परिवर्तन प्रकृति का सनातन एवं शाश्वत नियम है। इसीलिए प्रकृति सृष्टि में भी परिवर्तन करती है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, परिवर्तन, क्षीणता एवं विनाश के चक्र से गुजरती है। इनमें कुछ परिवर्तन मन्दगति से होते हैं और कुछ तीव्रगति से। मन्दगति से होने वाले परिवर्तन देखें जा सकते हैं और तीव्रगति से होने वाले परिवर्तन दिखलाई नहीं पड़ते हैं। परिवर्तन के इस शाश्वत नियम से समाज अछूता नहीं रह सका है। इसलिए समाज में भी परिवर्तन होते रहते हैं। इस प्रकार समाज में होने वाले परिवर्तनों को ही सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।
सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक परिवर्तन (Social change and cultural change)- सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक परिवर्तन को कुछ विद्वान एक ही मानते हैं। उनका मत है कि समाज में जीवन के स्वीकृत तरीकों से होने वाले परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन हैं और जीवन के स्वीकृत तरीकों को ही संस्कृति कहा जाता है। इसलिए समाज की संस्कृति में होने वाले परिवर्तन ही सांस्कृतिक परिवर्तन हैं। ऐसा ही विचार डासन एवं गेटिस (Dawson and Gettys) का भी है, “सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन है क्योंकि समस्त संस्कृति अपनी उत्पत्ति, अर्थ और प्रयोग में सामाजिक है।”
इसके विपरीत कुछ विद्वान सामाजिक परिवर्तन को सांस्कृतिक परिवर्तन से भित्र मानते हैं। उनका मत है कि सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन के एक अंग मात्र हैं। इस संदर्भ में यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सभी सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन होते हैं परन्तु सभी सामाजिक परिवर्तनों का सांस्कृतिक परिवर्तन होना आवश्यक नहीं हैं।
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सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Social Change)
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसीलिए वह समूह में रहता है। सामान्य अर्थ में व्यक्तियों के समूह को समाज कहा गया है परन्तु विशिष्ट अर्थ में समूह के व्यक्तियों में पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था या जाल को समाज कहा जाता है। इस प्रकार समाज का आधार सामाजिक सम्बन्ध हैं और सामाजिक सम्बन्धों का आधार मनुष्य की अन्तः क्रियाएं हैं। मनुष्य की अन्तः क्रियाएं सतत् परिवर्तित होती रहती हैं। इसीलिए समाज भी परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तन की यह गति कुछ समाजों में मन्द, कुछ समाजों में सामान्य और कुछ में तीव्र होती है। तदनुरूप ही समाज में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन (Social change) की संज्ञा दी गई है। सामाजिक परिवर्तन के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न विद्वानों के विचार प्रस्तुत हैं-
मैरिल एवं एल्ड्रेज (Merrill and Eldredge) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन का अर्थ यह है कि लोगों की अधिकतर संख्या ऐसी क्रियाओं में संलग्न है, जो उनसे भिन्न है, जिसमें वे (अथवा उनके निकट के पूर्वज) कुछ समय पूर्व संलग्न थे। समाज प्रतिमानित मानवीय सम्बन्धों के एक विशाल एवं पेचीदे जाल से बना हुआ है, जिसमें सब लोग भाग लेते हैं। जब मानव-व्यवहार रूपान्तरण की प्रक्रिया में होता है, तब वह केवल यह प्रकट करने का अन्य ढंग है कि सामाजिक परिवर्तन घटित हो रहा है।”
“Social Change means that large number of persons are engaging in activities that differ from those which they (or their immediate fore-fathers) engaged in some time before. Society is composed of a vast and complex network of patterned human relationships, in which all men participate, When human behaviour is in the process of modification, this is only another way of indicating that social change is occurring.”
किंग्सले डेविस (Kingsley Davies) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन से हम केवल ऐसे परिवर्तनों को समझते हैं, जैसे-सामाजिक संगठन में होते हैं, जो समाज की संरचना और कार्यों में निहित हैं।”
“By social change is meant only such alterations as occur in social organization, that is in structure and functions of society.”
मैकाइवर तथा पेज (MacIver and Page) के अनुसार, “सामाजिक ढाँचे में होने वाला परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है।”
“Change in social structure is social change.”
