व्यक्ति में सूझ अचानक ही विकसित होती है।

कोहलर के सूझ सिद्धान्त का शैक्षिक महत्त्व व मूल्यांकन(EDUCATIONAL IMPLICATION AND EVALUATION OF KOHLER’S INSIGHT THEORY)

कोहलर का सिद्धान्त शैक्षिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस सिद्धान्त की निम्नलिखित उपयोगिताएँ हैं-

(1) छात्रों में सूझ उत्पन्न करने के लिए शिक्षक को पाठ के सभी अंशों व पहलुओं का निरीक्षण करना चाहिए व छात्र और विषय के भिन्न-भिन्न अंशों के बीच प्रत्यक्षणात्मक सम्बन्ध को समझाना चाहिए। अगर पाठ का कोई अंश छात्रों से छिपा रहेगा तो छात्र अपने प्रत्यक्षणात्मक सम्बन्ध को विकसित नहीं कर पायेंगे।
(2) सूझ द्वारा सीखे गये ज्ञान का हम स्थानान्तरण कर सकते हैं। शिक्षकों को चाहिए कि वे कक्षा में इस ढंग का वातावरण कायम करें कि छात्र सूझ द्वारा ही विभिन्न विषयों; जैसे—विज्ञान, इतिहास, भूगोल, आदि को सीखें। इससे छात्र की समायोजन शक्ति बढ़ती है।

सूझ सिद्धान्त के दोष

(1) यह सिद्धान्त केवल सूझ के महत्त्व पर ही रोशनी डालता है और साथ ही साथ यह भी दावा करता है कि सभी उम्र के छात्र सूझ सिद्धान्त द्वारा किसी भी विषय को सीख सकते हैं लेकिन यह सच नहीं है क्योंकि सीखने में अनुभूति, रुचि व अभ्यास का भी स्थान होता है और मनोवैज्ञानिकों का तो यह भी कहना है कि छोटे-छोटे शिशुओं के सीखने में सूझ का कोई खास महत्त्व नहीं होता क्योंकि वह रटकर या अभ्यास द्वारा ही सीखते हैं।
(2) इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने की प्रक्रिया अचानक होती है। लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि वास्तव में छात्र किसी भी विषय को अचानक नहीं सीखते हैं। इसके लिए उन्हें धीरे-धीरे अभ्यास करना पड़ता है। इन दोषों के बाद भी शिक्षा में सूझ सिद्धान्त के महत्त्व को स्वीकार किया गया है।

क्रिया-प्रसूत अधिगम सिद्धान्त (SKINNER’S OPERANT CONDITIONING THEORY)

सीखने के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में बी. एफ. स्किनर (B.F. Skinner) ने विशेष योगदान किया है। स्किनर ने दो प्रकार की क्रियाओं पर प्रकाश डाला—क्रिया-प्रसूत (Operant) तथा उद्दीपन प्रसूत (Stimulus)। जो क्रियाएँ उद्दीपन के द्वारा होती हैं वे उद्दीपन आधारित होती हैं। क्रिया-प्रसूत का सम्बन्ध उत्तेजना से होता है।

(1) बी. एफ. स्किनर के प्रयोग (Experiments by B.F. Skinner)

बी. एफ. स्किनर ने अधिगम या सीखने के क्षेत्र में अनेक प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि अभिप्रेरणा (Motivation) से उत्पन्न क्रियाशीलता (Operant) ही सीखने के लिए उत्तरदायी है। स्किनर ने चूहों तथा कबूतरों, आदि पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि प्राणियों में दो प्रकार के व्यवहार पाये जाते हैं—अनुक्रिया (Respondent) तथा क्रिया-प्रसूत (Operant)। अनुक्रिया का सम्बन्ध उत्तेजना से होता है और क्रिया-प्रसूत का सम्बन्ध किसी ज्ञात उद्दीपन से नहीं होता। क्रिया-प्रसूत को केवल अनुक्रिया की दर से मापा जा सकता है। स्किनर ने चूहों पर प्रयोग किये। उसने लीवर (Lever) वाला बक्सा बनवाया। लीवर पर चूहे का पैर पड़ते ही खट् की आवाज होती थी। इस ध्वनि को सुन चूहा आगे बढ़ता और उसे प्याले में भोजन मिलता।

यह भोजन चूहे के लिए प्रबलन (Reinforcement) का कार्य करता। चूहा भूखा होने पर प्रणोदित (Drived) होता और लीवर को दबाता। उस प्रयोग से स्किनर ने यह निष्कर्ष निकाले

1. लीवर दबाने की क्रिया चूहे के लिए सरल हो गई।
2. लीवर बार-बार दबाया जाता, अत: निरीक्षण सरल हो गया।
3. लीवर दबाने में अन्य क्रिया निहित नहीं थी।
4. लीवर दबाने की क्रिया का आभास हो जाता था।

