आदर्शवाद के रूप (Forms of Idealism)
रास महोदय का कथन है कि “आदर्शवादी दर्शन के बहुत से तथा भिन्न रूप हैं।” (Idealistic Philosophy takes many and varied forms)। वास्तव में आदर्शवाद विचारों पर आधारित एक विचारधारा है। अस्तु मनुष्य, संसार, आत्मा, परम आत्मा, आदि अन्यान्य बातों पर अलग-अलग विचार होने के कारण विभिन्न रूप में आदर्शवादी चर्चायें हुई हैं।
(1 ) विश्व को तर्कपूर्ण मानने वाला आदर्शवाद – सर्वप्रथम रूप हमें विश्व को तर्कपूर्ण मानने में मिलता है (Universe is rational)। इस सम्बन्ध में फेचनर का विचार है कि विश्व एक महान अवयवधारी (Organism) है जिसके एक शरीर, एवं एक आत्मा भी है और इसका भौतिक पक्ष विश्वजनीन मन की बाहरी अभिव्यक्ति है जिसे ईश्वर का जीवित दृश्य कहते हैं।
(2) परम आत्मा का आदर्शवाद – दूसरी ओर हेगेल का परम आत्मा का आदर्शवाद (Absolute idealism) है। इसके अनुसार विश्व एक विचार-प्रक्रिया (Thought Process) है जिसमें ईश्वर विचार करने वाला तथा भौतिक संसार विचार का बाह्यगत एवं दृश्यमान रूप (God is thinking and Physical universe is thought externalized and made visible)। परम आत्मा को आध्यात्मिक रूप दिया गया है और उस ‘परम’ का अंश समस्त चराचर जगत में व्याप्त है।
(3) भौतिक संसार को मन से युक्त मानने वाला आदर्शवाद – तीसरे रूप में भौतिक संसार को भी मन से युक्त किया गया है। पदार्थ भी मानसिक विशेषता रखता है (Matter has a mental character)। इस सिद्धान्त के अनुसार वास्तविकता आत्मिक विशेषता से पूर्ण होती है। (All reality is Psychic in nature)।
(4) आत्मनिष्ठ आदर्शवाद – चौथे रूप में हम आत्मनिष्ठ आदर्शवाद (Subjective Idealism) पाते हैं। इसके अनुसार वस्तु का अस्तित्त्व केवल मन के कारण है; अपने आप नहीं है। ऐसा विचार बर्कले का था। बाह्य जगत केवल मन का प्रत्यक्षीकरण है (External world is merely a phenomenon or appearance of perceiving mind)।
(5) कॉण्ट का प्रपंचवादी आदर्शवाद – कॉण्ट ने भी इसे स्वीकार किया है और अपना प्रपंचवाद (Phenomenalism) आगे बढ़ाया, परन्तु कॉण्ट ने बर्कले के विपरीत वस्तु जगत का भी अस्तित्त्व स्वीकार किया है। कॉण्ट ने अनुभव, अंतरात्मा का कर्तव्य, नैतिक मूल्यों के जगत को वास्तविक माना है। अतः कॉण्ट अन्य आदर्शवादियों से अधिक व्यापक विचार वाले कहे गये हैं।
(6) व्यक्तिगत आदर्शवाद (Personal Idealism) – इसके पोषक जर्मन दार्शनिक रूडोल्फ यूकेल थे जिन्होंने प्रकृति एवं आत्मा को सक्रिय व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा जोड़ने का प्रयत्न किया है। क्रिया के द्वारा प्राकृतिक जगत का रूप परिवर्तन (Modification) होता है और सत्यं, शिवं, सुन्दरं के महान आदर्शों की प्राप्ति में सर्वजनीन मन की झलक दिखाई देती है। इससे व्यक्तित्व का विकास होता है जो दैवी इच्छा-शक्ति की प्राप्ति है (To realise the Divine will)। इस आदर्शवाद में व्यक्ति के नैतिक आदर्शों पर बल दिया जाता है। अमेरिका में इसे व्यक्तित्ववाद (Personalism) के नाम से भी पुकारते हैं। इससे मानव जीवन को महानता प्रदान की गयी है और उसे पशु से कहीं उच्च स्थान पर रखा गया है। लेकिन यह महानतम जीव (Supreme Being) के अस्तित्व में भी विश्वास रखता है। इस विचारधारा में व्यक्ति के विकास पर प्रभाव डालने वाले तत्त्वों-वंश, परम्परा तथा वातावरण, समाज, संस्कृति आदि पर भी विश्वास किया जाता है।