कुप्पूस्वामी (Kuppuswami) के अनुसार, “जब हम सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य सामाजिक व्यवहार तथा सामाजिक ढाँचे में होने वाले परिवर्तन से होता है।”
“When we speak of social change we simply assert that there is some change in social behaviour and in social structure.”
सर जोन्स (Sir Jones) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है जो सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक संगठन के किसी अंग में अन्तर या रूपान्तरण को वर्णित करने के लिए प्रयुक्त होता है।”
“Social change is a term to describe variations or modifications of any aspect of social processes, social patterns, social interaction or social organization.”
डासन तथा गेटिस (Dawson and Gatis) के अनुसार, “सांस्कृतिक परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है।”
“Cultural change is social change.”
गिलिन तथा गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन जीवन की मानी हुई रीतियों में होने वाले परिवर्तन को कहते हैं। चाहे वे परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के परिवर्तन से हुए हों या सांस्कृतिक साधनों से या जनसंख्या की रचना या सिद्धान्तों के परिवर्तन से या प्रसार से या समूह के अन्दर ही आविष्कारों के फलस्वरूप हुए हों।”
“Social changes are variations from the accepted modes of life whether due to alterations in geographic conditions, in cultural equipment, composition of the population or ideologies and whether brought about by diffusion or invention within the group.”
मेरिल (Merrill) के अनुसार, “समाज सामाजिक सम्बन्धों का एक जटिल जाल है जिसमें सभी व्यक्ति भाग लेते हैं। इस सम्बन्यों में परिवर्तन आता है और इसके फलस्वरूप व्यक्ति के व्यवसाने सभी व्यक्ति आता है और इसे ही हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।”
“Society is a complex network of patterned relationship in which all the members participate in varying degrees. These relationships change and behaviour changes at the same time-these changes we refer to as social change.”
गिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, ‘”सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य है सामाजिक संरचना अर्थात् समाज के आकार, उसके भागों का गठन अथवा सन्तुलन अथवा उसके संगठन के प्रकार का परिवर्तन।”
“Social change means change in the social structure e.g., the size of society, the composition or balance of its parts or the type of its organisation.”
एम. डी. जेनसन (M.D. Jenson)के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन को लोगों के कार्य करने और विचार करने की पद्धतियों में संशोधन के रूप में परिभाषित किया जाता है।”
“Social change may be defined as modification in the ways of doing and thinking of people.”
उपर्युक्त परिभाषाओं के प्रकाश में कहा जा सकता है कि लोगों के जीवन या समाज के कार्य में नये फैशन का नाम सामाजिक परिवर्तन है। यह नया फैशन या तो पुराने को संशोद्धन करता है, या फिर उसे बिल्कुल बदल देता है। सामाजिक परिवर्तन में सामाजिक विधियों, सम्बन्धों तथा व्यवहारों, लोक-रीतियों, संस्थाओं आदि का परिवर्तन सम्मिलित है। कभी-कभी यह परिवर्तन दार्शनिक दृष्टिकोण को भी परिवर्तित कर देता है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन सामाजिक संरचना तथा व्यवस्था के निम्नलिखित क्षेत्रों के परिवर्तन की ओर इंगित करता है-
(i) सामाजिक संरचना एवं संस्थायें (Social structures and institutions)
(ii) व्यक्तियों की भूमिकायें (Roles performed by individuals)