निष्कर्ष यह है कि “यदि किसी क्रिया के बाद कोई बल प्रदान करने वाला उद्दीपन मिलता है तो उस क्रिया की शक्ति में वृद्धि हो जाती है।”
स्किनर ने कबूतरों पर भी क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) के प्रयोग किये। स्किनर द्वारा बनाये गये बक्से में कबूतरों को लीवर या कुंजी को दबाना सिखाना था। पहले तो बक्से में हल्की प्रकाश व्यवस्था की गई। यह प्रयोग विभिन्न प्रकार की छ: प्रकाश योजनाओं के अन्तर्गत किया गया। प्रयोगों का सामान्य सिद्धान्त यह निरूपित हुआ कि नवीन तथा पुराने, दोनों प्रकार के उद्दीपनों में क्रिया-प्रसूत की गई। प्रकाश व्यवस्था में परिवर्तन होने पर अनुक्रिया में आनुपातिक परिवर्तन हुआ।

(2) क्रिया-प्रसूत सिद्धान्त (Theory of Operant Conditioning)

एम. एल. बिगी (M. L. Bigge) ने स्किनर के क्रिया प्रसूत सिद्धान्त के विषय में कहा है-“क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन अधिगम की एक प्रक्रिया है जिसमें सतत् या सम्भावित अनुक्रिया होती है। ऐसे समय क्रिया-प्रसूतता की क्ति बढ़ जाती है।”
“Operant Conditioning is the learning process where by a response is made more probable or more frequent an operant is strengthened.”
-M. L. Bigge, Learning Theories for Teachers

प्रयोगों के परिणामों के आधार पर बी. एफ. स्किनर (B. F. Skinner) ने कहा है-व्यवहार प्राणी या उसके अंश की किसी सन्दर्भ में गति है, यह गति या तो प्राणी में स्वयं निहित होती है अथवा किसी बाहरी उद्देश्य या शक्ति के क्षेत्र से आती है।
“Behaviour is the movement of an organism or of its part in a frame of reference provided by the organism itself or by external objects or field or force.”   -B. F. Skinner, The Behaviour of Organism

(3) क्रिया-प्रसूत अनुबन्ध और शिक्षा (Operant Conditioning and Education)

क्रिया-प्रसूत अधिगम का शिक्षा में इस प्रकार प्रयोग किया जाता है-
1. सीखने का स्वरूप प्रदान करना (Shaping the Behaviour of Learning)-शिक्षक, इस सिद्धान्त के द्वारा सीखे जाने वाले व्यवहार को स्वरूप प्रदान करता है। वह उद्दीपन पर नियन्त्रण करके वांछित व्यवहार का सृजन करता है।
2. शब्द-भण्डार (Vocabulary)-इस सिद्धान्त का प्रयोग बालकों के शब्द-भण्डार में वृद्धि के लिए किया जा सकता है।
3. अभिक्रमित अधिगम (Programmed Learning)-सीखने के क्षेत्र में अभिक्रमित अधिगम एक महत्त्वपूर्ण विधि विकसित हुई है। इस विधि को क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन द्वारा गति प्रदान की जा सकती है।
4. निदानात्मक शिक्षण (Remedial Training)-क्रिया-प्रसूत सिद्धान्त जटिल (Complex) व्यवहार वाले तथा मानसिक रोगियों को वांछित व्यवहार के सीखने में विशेष रूप में सहायक हुआ है।
5. परिणाम की जानकारी (Knowledge of Result)-स्किनर का विचार है कि यदि व्यक्ति को कार्य के परिणामों की जानकारी हो तो उसके सीखने में भावी व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। गृहकार्य के संशोधन का भी छात्र के सीखने की गति तथा गुण पर प्रभाव पड़ता है।
6. पुनर्बलन (Reinforcement)-क्रिया-प्रसूत अधिगम में पुनर्बलन का महत्त्व है। अधिकाधिक अभ्यास द्वारा क्रिया को बल मिलता है।
7. सन्तोष (Satisfaction)- स्किनर कहता है कि जब भी काम में सफलता मिलती है तो सन्तोष प्राप्त होता है और यह सन्तोष क्रिया को बल प्रदान करता है।
8. पद विभाजन (Small Steps)-क्रिया-प्रसूत अधिगम में सीखी जाने वाली क्रिया को अनेक छोटे- मोटे पदों में विभक्त किया जाता है। शिक्षा में इस विधि के प्रयोग से सीखने में गति तथा सफलता, दोनों मिलते हैं।

(4) निष्कर्ष (Conclusion)

क्रिया-प्रसूत अधिगम का आधार अनुकूलन (Conditioning) है। स्किनर ने क्रिया-प्रसूत (Operant) के आधार पर अनुकूलन के सिद्धान्त को आगे बढ़ाया है। यह निरीक्षणात्मक अधिगम है। यह सिद्धान्त मनोरोगियों, पशु-पक्षियों तथा बालकों पर तो लागू होता है, विवेकशील प्राणियों पर नहीं।