(7) आधुनिक आदर्शवाद – आधुनिक समय के आदर्शवाद पर वैज्ञानिक विचारों का प्रभाव भी देखा जाता है। इसके साथ-साथ वैज्ञानिकों पर भी दर्शन का प्रभाव पड़ता है तथा ईश्वर एवं मन और आत्मा के अस्तित्व से वैज्ञानिक नाक-भौं नहीं सिकोड़ते। वैज्ञानिकों के पदार्थ एवं यांत्रिकता (Mechanism) की महानता दार्शनिकों को मान्य नहीं है। जैविक विकास (Biological Evolution) की अपेक्षा दार्शनिक तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, सौन्दर्यशास्त्र (Aesthetism) तथा धर्म को मनुष्य के वास्तविक रूप बताने में अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। वैज्ञानिकों को जोन्स महोदय का गणितीय आदर्शवाद (Mathematical Idealism) अधिक मान्य है जिसमें वैज्ञानिक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया गया है यद्यपि व्यक्ति के तर्क, मन, आत्मा आदि भी होते हैं। दार्शनिकों के लिए केवल ठेठ तार्किक विचारना नहीं होता बल्कि सौन्दर्यानुभूति तथा नैतिक मूल्यों एवं भावों की महत्ता भी होती है।
(8) प्लेटो का आदर्शवाद – प्लेटो का आदर्शवाद नैतिक मूल्यों के सिद्धांत पर विशेषकर आधारित है। सुकरात एवं प्लेटो के नैतिक सिद्धान्तों की शाश्वत प्रमाणिकता तथा शुद्धता, न्याय, साहस आदि के स्थायी रूप में विश्वास किया है और इसकी शिक्षा भी दी है। प्लेटो का विश्वास था कि इस संसार के अलावा एक और संसार है जिसका रूप शाश्वत है और मनुष्य उसका सही ज्ञान केवल अपनी तर्कबुद्धि से प्राप्त कर सकता है। पदार्थ संसार की वस्तुओं का ज्ञान, वस्तुओं के अस्तित्व सम्बन्धी विचार से हो सकता है, तीन शाश्वत मूल्यों के विचार में प्लेटो को विश्वास था। ये शाश्वत मूल्य ईश्वर के गुण माने गये हैं यद्यपि प्लेटो ने ईश्वर को महानतम वास्तविकता (Supreme Reality) नहीं कहा है। प्लेटो के आदर्शवाद में सौन्दर्यबोध सम्बन्धी दर्शन (Philosophy of Aesthetics) भी मिलता है।

आदर्शवाद का जीवन के प्रति दृष्टिकोण
दर्शन जीवन की व्याख्या है, अस्तु सभी दार्शनिकों एवं दार्शनिक मतों का जीवन के प्रति कुछ विशिष्ट दृष्टिकोण रहा है। इस सम्बन्ध में आदर्शवाद का जीवन के प्रति क्या दृष्टिकोण रहा है, उसे यहां प्रस्तुत किया जायेगा ।
(1) आध्यात्मिक दृष्टिकोण – सर्वप्रथम आदर्शवाद आध्यात्मिक जीवन में विश्वास और एतदर्थ आध्यात्मिक जीवन पर अत्यधिक बल देता है। इस विश्वास एवं रखता दृष्टिकोण के कारण आदर्शवाद जीवन में आध्यात्मिक वस्तुओं को ही महत्त्व देता है और इन्हें ही केवल अस्तित्ववान समझता है।