(ii) लोगों के परस्पर सामाजिक सम्बन्ध (Social relationships among people)
(iv) सामाजिक अन्तर्क्रियाओं के स्वरूप (Patterns of social interactions)
(v) मूल्य एवं मानक (Values and norms)
(vi) विभिन्न समूहों तथा संस्थाओं के कार्य (Functions of different groups and institutions)
सामाजिक परिवर्तन की मुख्य विशेषताएँ (Major Characteristics of Social Change)
सामाजिक परिवर्तन की निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
- यह परिवर्तन पूरे सामाजिक ढाँचे में भी हो सकता है और उसके किसी एक संगठन में भी हो सकता है।
- जब हमारी भौतिक अथवा अभौतिक संस्कृति बदलती है तो सामाजिक परिवर्तन होता है।
- सामाजिक परिवर्तन नियोजित भी हो सकते हैं और अनियोजित भी हो सकते हैं।
- खुले समाज में परिवर्तन की गति तीव्र होती है और बन्द समाज में परिवर्तन की गति बहुत मन्द होती है।
- सामाजिक संगठन में होने वाले परिवर्तन की गति सामाजिक कार्यों में होने वाले परिवर्तनों की अपेक्षा बहुत धीमी होती है।
- जब सामाजिक परिवर्तन की गति मन्द हो जाती है तो क्रान्तियों की सम्भावना बढ़ जाती है और इस क्रान्ति के द्वारा एकाएक व्यापक परिवर्तन होते हैं।
- शिक्षा आदि के द्वारा जब व्यक्ति के विचार-जगत में क्रान्ति होती है तो उसके व्यवहार में भी परिवर्तन आ जाता है।
- पहले की अपेक्षा आधुनिक समाज में परिवर्तन अधिक होता है और उन परिवर्तनों को आज हम अधिक स्पष्ट रूप से देख भी सकते हैं।
- स्वाभाविक ढंग से और सामान्य गति से होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव हमारे विचारों तथा सामाजिक संरचना पर पड़ता है।
- यह आवश्यक नहीं है कि सभी परिवर्तन स्थायी ही हों। आज जो परिवर्तन दिखायी दे रहा है, भविष्य में उसके स्वरूप में भी परिवर्तन हो सकता है।
- यह आवश्यक नहीं है कि समाज में होने वाले परिवर्तन उसे सदैव विकास की ओर ही ले जाएँ। कभी-कभी कुछ परिवर्तन समाज को अवनति की ओर भी ले जाते हैं।

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त (Theories of Social change)
सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों का अध्ययन करने से सामाजिक परिवर्तन का स्वरूप और अधिक स्पष्ट हो जायेगा। सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
विकासवादी सिद्धान्त (Evolutionary theory)
स्पेंसर (Spencer) के अनुसार सामाजिक परिवर्तन क्रमिक एवं प्रगतिशील रहता है। उस का यह विचार है कि मनुष्य ने दुःखद अनुभूति से कम दुःखदायक अनुभूति की ओर विकास किया है और सामाजिक परिवर्तन ने भी इसी दिशा का अनुसरण किया है।
तकनीकवादी सिद्धान्त (Technological theory)
इसे तकनीकी विकास का सिद्धान्त भी कहा जाता है। विलियम ऑगबर्न (William Ogburn) सामाजिक परिवर्तन के लिये इस सिद्धान्त का समर्थक है। उन्होंने सामाजिक और तकनीकी विकास में सम्बन्ध स्थापित किया है। समाज में तकनीकी विकास द्वारा सामाजिक परिवर्तन होते हैं।
प्रयोजनवादी सिद्धान्त (Telic theory)
प्रयोजनवादी सिद्धान्त वार्ड (Ward) ने प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन सामाजिक विकास की भांति स्वाभाविक रूप से नहीं होता, परन्तु पहले से आयोजित (Planned) होता है। आयोजित और व्यवस्थित परिवर्तन से ही समाज की उन्नति हो सकती है, स्वाभाविक और अव्यवस्थित परिवर्तनों से नहीं। यह सिद्धान्त सामाजिक परिवर्तन को समझाने में पूर्ण नहीं है क्योंकि कुछ परिवर्तन बिना योजना के अचानक भी हो जाते हैं।
रेखीय सिद्धान्त (Linear Theory)
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक काम्टे (Comte), स्पेन्सर (Spencer) और कार्ल मार्क्स (Karl Marx) को माना जाता है। इन्होंने समाज के विकास के क्रम को ऐतिहासिक बताया और एक ऐसे समाज की कल्पना की, जहाँ परिवर्तन चक्र स्थिर होकर रह जाएगा। काम्टे ने सामाजिक परिवर्तन को बौद्धिक विकास का परिणाम बताया और बौद्धिक विकास की तीन अवस्थाएँ बतायीं- (अ) धार्मिक अवस्था (ब) तात्विक अवस्था और (स) वैज्ञानिक अवस्था।