अधिगम/सीखने का सिद्धान्त (Theories of Learning)
अधिगम/सीखने का सिद्धान्त (Theories of Learning)

सीखने के अन्य सिद्धान्त 

ब्रूनर के सीखने का सिद्धान्त शिक्षा के दृष्टिकोण से (BRUNER’S THEORY OF LEARNING FROM POINT OF VIEW OF EDUCATION)

बुनर ने सीखने के एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसे हम आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Present Day Cognitive Theory) की श्रेणी में रखते हैं। उनका सिद्धान्त शिक्षा जगत में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह सिद्धान्त छात्रों द्वारा किये गये उन सभी व्यवहारों को मद्देनजर रखते हुए किया गया जो सीखने से सम्बन्धित हैं। जीरोम ब्रूनर के सिद्धान्त की व्याख्या को निम्नलिखित भागों में बाँटा गया है-
(1) अन्तर्दर्शी चिन्तन बनाम विश्लेषण चिन्तन
(2) पाठ की संरचना
(3) अन्वेषणात्मक सीखना
(4) सम्बद्धता का महत्त्व
(5) तत्परता
(6) शिक्षार्थी द्वारा स्वयं कार्य करने की उपयोगिता

(1) अन्तर्दर्शी चिन्तन बनाम विश्लेषणात्मक चिन्तन (Tnuitive Thinking vs. Analysis Thinking)

ब्रूनर का ऐसा मानना है कि शिक्षण कार्य में अध्यापक द्वारा अन्तर्दर्शी चिन्तन पर विश्लेषणात्मक चिन्तन की अपेक्षा बहुत कम ध्यान दिया जाता है। जबकि अन्तर्दर्शी चिन्तन किसी भी विषय को सीखने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। किसी भी पाठ का तत्कालिक ज्ञान या संज्ञान (cognition) को ही अन्तर्दर्शन कहा जाता है। ब्रूनर के अनुसार अन्तर्दर्शी समझ या ज्ञान को शिक्षक प्रोत्साहित न करके हतोत्साहित करते देखे गये हैं। ब्रूनर (Bruner, 1960) के अनुसार, “अन्तर्दर्शन से तात्पर्य वैसे व्यवहार से होता है जिसमें अपने विश्लेषणात्मक उपायों पर बिना किसी तरह की निर्भरता दिखाए ही किसी परिस्थिति या समस्या की संरचना, अर्थ व महत्त्व को समझा जाता है।”
“Instution implies the act of grasping the meaning, significance or structure of a problem or situation without explicit reliance on the analytic apparatus of one’s craft.” -Bruner
जब अध्यापक छात्रों के अन्तर्दर्शी चिन्तन को हतोत्साहित करते हैं तथा विश्लेषणात्मक चिन्तन को प्रोत्साहित करते हैं तो इससे कक्षा के शिक्षण की गति मन्द हो जाती है।

(2) पाठ की संरचना (Structure of Discipline)

ब्रूनर के अनुसार प्रत्येक विषय के कुछ नियम व विधियाँ होती हैं जिन्हें बालकों द्वारा सीखना आवश्यक होता है। इन्हीं को सीखने के बाद वह वस्तुओं का सही प्रयोग कर पाएँगे।

(3) अन्वेषणात्मक सीखना (Discovery Learning)

ब्रूनर ने इस बात पर जोर दिया है कि किसी भी विषय या पाठ को सीखने की उत्तम विधि अन्वेषण द्वारा सीखना है। दूसरे शब्दों में, छात्र को समस्या के विभिन्न पक्षों पर स्वत: ही आगमनात्मक चिन्तन (inductive thinking) करके विषय से सम्बन्धित संप्रत्ययों के अर्थ एवं सम्बन्धों की खोज करनी चाहिए। अध्यापकों को मान लेना चाहिए कि ज्ञान आत्म-अन्वेषित होता है। ऐसा ज्ञान जो छात्रों द्वारा आत्म-अन्वेषित होता है उनके लिए बहुत उपयोगी होता है।

(4) संबद्धता का महत्त्व

ब्रूनर के मतानुसार विद्यालय शिक्षा का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य छात्रों के भविष्य को उज्ज्वल बनाना है। अपनी पुस्तक ‘दे रेलिवेन्स ऑफ एजूकेशन’ (The Relevance of Education) में ब्रूनर ने दो प्रकार की संबद्धता का उल्लेख किया है—व्यक्तिगत संबद्धता (Personal relevance) और सामाजिक संबद्धता (Social relevance)। ब्रूनर ने कहा शिक्षा सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के भी अनुरूप होनी चाहिए।

(5) तत्परता (Readiness)

ब्रूनर के अनुसार प्रत्येक कक्षा के लिए पाठ्यक्रम तैयार करके छात्रों को उस पाठ्यक्रम के अनुसार उनमें क्षमता विकसित करना अच्छी प्रथा नहीं है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि किसी भी उम्र या वर्ग के छात्र को कोई भी विषय सीखने के लिए तत्पर (Ready) किया जा सकता है। अत: ब्रूनर के अनुसार प्राध्यापकों का प्रमुख कार्य अनुरूप पाठ्यक्रम तैयार करना है।