(2) मानव जीवन का सर्वाधिक मूल्य – दूसरे स्थान में आदर्शवाद मानव जीवन को सर्वाधिक मूल्य प्रदान करता है और इसे ही आदर्श रूप में प्रस्तुत करता है। इसका कारण यह है कि मानव सर्वाधिक विकसित प्राणी होता है जिसके पास सबसे अधिक बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षमता है। अस्तु, मनुष्य एक बौद्धिक, नैतिक आर्थिक और आध्यात्मिक जीव है और इसके हरेक पहलू अपना महत्त्व रखते हैं।
(3) आत्म-ज्ञान सर्वोच्च लक्ष्य – मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आत्म-ज्ञान है तथा महानतम सत्यं शिवं एवं सुन्दरं अथवा ब्रह्मा या ईश्वर की प्रापित का प्रयत्न ही मनुष्य जीवन का सार्थक प्रयत्न होता है। इसे प्राप्त करने हेतु जीवन होता है।
(4) सूक्ष्मता का बल – आदर्शवाद सूक्ष्मता का पोषक है, अतएव जीवन में ज्ञान ही स्तम्भ – केन्द्र है क्योंकि इसी के आधार पर आध्यात्म का बोध; विकास और प्रकाशन होता है। स्थूल शरीर तो केवल एक भौतिक उपकरण है जिससे कुछ सहायता मिलती है। मस्तिष्क अवश्य ही ज्ञान की प्राप्ति एवं चिन्तन में सहायक अंग होता है।
(5) भौतिक सम्पदा के प्रति उदासीनता – आदर्शवाद स्थूल शरीर को त्याज्य मानता है। इसी कारण से भोज्य भौतिक सम्पदा के प्रति उदासीनता एवं उपेक्षा होती है और स्वान्तः सुखाय एवं व्यतित्व भावना पायी जाती है। अस्तु, प्रत्येक आदर्शवादी मनुष्य सीमित के प्रति आकर्षित न होकर असीम की ओर समेत चेतना को केन्द्रीभूत करता है ।
(6) अनुशासन अत्यावश्यक – ऐसी भावना को धारण करने के लिए जीवन में शारीरिक एवं मानसिक नियंत्रण एवं अनुशासन की अत्यधिक आवश्यकता होती है अतः आदर्शवाद जीवन में नियंत्रण और अनुशासन को एक अनिवार्य साधन मानता है जिससे यतित्व भावना सरलतया प्राप्त होती है और धारण की जाती है।
(7) दूसरे जीवन में विश्वास – आदर्शवाद आध्यात्मिक जीवन की श्रेणियों में भी विश्वास रखता है अस्तु, यह मानव से परे जीवन एवं प्राणियों में विश्वास दिलाता है। इस प्रकार दैवी जीवन एवं सर्वोत्तम पुरुष की संकल्पना की जाती है और धर्म के क्षेत्र में अवतार, पैगम्बर, रसूल मसीह आदि साधारणतः होते हैं जिनके माध्यम से अपौरुषेय सत्ता और उसकी अनुभूति होती है ।
(8) सद्गुणों से मनुष्य पूर्ण – इन परम प्राणियों में कुछ सद्गुणों एवं विलक्षणताओं की कल्पना होती है जैसे, दया, सत्य, पुण्य, शांति, क्षमा, सन्तोष आदि जो अपने चरम परिणाम में होते हैं। मनुष्य इनके विपरीत गुणों से युक्त होता है। उसमें हिंसा, असत्य, पाप, अशांति, क्रोध, असन्तोष आदि होते हैं। अस्तु, जीवन में इन विरोधी गुणों में एक संघर्ष होता है और अन्त में सद्गुण विजयी होते हैं, जैसे कथन भी है : सत्यमेव जयते नानृतं।
(9) जीवन चक्र में विश्वास- आदर्शवादी जीवन चक्र में विश्वास रखता है, विशेषकर भारतीय परम्परा के अनुसार। यह जीवन जन्म-मरण के चक्र से घिरा है और अन्तिम रूप मानव जीवन का है जैसा तुलसीदास जी ने कहा है ‘बड़ भाग मानुष तन पावा’ क्योंकि इसी जीवन में ‘मुक्ति’ मिलती है अर्थात् जन्म-मरण का चक्र समाप्त होता है।