चक्रात्मक सिद्धान्त (Cyclical theory)
सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन के लिए चक्रात्मक सिद्धान्त का समर्थन स्पैंगलर (Spengler) और सोरोकिन ओसवाल्ड (Sorokin Oswald) द्वारा किया गया। इस सिद्धान्त के अनुसार समाज जिस दशा से परिवर्तन करना आरम्भ करता है, परिवर्तन के अनुसार फिर उसी पर पहुंचता है। स्पैंगलर ने अपनी पुस्तक ‘Decline of the West’ में लिखा है कि घटनाओं का एक चक्र सा उत्पन्न होता है जिस में जन्म बचपन, परिपक्वता, वृद्धावस्था, मृत्यु और ऐतिहासिक इकाइयों का बुद्धिपूर्ण पतन शामिल है। सोरोकिन ने अपनी पुस्तक ‘Social and Cultural Dynamics’ में तीन सामाजिक और सांस्कृतिक वर्गों- विचारात्मक (Ideational), भावात्मक (Sensate) और आदर्शात्मक (Idealistic) का क्रम बता कर यही चक्र बताया है। प्रत्येक प्रमुख सांस्कृतिक समूह इन में से गुज़रता है।
उद्देश्यवादी सिद्धान्त (Purposeful theory)
कार्ल मार्क्स (Karl Marx) सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्यवादी सिद्धान्त के समर्थक हैं। उनका विश्वास है कि सामाजिक परिवर्तन बुद्धि और संकल्प शक्ति से लाया जाता है। मनुष्य के सामने कई लक्ष्य होते हैं जिन्हें वह प्राप्त करना चाहता है। उन्हें प्राप्त करने की कोशिश में वह उनकी दिशा में कुछ सामाजिक परिवर्तन करता है। इस से स्पष्ट होता है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के पीछे कोई निश्चित उद्देश्य होता है।
बहु-तत्त्वीय सिद्धान्त (Multi-factor theory)
सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार सामाजिक परिवर्तन में अनेक तत्त्व- आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक इत्यादि मिले कर कार्य करते हैं। इन में से कई तत्त्व अधिक प्रभावशाली होते हैं और वे सामाजिक परिवर्तन में अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आध्यात्मवादी सिद्धान्त (Spiritualistic theory)
सामाजिक परिवर्तन के इस सिद्धान्त को आध्यात्मिक सिद्धान्त भी कहा जाता है। टॉयनबी (Toynbee) ने अपनी पुस्तक ‘A Study of History’ में सामाजिक परिवर्तन में आन्तरिक आध्यात्मिक शक्ति की भूमिका की व्याख्या की है। आध्यात्मिकता में विश्वास सामाजिक प्रक्रिया को आध्यात्मिकता की ओर मोड़ सकता है और भौतिकता को अन्तिम सत्यता मानने से जीवन का मार्ग भौतिकवाद की ओर मुड़ सकता है।
इतिहास के महान व्यक्तियों का सिद्धान्त (Great men theory of History)
इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन इतिहास के महान व्यक्तियों के विचारों और कार्यों के कारण होते हैं। कार्लाइल (Carlyle) ने कहा है, ‘विश्व का इतिहास महान् व्यक्तियों की जीवनी है।’ (“The history of the world is the biography of great men.”)
रचनात्मक-प्रक्रियात्मक सिद्धान्त (Structural-functional theory)
इस सिद्धान्त को पार्सन (Parson) और मार्टन ने प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था (Social System) के दो पक्ष होते हैं- (i) रचनात्मक पक्ष और (ii) प्रक्रियात्मक पक्ष। रचनात्मक पक्ष का अभिप्राय समाज की विभिन्न इकाइयों (Units) अथवा संस्थानों (Organs) से है जिन में आपसी गहरा सम्बन्ध होता है। किसी इकाई अथवा संस्थान में जब परिवर्तन होता है तो वह दूसरे संस्थान अथवा अंग में भी परिवर्तन ला देता है। भारत में विभिन्न संस्थाओं तथा संयुक्त परिवार, विवाह, धर्म आदि का ही उदाहरण लीजिए। ये आपस में मिल कर कार्य कर रहे हैं। यह प्रक्रियात्मक पक्ष है। सामाजिक परिवर्तन के इस सिद्धान्त को सर्वोत्तम माना जाता है।
सामाजिक परिवर्तन में बाधाएँ (Factors that Check Social Change)