(6) शिक्षार्थियों द्वारा स्वयं कार्य करने की उपयोगिता (Importance of Learner’s Doing Things)

ब्रूनर का मत है कि छात्रों को सीखने की परिस्थिति में निष्क्रिय न होकर सक्रिय रूप से हिस्सा लेना चाहिए। इससे दो लाभ होते हैं—पहला तो यह कि छात्र पाठ को अच्छी तरह समझ जाता है, दूसरा यह कि वह पाठ को जल्दी सीख लेता है तथा इसे अधिक समय तक याद रखा जा सकता है।

सिद्धान्त के दोष

(1) अन्वेषणात्मक सीखना एक ऐसी विधि है जिससे सिर्फ समय की बर्बादी होती है और किसी भी अध्यापक से यह उम्मीद करना सही नहीं होगा कि वे कक्षा में प्रत्येक विषय को अन्वेषणात्मक सीखना को बिन्दु मानकर अध्यापन करेंगे।
(2) ब्रूनर द्वारा प्रतिपादित विषय की संरचना जैसे संप्रत्यय अपने आप में अस्पष्ट हैं। इस तरह की संरचना की बात करके ब्रूनर कुछ वैसे पाठ्यक्रमों की ओर संकेत करना चाहते थे जिनके सीखने से छात्रों में तार्किक चिन्तन की क्षमता विकसित होती है। परन्तु आलोचकों का कहना है कि इस दंग की संरचना सिर्फ उन कक्षाओं में अधिक ढंग से कार्य कर पाती है जिसके छात्रों में पर्याप्त अभिप्रेरण हो। ऐसे छात्र जिनमें अभिप्रेरण की मात्रा औसत या औसत से कम होती है उनमें इस ढंग की संरचना की बात करना उचित नहीं होगा।

इन दोषों के बावजूद शिक्षा में इस सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि यह सिद्धान्त विद्यालयीय बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है।

आसूबेल के सीखने के सिद्धान्त : शिक्षा के दृष्टिकोण से (AUSUBEL’S THEORY OF LEARNING : FROM THE POINT OF VIEW OF EDUCATION)

डेविड आसूबेल ने सीखने के संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Cognitive theory) का निर्माण किया। इसे संज्ञानात्मक सिद्धान्त इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस सिद्धान्त का मूल उद्देश्य सीखते समय व्यक्ति में क्या होता है का वर्णन करना होता है। इस सिद्धान्त में यह बताने का प्रयत्न किया जाता है कि सीखने की प्रक्रिया में जब नए पाठ को विद्यार्थी पूर्व ज्ञान के साथ जोड़ते हैं तो उस नए पाठ का उस पर क्या प्रभाव पड़ता है। विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान के भण्डार को संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है और जब विद्यार्थी इस संज्ञानात्मक संरचना में नए पाठ से सीखी गई अनुभूतियों को सार्थक तरीके से जोड़ता है तो उसे आत्मसात्करण (assimilation) की संज्ञा दी जाती है।

यह सिद्धान्त कक्षा शिक्षण, अर्थपूर्ण सीखने व शाब्दिक सामग्री से सम्बन्ध रखता है। आसूबेल (Ausubel) ने सीखने के सिद्धान्त के चार प्रकार बताये हैं-
(1) अर्थपूर्ण सीखना
(4) अन्वेषण सीखना
(2) अभिग्रहण सीखना
(3) रटकर सीखना

(1) अर्थपूर्ण सीखना (Meaningful Learning)

अर्थपूर्ण सीखने को आसूबेल ने अर्थपूर्ण आत्मसात्करण (Meaningful assimilation) कहा है। आत्मसात्करण की प्रक्रिया में बालक किसी भी विषय या पाठ को समझकर आत्मसात करता है व उसक सम्बन्ध पूर्व ज्ञान से जोड़ देता है। आसूबेल ने अर्थपूर्ण सीखने के लिए दो बातों का होना आवश्यक माना है-अर्थपूर्ण सीखने की मानसिक तत्परता (Meaningful learning set) और अर्थपूर्ण विषय (Meaningful material)। अध्यापकों को चाहिए कि पढ़ाये जाने वाले विषय का चयन संगठन एवं प्रस्तुतीकरण इस तरीके से करें कि विद्यार्थी के लिए अधिक-से-अधिक अर्थपूर्ण हो सके। अध्यापक बालकों में ऐसी मानसिक तत्परता पैदा कर सकते हैं जिससे वह अर्थपूर्ण ढंग से सीखने के लिए प्रेरित हो सकें।

(2) अभिग्रहण सीखना (Reception Learning)

