शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक की विभिन्न भूमिका

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक की विभिन्न भूमिका
(Various role of a teacher in teaching learning process)

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक निम्नलिखित भूमिकाएँ निभाता है-

ज्ञान में वृद्धि करने वाला (As a Transmitter of Knowledge)

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी एवं दक्षतापूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षक छात्रों के ज्ञान वृद्धि में सहायक हो। शिक्षक की ज्ञान वृद्धि में सहायक निम्न भूमिकाएँ हैं—

1. वह सूचना देने वाला होना चाहिए।
2. वह साधन उपलब्ध कराने वाला होना चाहिए।
3. वह शिल्पकार तथा कलाकार के रूप में कार्य करे।
4. शिक्षक प्रबन्धक के रूप में कार्य करने वाला हो।
5. वह मार्गदर्शक के रूप में कार्य करे।
6. शिक्षक दार्शनिक तथा मित्र के रूप में कार्य करे।
7. वह समुदाय के लिए ज्ञान के प्रमुख साधन के रूप में कार्य करे।
8. शिक्षक छात्रों के आत्मसम्मान के रक्षक के रूप में कार्य करने वाला हो।
9. शिक्षक छात्रों के विश्वासपात्र के रूप में कार्य करने वाला हो।
10. वह परामर्शदाता तथा नवाचारकर्त्ता के रूप में कार्य करने वाला हो।
11. वह अभिभावक के रूप में कार्य करे।
12. वह नैतिक मूल्यों के पालनहार के रूप में कार्य करने वाला हो।

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक की विभिन्न भूमिका
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक की विभिन्न भूमिका

सीखने की सुविधा प्रदान करने वाला (As a Facilitator of Learning)

छात्रों को सीखने की सुविधा प्रदान करने में शिक्षक की अग्रलिखित भूमिका होनी चाहिए-

1. छात्रों को क्रियाशील बनाने का अवसर प्रदान करना (To Provide Opportunity of Student Activeness)- शिक्षक छात्रों की विभिन्न मूल प्रवृत्तियों का शोधन करके उन्हें निश्चित मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे उसका बहुमुखी विकास हो सके। अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी एवं दक्षतापूर्ण बनाने के लिए उसे उचित पथ प्रदर्शन करना होगा। तभी छात्र स्वयं क्रियाशील रहकर अध्ययन कर सकेंगे।

2. अभिप्रेरणा प्रदान करना (To Secure Motivation)- अधिगम प्रक्रिया के प्रति शिक्षक द्वारा छात्र में रुचि उत्पन्न कर देना ही अभिप्रेरणा कहलाती है। निष्क्रिय एवं उदासीन वातावरण में छात्र नवीन ज्ञान ग्रहण करने में रुचि नहीं लेता। अभिप्रेरणा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण अंग होता है। जब तक हम अभिप्रेर क अंग की ओर ध्यान नहीं देंगे तब तक शिक्षण के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ सकते हैं। पथ प्रदर्शन के अभाव में छात्रों के दिशाहीन होने की सदा आशंका बनी रहती है। पथ प्रदर्शन की निम्नलिखित तीन विधियाँ हैं-

(i) छात्रों की विशिष्ट योग्यताओं को ज्ञात कर अभिप्रेरित करना।
(i) निर्देश तथा उदाहरणों द्वारा छात्रों को समझाना।
(iii) वाद-विवाद कर छात्रों की समस्याओं को परामर्श देकर हल करना।

3. बालकों में संवेगात्मक विकास करना (To Develop Emotion of the Learner) – अध्यापक शिक्षा प्रक्रिया के द्वारा छात्रों में संवेगात्मक विकास करता है। यह विकास शिक्षक की सहानुभूति, प्रेम, उचित कार्य, वैयक्तिक सम्पर्क तथा उचित पथ-प्रदर्शन द्वारा सुगमता से सम्पन्न होता है।

4. अध्यापक का कार्य सिखाना है (To Learn is the Function of Teacher)- अध्यापक का प्रमुख कार्य छात्रों में उत्प्रेरणा विकसित करके उन्हें अधिगम के प्रति उत्साहित करना है जिससे उनमें सीखने तथा अपने विषय के प्रति रुचि उत्पन्न हो सके।

5. शिक्षण व्यक्तित्व निर्माण का साधन है (Teaching is Means of Preparation of Presonality)- शिक्षक का प्रमुख दायित्व होता है कि वह शिक्षण के द्वारा बालक के व्यक्तित्व का विकास करे जिससे उसका शारीरिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक तथा संवेगात्मक विकास हो सके। विकास के द्वारा ही वह अपने भावी जीवन को सुखी एवं समृद्ध बना सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षण बालक के व्यक्तित्व निर्माण का महत्त्वपूर्ण साधन है।

6. शिक्षक एक सूचनादाता के रूप में (Teacher as Source Information)- अध्यापक शिक्षण के माध्यम से छात्रों को ज्ञान की नवीन सूचना प्रदान करता है। वह उन्हें विभिन्न प्रकार के विचार एवं वस्तुओं से अवगत कराता है जो अध्यापक विषय प्रस्तुतीकरण की विधि जानते हैं, उन्हें इस क्षेत्र में पर्याप्त सफलता मिलती है।

सीखने में मार्गदर्शन करने वाला (As a Guide of Leaning)

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षक को छात्रों का सीखने में पथ-प्रदर्शक होना चाहिए। पथ-प्रदर्शक के रूप में शिक्षक की निम्नलिखित भूमिकाएँ हैं –

1. छात्रों के साथ वैयक्तिक सम्पर्क स्थापित करना।
2. शिक्षक को अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए।
3. कुसमायोजित बालकों का पता लगाना।
4. छात्रों को पुस्तकालय का उचित उपयोग करना।
5. जिन छात्रों का साक्षात्कार लिया जा चुका है उनकी रिपोर्ट का निर्देशन छात्रों को देना।
6. विभिन्न सामाजिक संस्थाओं से सम्पर्क स्थापित करना।
7. अपने विषय से सम्बन्धित व्यवसायों तथा शैक्षिक अवसरों की सूचनायें छात्रों को प्रदान करना।
8. छात्रों की परीक्षाएँ लेने में सहयोग करना।
9. पाठ्येत्तर सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना।
10. निर्देशन कार्यक्रम को अधिक सफल बनाने के लिए प्रधानाचार्य एवं निर्देशक को अपना पूर्ण सहयोग करना।
11. ऐसे बालकों को जो अधिगम में कठिनाई अनुभव करते हों, उनको उपबोधक के समक्ष भेजना।
12. छात्रों के अधिक विकास के लिए परिस्थितियों का निर्माण करना।

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