परिवर्तन समाज का नियम है प्रन्तु फिर भी कई ऐसे कारक हैं जो सामाजिक परिवर्तन में रुकावट डालते हैं। सामाजिक परिवर्तन में उस समय बाधा उत्पन्न होती है जब समाज वांछनीय परिवर्तनों को स्वीकार नहीं करता। समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक तथा कई अन्य लोग समाज को प्रगतिशील बनाना चाहते हैं परन्तु निम्नलिखित कारक सामाजिक परिवर्तन में बाधक सिद्ध होने हैं-
1. पुराने विश्वास (Old beliefs) – प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह धर्म का क्षेत्र हो या विज्ञान का, पुराने विश्वास नए विचारों को अपनाने में रुकावट डालते हैं। नये विचारों का प्रचार करने के अपराध में सुकरात को विष का प्याला पीना पड़ा, ईसा मसीह सूली पर चढ़े, गलेलियो को जेल में कष्ट सहने पड़े।
2. स्वाभाविक सुस्ती (Natural inertia) – कई मनुष्य स्वभाव से ही सुस्त होते हैं। वे प्राप्त वस्तुओं से ही सन्तुष्ट होते हैं। वे मेहनत और उन्नति करने के इच्छुक नहीं होते। उन में अपने आपको बदलने की और अपनी सामाजिक प्रथा तथा समाज को सुधारने की इच्छा नहीं होती। कई बार सारे समाज में आत्म-सन्तुष्टि उत्पन्न हो जाती है जोकि सामाजिक परिवर्तन में रुकावट डालती है। स्वाभाविक सुस्ती सामाजिक परिवर्तन में बाधक है।
3. सांस्कृतिक जड़ता (Cultural inertia) – प्रत्येक समाज के अपने आदर्श, विश्वास, रीति-रिवाज तथा परम्पराएं होती हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी प्राप्त करती है। लोगों की इनके प्रति बहुत श्रद्धा होती है। कुछ लोग तो अपने पूर्वजों से प्राप्त संस्कारों के दास बन जाते हैं। उनका यह दृढ़ विश्वास होता है कि उनके पूर्वजों के लिए जो बातें ठीक थीं, वे बातें उनके लिए भी उचित हैं। ऐसे लोग स्वीकृत आदर्श, मान्यताओं और परम्पराओं को ठेस पहुंचाने वाले परिवर्तन का विरोध करते हैं। जिस समाज में सांस्कृतिक जड़ता जितनी अधिक होगी उसमें सामाजिक परिवर्तन लाना उतना ही कठिन होगा।
4. सांस्कृतिक पृथक्ता (Cultural isolation) – प्रत्येक समाज अथवा वर्ग अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए दूसरे वर्गों से पृथक् रहता है। वह दूसरे समाज की संस्कृति के सम्पर्क में नहीं आना चाहता। जिस समाज में पृथक्ता की मात्रा जितनी अधिक होती है उतना ही अधिक वह सामाजिक परिवर्तनों का विरोध करता है। इस प्रकार पृथक्ता के प्रभाव के कारण अथवा दूसरी संस्कृतियों से सम्पर्क न होने के कारण लोग सामाजिक परिवर्तनों का विरोध करते हैं। इसी दृष्टि से पिछड़ी हुई जातियां सामाजिक परिवर्तनों को नहीं चाहतीं और फलतः उनका विरोध करती हैं। पिछड़ी जाति के लोग समाज में अन्य लोगों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
5. भाग्यवादिता (Fatalism) – कुछ लोग भाग्य में अधिक विश्वास रखते हैं। वे सभी कुछ भाग्य पर छोड़ देते हैं। उनका विश्वास है कि जो उनके भाग्य में लिखा है, वह उन्हें मिल जायेगा। यदि उनके जीवन में धनवान् और सुखी बनना लिखा है तो वे ऐसा बन जाएंगे अन्यथा वे अपनी मेहनत और प्रयास से धनवान और सुखी नहीं बन सकते। भाग्य में विश्वास होने के कारण ये लोग मेहनत नहीं करते और सामाजिक परिवर्तन में बाधा पड़ती है।
6. निहित स्वार्थ (Vested interests) – निहित स्वार्थ सामाजिक परिवर्तन के रास्ते में एक प्रमुख बाधा है। समाज कई वर्गों में विभक्त होता है। प्रत्येक वर्ग के लोगों के अपने निजी स्वार्थ होते हैं। ऐसे लोग अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए नये परिवर्तन का विरोध करते हैं क्योंकि वे अपने स्वार्थ का बलिदान नहीं कर सकते।
7. नवीनता का भय (Fear of new things) – समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो दिसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते। वे अज्ञात एवं नवीन वस्तु को अपनाने में डरते हैं। उनकी यह धारणा होती है कि यदि उन्होंने अपने अपनाए ढंगों को छोड़ा तो उनकी सुरक्षा कम हो जायेगी। अतः वे अपने जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते। इस प्रकार नवीनता का भय सामाजिक परिवर्तन में बाधक है।