सीखने की इस विधि में विद्यार्थी को सीखने वाली सामग्री बोलकर या लिखकर दे दी जाती है और विद्यार्थी उन सामग्रियों को आत्मसात कर लेता है। अधिकतर यह समझा जाता है कि अभिग्रहण सीखना सिर्फ रटकर ही सम्भव है। लेकिन आसूबेल ने यह सिद्ध किया है कि अभिग्रहण रटकर ही नहीं वरन् समझकर भी हो सकता है। अभिग्रहण सीखना दो प्रकार का होता है-
(i) रटकर अभिग्रहण सीखना (Rote reception learning)
(ii) अर्थपूर्ण अभिग्रहण सीखना (Meaningful reception learning)

(3) रटकर सीखना (Rote Learning)

रटकर सीखने में विद्यार्थी पाठ का अर्थ समझे बिना ही पाठ को बार-बार दोहराकर सीखते हैं। निरर्थक पदों (nonsense syllables) को सीखना अक्षर अंक युग्म को सीखना, छोटे-छोटे शिशुओं द्वारा नर्सरी राइम (nursery rhyme) को सीखना इसके उदाहरण हैं।

(4) अन्वेषण सीखना (Discovery Learning)

अन्वेषण द्वारा सीखना में छात्र दी गई सामग्री में से नया सम्प्रत्यय (concept) या नया नियम या विचार की खोज करता है और फिर उसे सीखता है। असूबेल ने अन्वेषण सीखने के दो प्रकार बताये हैं-
(i) रटकर अन्वेषण सीखना।
(ii) अर्थपूर्ण अन्वेषण सीखना।

उदाहरण- यदि कोई विद्यार्थी दिये गये उत्तरों में खोजकर इस अधूरे वाक्य ‘भारत का संविधान……… निर्मित हुआ था।’ को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है तो ऐसा अन्वेषण सीखने का उदाहरण होगा लेकिन रटकर पूर्ण हुआ माना जायेगा लेकिन यदि ज्ञात तथ्यों को पुनर्संगठित कर कोई प्रयोग कर नए नियम की खोज करता है तो ऐसा अन्वेषण सीखना कहा जाएगा जो अर्थपूर्ण प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न हुआ है।

आसूबेल ने अर्थपूर्ण सीखने की प्रक्रिया को अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है और कहा है कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा विद्यार्थी समझ बूझकर नये सीखे गए पाठ या विषय को अपनी संज्ञानात्मक संरचना में आत्मसात कर लेते हैं असूबेल के अनुसार आत्मसात्करण निम्नांकित चार प्रकार से किए जाते हैं-

(i) अधीनस्थ सीखना (Subordinate learning)-इस सीखने में विद्यार्थी किसी सामान्य नियम के तहत कोई नई चीज सीखता है। जैसे जब छात्र यह सीखते हैं कि ‘रत्नाकर’, ‘नीरधि’, ‘पयोधि’ तीनों का अर्थ समुद्र होता है। परन्तु वे समुद्र शब्द की तुलना में बहुत कम महाप्रयोग किए जाते हैं, यही अधीनस्थ सीखना कहलाता है।
(ii) महाकोटि सीखना (Superordinate learning)-इसमें विद्यार्थी एक नया सम्प्रत्यय सीखता है जिसमें पहले से सुस्पष्ट कई विचार सम्मिलित होते हैं। दूसरे शब्दों में, जब विद्यार्थी कई सम्प्रत्ययों को एक साथ करके कोई नया सम्प्रत्यय सीख लेता है तो इसे महाकोटि सीखना कहते हैं। उदाहरणत: विद्यार्थी गाय, कुत्ता, भैंस, बकरी, आदि के आधार पर एक नया सम्प्रत्यय जैसे पालतू पशु सीख लेता है तो इसे महाकोटि सीखना कहते हैं।
(iii) सह-सम्बन्धात्मक सीखना (Correlative learning)–विद्यार्थी इस तरीके से सीखता है कि पहले सीखे सम्प्रत्ययों एवं नियमों का एक तरह परिमार्जन विवर्धन होता है। जैसे—यदि कोई विद्यार्थी पहले से यह जानता है कि ‘देशप्रेम’ का अर्थ क्या होता है तथा ‘देशप्रेम’ के व्यवहार जैसे राष्ट्रीय गान का सम्मान, राष्ट्रीय पर्व में हिस्सा लेना, आदि को जानता है और अब वह देश की विभिन्न राष्ट्रीय सम्पत्ति को अपनी सम्पत्ति के समान रखरखाव करना शुरू कर देता है तो यह सम्बन्धात्मक सीखना कहा जाता है।
(iv) संयोगात्मक सीखना (Combinational learning)–संयोगात्मक सीखने में सामान्य समरूपता (general congruence) के आधार पर विद्यार्थी पूर्व में सीखे गये विचारों के संयोग की सार्थक रूप से संज्ञानात्मक संरचना के महत्त्वपूर्ण तथ्यों के साथ सम्बन्ध जोड़ता है। कक्षा में हमें संयोगात्मक सीखने के कई उदाहरण दिखाई देते हैं। जैसे छात्र ताप, आयतन, ऊँचाई, लम्बाई के बीच जब कोई सामान्यीकरण करता है तो वह पहले सीखी गई संयोगात्मक सम्प्रत्यय का अर्थपूर्ण ढंग से वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना के साथ सम्बन्ध स्थापित किये गये का ही परिणाम होता है। इन प्रक्रियाओं द्वारा विद्यार्थी नई सामग्री को आत्मसात कर लेता है।