(10) मुक्ति की प्रधानता – मुक्ति का व्यापक अर्थ आदर्शवाद में है। इसका अर्थ सर्वोत्तम को ग्रहण करना एवं निम्न को त्यागना है। यही कारण है कि जीवन में सब कुछ त्याग कर ही मुक्ति मिलती है, यहां तक कि देह को भी। इसके अलावा सर्वोत्तम ‘सत्यं, शिवं और सुन्दरं ‘ की चरम मात्रा परमात्मा में होती है और इसे प्राप्त करना ही सबसे बड़ी ‘मुक्ति’ है। इसे पाने के लिए संसार की छोटी (क्षणिक) इच्छाओं को छोड़ना चाहिए।
(11) संसार की वस्तुएँ व्यवस्थित – आदर्शवाद यद्यपि संसार को त्याज्य मानता है, फिर भी उसे घृणित या अव्यवस्थित नहीं मानता है। इस दृष्टिकोण से संसार की सभी वस्तुएँ एक क्रम, एक व्यवस्था, एक नियम से रहती हैं, नियामक चूँकि इसे देखता रहता है। इसके अलावा संसार के भीतर एक चेतना व्याप्त है, ऐसा आदर्शवादी विचार है। इस चेतना के कारण ही यह संसार ‘जगत’ कहा जाता है और यह जगत ‘चक्रित’ (Moving in cycle) है। अतएव जगत का एक केन्द्र है जिस पर समस्त क्रियाशीलता सम्पन्न होती है। यह केन्द्र जीवन है (Life is then the core of this world)। यही कारण है कि जीवन स्थिर एवं निष्क्रिय नहीं होता है बल्कि इसके विपरीत होता है जिससे इसकी सार्थकता स्पष्ट होती है।
शिक्षा में आदर्शवाद की विशेषताएँ
विचारकों एवं शिक्षाशास्त्रियों के चिन्तनों एवं अभिमतों के फलस्वरूप शिक्षा में आदर्शवाद की कुछ विशेषताएँ बतायी गयी हैं। इनको यहाँ पर बता देने से आदर्शवाद के बारे में स्पष्ट ज्ञान हो जाएगा। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) आदर्श व्यक्तित्व का विकास- शिक्षा के क्षेत्र में आदर्शवाद को प्रचलित करने वाले प्लेटो, पेस्टालॉजी, फ्रोबेल पाश्चात्य तथा टैगोर, गांधी, विवेकानन्द भारतीय शिक्षाशास्त्री थे। इन्होंने शिक्षा के उद्देश्य और अन्य अंगों पर विचार किया है। प्लेटो के अनुसार ‘सत्यं, शिवं, सुन्दरं’ की अनुभूति है। भारतीय शिक्षाशास्त्री आत्मा की मुक्ति प्राप्त करना सच्ची शिक्षा कहते हैं। पेस्टालॉजी के समान गांधी एवं टैगोर आदर्श व्यक्तित्व का विकास शिक्षा मानते हैं।
(2) शिक्षा का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति- आदर्शवाद शिक्षा का उद्देश्य आत्मानुभूति मानता है। आत्मानुभूति, आत्माभिव्यक्ति से कहीं व्यापक है। इसमें व्यक्ति के गुणों का परमात्मा के गुणों से तदात्म्य होता है। यह तादात्म्य सामाजिक वातावरण में होना चाहिए, यह आधुनिक विचार है जैसा कि विवेकानन्द, टैगोर आदि के सिद्धान्तों से स्पष्ट है।
(3) सामाजिक एवं सार्वभौमिक रूप पर भी बल – आदर्शवाद शिक्षा के सामाजिक रूप (Social concept) को भी महत्त्व देता है। इसके अलावा आदर्शवाद मूल्यों एवं शिक्षा के सार्वभौमिक (universal) रूप को भी महत्त्व देता है। इसीलिए शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्ति की इच्छाओं, क्रियाओं एवं तदनुरूप मूल्य से किया गया है। मानव की तीन इच्छाएँ (desires) हैं – ज्ञान की इच्छा, उचित-अनुचित की इच्छा तथा सौन्दर्य की इच्छा। इन्हीं से तीन क्रियाएं और तीन प्रकार के अनुभव होते हैं – सत्यं, शिवं एवं सुन्दरं सम्बन्धी क्रियायें तथा ज्ञानात्मक, क्रियात्मक एवं भावात्मक अनुभव। इन सबको शिक्षा में निहित किया गया है। इस प्रकार शिक्षा में स्वास्थ्य रक्षा तथा कौशल सम्बन्धी, शारीरिक क्रियायें तथा बौद्धिक, नैतिक एवं धार्मिक तथा सौन्दर्यबोधात्मक प्रकार की आध्यात्मिक क्रियायें रखी जाती हैं।