8. आदतें और रीति-रिवाज (Habits and customs) – जो लोग जिस प्रकार से रहने और काम करने के आदी हो जाते हैं, उन्हें वही अच्छा लगने लगता है। आदतों के साथ मनुष्य का भावात्मक लगाव हो जाता है। आदतों और रीति रिवाजों को छोड़ना कठिन होता है। अतः आदतें और रीति-रिवाज नई वस्तुओं को अपनाने में बाधक होते हैं।
9. अन्ध-विश्वास (Superstitions) – प्रत्येक समाज में कुछ अन्ध-विश्वास होते हैं जो सामाजिक परिवर्तन में रुकावट डालते हैं। अन्ध-विश्वासों को समाप्त करना कठिन होता है।
10. धर्म (Religion) – कई बार धर्म सामाजिक परिवर्तन में बाधा डालता है। लगभग सभी धर्म व्यक्ति को शान्त एवं सन्तुष्ट रहने की शिक्षा देते हैं। श्रद्धा और प्यार धर्म के मुख्य हथियार हैं। जो धर्म में विश्वास करते हैं वे दूसरों को हानि नहीं पहुंचा सकते। वे आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए पूंजीवादियों से धन नहीं छीन सकते और समाज में साम्यवाद नहीं ला सकते। इस प्रकार धर्म सामाजिक परिवर्तन लाने में बाधक सिद्ध होता है।
सामाजिक परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका (Role of a Teacher in Social Change)
- सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को सुनियोजित गति एवं दिशा प्रदान करने में शिक्षक को सक्रियता से कार्य करना चाहिए।
- शिक्षक को समाज में होने वाले नवीन परिवर्तनों की जानकारी लोगों को देनी चाहिए, जिससे सभी लोग उन परिवर्तनों को लाने में सहयोग करें।
- शिक्षक को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सम्पन्न होना चाहिए।
- शिक्षक को नवीन दृष्टिकोण एवं मूल्यों के लिए मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार करना चाहिए।
- शिक्षक को सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए कभी-कभी बालकों को कक्षा की सीमा के बाहर भी शिक्षण कार्य करना चाहिए और विविध प्रकार की जानकारी प्रदान करनी चाहिए।
- शिक्षक को विद्यालय में सामाजिक स्तर की भिन्नता के कारण ऊँच और नीच की भावना से बालकों को मुक्त रखना चाहिए। इसके लिए विद्यालयों में समान वेशभूषा निर्धारित करनी चाहिए।शिक्षक को लोगों के मन से सांस्कृतिक जड़ता की भावना को दूर करके उन्हें नवीन परिवर्तन के लिए तैयार करना चाहिए।
- शिक्षक को विद्यालयों में अपने छात्रों को ज्ञानार्जन एवं अधिगम के समान अवसर एवं सुविधाएं प्रदान करनी चाहिए ताकि बालकों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो सके और वे समाज की नवीन संरचना में अपना योगदान देने में समर्थ हो सकें।
- शिक्षक को विद्यालय के साथ-साथ समाज के क्रियाकलापों से भी भिज्ञ रहना चाहिए और आवश्यकतानुरूप सामाजिक गतिविधियों में नेतृत्व भी करना चाहिए ताकि समाज को आधुनिक रूप दिया जा सके।
- शिक्षक को पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों को महत्त्व देना चाहिए, जिससे समाज वैज्ञानिक और तकनीकी दृष्टि से विकास कर सके।
- वर्तमान समाज में विद्यमान संकीर्णता एवं पिछड़ेपन के निराकरण के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए और इसके शिक्षण की सम्यक् व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि छात्र इससे लाभान्वित होकर विकसित समाज की संरचना कर सकें।
- शिक्षक को राष्ट्रीय लक्ष्यों, आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना हेतु सतत प्रयासरत रहना चाहिए और अपने छात्रों को इसके लिए सदैव प्रेरित करते रहना चाहिए।
- शिक्षक को समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों और समस्याओं से अवगत होना चाहिए तथा इनका समाधान करके समाज में प्रगतिशील मूल्य स्थापित करने चाहिए।