(4) सिद्धान्त के दोष

(1) इसमें सीखने के कई प्रकार बताये गये हैं जो आपस में परस्पर व्यापी (overlapping) हैं जिससे पाठक को सम्भ्रान्ति अधिक होती है।
(2) शिक्षक इसका ठीक तरह से प्रयोग नहीं कर पाते है।
(3) विद्यार्थी नए विषयों या पाठों को अपनी संज्ञानात्मक संरचना में कई तरह से आत्मसात्करण कर सकता है परन्तु उन्होंने मात्र चार तरह की प्रविधियों को ही आत्मसात्करण का आधार क्यों माना है ? यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया है।

बूनर तथा आसूबेल के सिद्धान्तों की एक तुलनात्मक समीक्षा
(A COMPARATIVE REVIEW OF BRUNER’S AND AUSUBEL’S THEORIES)

ब्रूनर तथा आसूबेल ने सीखने के ऐसे सिद्धान्त प्रतिपादित किये जिनका शिक्षा में बहुत महत्त्व है। इन दोनों वैज्ञानिकों के सिद्धान्त में बहुत समानता पाई जाती है जो निम्नलिखित है-
(1) दोनों वैज्ञानिकों का मत है कि कक्षा-शिक्षण को और उन्नत बनाने के लिए विद्यार्थियों के लिए और अधिक अर्थ बनाना है।
(2) दोनों के सिद्धान्त संज्ञानात्मक सिद्धान्त हैं। जिनमें यह प्रयत्न किया जाता है कि विद्यार्थी का मानसिक प्रक्रियाओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाए तथा उसके बाद उसके बाह्य वातावरण (External Environment) पर तुलनात्मक रूप से कम ध्यान दिया जाए।
(3) दोनों सिद्धान्तों का इशारा इस ओर है कि विद्यालय का शिक्षण (Learning) वर्तमान जटिलता के स्तर के अनुरूप होना चाहिए न कि प्रयोगशाला में सरलीकृत किए गए स्तर के अनुसार।
(4) दोनों सिद्धान्तों में संगठन या संरचना का जिक्र किया गया है। ब्रूनर ने विषय की संरचना के रूप में तथा असूबेल ने संज्ञानात्मक संरचना के विषय को संगठित करने के रूप में अपने-अपने तथ्यों का वर्णन किया है।
(5) दोनों सिद्धान्त सामग्री के सार तत्त्व को सीखने पर जोर देते हैं। इनका मानना है कि यदि सीखे जाने वाले सार तत्त्व को विद्यार्थी सीख लेता है तो उसे वह समझकर अन्य कई स्थानों पर भी प्रयोग कर सकता है।
(6) इन सिद्धान्तों के अनुसार विद्यार्थी की मानसिक तत्परता किसी भी तरह के अर्थपूर्ण सीखने के लिए आवश्यक है।
(7) दोनों सिद्धान्तों ने सीखे गए पाठों के सम्बन्ध पर जोर डाला है। ब्रूनर ने विशेष रूप से इस बात पर बल दिया है कि किसी तरह से सीखा गया नया विषय अन्य विषयों से सम्बन्धित होता है। आसूबेल ने यह दिखाने की कोशिश की है कि किस तरह नए सीखे गये पाठ या विषय संज्ञानात्मक संरचना में मौजूद विचारों से जुड़
(8) इन दोनों ही सिद्धान्तों के अनुसार विद्यालय शिक्षण को उन्नत बनाने का प्रमुख तरीका शिक्षक द्वारा कक्षा में दिये जाने वाले निर्देश को उन्नत बनाना है।

विशेषताएँ–

समानताओं के बावजूद इनमें कुछ विषमताएँ पाई जाती हैं। असूबेल का विचार है कि विद्यार्थी में इस ढंग का अर्थपूर्ण सीखना एवं समझ मूलतः निगमनात्मक ढंग से विकसित होती है। जबकि ब्रूनर के अनुसार- अर्थपूर्ण सीखना तथा समझ जो कक्षा शिक्षण का आधार है की प्राप्ति शिक्षार्थी आगमनात्मक ढंग से करते हैं।

अनुकरण द्वारा सीखना (LEARNING BY IMITATION)

ग्रीक दार्शनिक प्लेटो तथा अरस्तू के समय ऐसा माना जाता था कि बालक अनुकरण द्वारा सीखता है। ग्रीक दार्शनिक यह मानते हैं कि शिक्षा देने में शिक्षक छात्रों के सामने अपनी समझ से उत्तम मॉडल रखते हैं जिसे छात्र प्रेक्षण कर उसका अनुकरण करते हैं और अपने जीवन को उन्नत बनाते हैं। उस समय अनुकरण की यह प्रवृत्ति जन्मजात मानी जाती थी।

सबसे पहले थार्नडाइक ने अनुकरणात्मक व्यवहार का अध्ययन किया जो निम्नलिखित है-

प्रयोग-

एक बिल्ली को एक बक्से में रख दिया गया और दूसरी बिल्ली को दूसरे पिंजड़े में। पहले बक्से में रखी बिल्ली को बाहर निकलने की प्रक्रिया सीखनी थी और पिंजरे में रखी बिल्ली पहली बिल्ली के व्यवहार का प्रेक्षण कर रही थी। बाद में पिंजरे में रखी बिल्ली को पहले बक्से में रखा तो देखा गया कि वह पहली बिल्ली के व्यवहारों का अनुकरण करने में असमर्थ रही। 1901 में थोर्नडाइक ने इसी तरह का प्रयोग बन्दर के साथ भी किया जिससे बन्दर निरीक्षण के आधार पर सीखने की प्रक्रिया को नहीं सीख पाता। जाते हैं।

वाटसन के अनुसार सीखने की प्रक्रिया सिर्फ प्रत्यक्ष अनुभव से होती है न कि परोक्ष (indirect) या प्रत्यायुक्त अनुभव से। मिलर एवं डोलार्ड की एक पुस्तक ‘सोशल लर्निंग एण्ड इमिटेशन’ (Social Learning and Imitation) प्रकाशित हुई जिसमें प्रेरणात्मक सीखना’ या अनुकरणात्मक व्यवहार द्वारा सीखने’ को एक नई दिशा प्रदान की गई।
मिलर व डोलार्ड ने. अनुकरणात्मक व्यवहार को निम्नांकित तीन भागों में बाँटा है-

(1) प्रतिलिपि व्यवहार (Copying Behaviour)-प्रतिलिपि व्यवहार में एक व्यक्ति का व्यवहार दूसरे व्यक्ति द्वारा निर्देशित किया जाता है। इस तरह के व्यवहार में अन्तिम व्यवहार पुनर्बलित होता है और इसे व्यक्ति जल्द सीख लेता है जैसे कि कोई विज्ञान का अध्यापक छात्रों को कोई विशेष प्रयोग करना सिखाता है तो सुधारात्मक एवं परिणाम ज्ञान (knowledge of results) देते हैं तो यह व्यवहार प्रतिलिपि व्यवहार का उदाहरण होगा।

(2) समान व्यवहार-जब दो छात्र या व्यक्ति एक जैसी परिस्थिति में एक जैसा व्यवहार करते हैं और यह व्यवहार उनके पूर्व अनुभव पर आधारित होता है तो इस व्यवहार को समान व्यवहार कहते हैं।

उदाहरण-अधिकतर व्यक्तियों द्वारा सड़क पर लाल बत्ती देखकर रुक जाना।

(3) समेलित आश्रित व्यवहार (Matched dependent Behaviour)-इस तरह के व्यवहार में व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के व्यवहार को बिना सोचे समझे दोहराने के लिए पुनर्बलित किया जाता है। जैसे कोई भी पालतू जानवर अपने मालिक की आवाज सुनकर उसके पास चला जाता है क्योंकि उससे उसे खाना मिलता है। यह समेलित आश्रित व्यवहार होता है।

मिलर तथा डोलार्ड के अनुसार-जब छात्र कोई अनुकरणात्मक व्यवहार करता है और उसके बाद उसे पुनर्बलन मिलता है तो वह जल्द ही उस व्यवहार को सीख जाता है जो अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है। बैण्डुरा ने अपने अध्यापन के आधार पर बताया कि प्रेक्षणात्मक सीखना हर समय होता है। इसके लिए पुनर्बलन का होना अनिवार्य नहीं है। बैण्डुरा के अनुसार, प्रेक्षणात्मक सीखना में बाह्य पुनर्बलन के स्थान पर आन्तरिक पुनर्बलन अधिक प्रबल होता है। जैसे कक्षा में छात्र शिक्षक के व्यवहार का अनुकरण करते हैं और उनके जैसा बनना चाहते हैं। अगर शिक्षक स्वयं अनुशासित और गुणी है तो वह बालक के विकास में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।

मानसिक अनुशासन या औपचारिक अनुशासन का सिद्धान्त (THEORY OF MENTAL DISCIPLINE OR FORMAL DISCIPLINE)

1730 में सबसे पहले मनःशक्ति मनोविज्ञान ने अन्तरण की व्याख्या करने का गम्भीरतापूर्वक प्रयास किया। इस मनोविज्ञान के समर्थकों का मानना है कि इच्छा, साति, तर्कणा, प्रेक्षण, आदि होते हैं जिन्हें अभ्यास से ठीक ढंग से सुधारा या उन्नत किया आ सकता है।

मन:शक्ति मनोविज्ञान (faculty psychology) का प्रभाव शिक्षा पर इतना अधिक पड़ा है कि उस समय के शिक्षक कुछ खास-खास क्लासिकल विषय जैसे संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, गणित, आदि के अध्ययन पर इस ख्याल से अधिक बल डालने लगे क्योंकि इन कठिन एवं जटिल विषयों को पढ़ने से मस्तिष्क इतना प्रशिक्षित एवं तीक्ष्ण हो जाएगा कि शिक्षार्थियों को कक्षा से बाहर की किसी भी समस्या का समाधान करने में कोई समस्या नहीं होगी। इस विचारधारा को औपचारिक अनुशासन का सिद्धान्त’ या ‘मानसिक अनुशासन का सिद्धान्त’ कहते हैं।

इस सिद्धान्त के द्वारा तर्कशास्त्र व गणित पढ़ने में शिक्षार्थियों की तर्क शक्ति (reasoning power) बढ़ाई जाती है। देखने में आता है कि संस्कृत, लैटिन, ग्रीक पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ जाती है जिससे बाद में पढ़े जाने वाले विषयों को याद करने में आसानी होती है। औपचारिक अनुशासन या मानसिक अनुशासन का सिद्धान्त इस बात पर बल डालता है कि विद्यार्थियों को जटिल व कठिन विषयों (subjects) एवं निर्देशों को सिखाने से उनके मस्तिष्क की विभिन्न प्रकार की मन:शक्तियाँ इतनी विकसित, अनुशासित प्रशिक्षित एवं तीक्ष्ण हो जाती हैं कि उन्हें बाद में किसी भी समस्या का समाधान करने या कौशल को सीखने में एक तरह का धनात्मक अन्तरण होता है।

इस सिद्धान्त का महत्त्व आज लगभग समाप्त हो गया है। इस सिद्धान्त के तथ्यों की जाँच करने के लिए कुछ प्रयोगात्मक अध्ययन किए हैं जो निम्नलिखित हैं-

थार्नडाइक– थार्नडाइक ने जो अध्ययन किया उसमें विभिन्न विषयों को पढ़ने से विद्यार्थियों की तर्क क्षमता पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया गया है। उन्होंने अपने प्रयोग के परिणाम में यह पाया कि ग्रीक, लैटिन एवं गणित पढ़ने वाले छात्रों को तर्क क्षमता तथा शारीरिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की तर्क क्षमता लगभग समान ही थी जबकि मानसिक अनुशासन के सिद्धान्त के अनुसार ग्रीक, लैटिन एवं गणित पढ़ने वाले छात्रों की तर्क क्षमता शारीरिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की तर्क क्षमता से श्रेष्ठ होनी चाहिए थी। करीब-करीब इसी ढंग का परिणाम वेसमैन ने भी अपने प्रयोग में पाया है।

विलियम जेम्स (William James, 1980) ने बहुत ही रोचक प्रयोगात्मक अध्ययन कर इस सिद्धान्त के तथ्यों को गलत ठहराया है। इन्होंने अपना प्रयोग यह देखने के लिए किया कि कविता को सीखने से उनकी स्मृति उन्नत होती है या नहीं। यह प्रयोग उन्होंने अपने स्वयं के ऊपर किया था। सर्वप्रथम उन्होंने विक्टर हूगो (Victor Hugo) के  सैटायर (Satyr) की 158 पंक्तियों को याद किया और उसमें लगने वाले समय को लिख लिया इसके बाद उन्होंने मिल्टन के ‘पैराडाइज लौस्ट’ (Paradise Lost) की पंक्तियों को बहुत समय तक याद किया। इसके बाद पुनः विक्टर हूगो (Victor Hugo) के ‘सैटायर’ से ही अगली 158 पंक्तियों को याद किया और इसमें लगने वाले समय को लिख लिया। परिणाम में यह देखा कि बाद की 158 पंक्तियों को सीखने में पहले 158 पंक्तियों की अपेक्षा अधिक समय लगा और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पैराडाइज लौस्ट पर उन्होंने जो भी अभ्यास किया था उससे उनकी स्मरण शक्ति में कोई वृद्धि नहीं हुई। स्पष्टतया विलियम जेम्स का यह परिणाम औपचारिक अनुशासन या मानसिक अनुशासन के सिद्धान्त के प्रतिकूल जाता है।
इन आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धान्त का अपना शैक्षिक महत्त्व है। आज भी अनेक अध्यापकों का यह मानना है कि कठिन विषयों को पढ़ने से मानसिक क्षमता बढ़ती है। जिसके परिणामस्वरूप इन छात्रों को जीवन के अधिकतर भागों में मनचाही सफलता मिलती है। शायद यही कारण है कि ऐसे शिक्षक आज भी स्कूल में पढ़ाए जाने वाले विषयों का चयन करने में इन विषयों को अन्य विषयों की तुलना में अधिक प्राथमिकता देते हैं।

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अधिगम /सीखने  का नियम 

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