(4) मानवीय विषयों को अधिक महत्व देना – आदर्शवाद मानवीय विषयों को वैज्ञानिक विषयों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण मानता है क्योंकि आध्यात्मिक विकास में ये विषय अधिक उपयोगी माने गये हैं। इन विषयों में व्यक्तिनिष्ठता (Subjectivity) अधिक होती है और व्यक्ति को आदर्शवाद बहुत ऊँचा स्थान देता है। मानववादी भावना (Humanistic spirit) का शिक्षा में प्रचार इसी आदर्शवाद के कारण हुआ है। व्यक्ति को प्रधानता देने के कारण ही आदर्शवाद में अध्यापक को भी ऊँचा एवं सर्वोपरि स्थान दिया जाता है। अध्यापक के निर्देश (Instruction) को बालक के स्वानुभव (Self-experience) से कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना गया है।
(5) अनुशासन पर बल – आदर्शवादी शिक्षा में अध्यापक द्वारा स्थापित अनुशासन को उत्तम माना गया है। शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के अनुशासन पर आदर्शवाद ने शिक्षा के क्षेत्र में बल दिया है। इनसे सम्बन्धित शारीरिक व्यायाम एवं गणित, तर्कशास्त्र ऐसे विषय भी पढ़ाने के लिए कहा गया है।
(6) सभी वातावरण पर बल – आदर्शवाद में वातावरण पर भी बल दिया गया है। प्रकृतिवाद केवल भौतिक वातावरण पर बल देता है तो आदर्शवाद मानसिक, आध्यात्मिक, प्राकृतिक और सामाजिक सभी वातावरण पर बल देता है। बोसांके के विचार में जीवन के लिए भौतिक संसार का वातावरण है और मन के लिए ब्रह्माण्ड। ऐसा मानसिक वातावरण असीम हैं, मानव संस्कृति एवं समाज का सृजनकर्ता है तथा ऐसे वातावरण का अर्जन व्यक्ति स्वयं अपने प्रयत्न से करता है। जैसे मानसिक या आध्यात्मिक वातावरण में ज्ञान, कला, नैतिकता और धर्म तथा शिवं और सुन्दरं की प्राप्ति संभव होती है। इन सब गुणों एवं मूल्यों की प्राप्ति के लिए आदर्श वातावरण प्रदान करना विशद शिक्षा के कार्यक्रम में ही है।
(7) सामाजिक तथा सांस्कृतिक निधि की प्राप्ति पर बल – आदर्शवाद सामाजिक तथा सांस्कृतिक निधि की प्राप्ति पर बल देता है। ये निधियाँ कला, भाषा, दर्शन, विज्ञान, साहित्य आदि के द्वारा सुरक्षित एवं हस्तान्तरित होती हैं। इस कारण आदर्शवाद पाठ्य-पुस्तकों पर अधिक बल देता है और उनके माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति बताया है। इस विचार से शिक्षा में पाठ्य-पुस्तकें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधन हैं। परन्तु पाठ्य-पुस्तकें ऐसी हों जों सही ज्ञान दे सकें अन्यथा उनकी उपयोगिता कुछ नहीं है।
(8) व्यक्ति की मनो- शारीरिक रचना – शिक्षा में व्यक्ति को मनो शारीरिक रचना (Psycho- Physical organism) कहना आदर्शवाद की देन कही जा सकती है। इस विचार से मनुष्य केवल एक अवयवधारी जीव नहीं है बल्कि वह एक आत्मा वाला व्यक्ति होता है और आत्मा तथा मन उसकी क्रियाशीलता जारी रखते हैं। इन्हीं के द्वारा यह चिन्तन मनन में भी समर्थ होता हैं। विभिन्न अंगों तथा मन में एकता भी पायी जाती है और सब मिल-जुलकर कार्य करते हैं। इस प्रकार आदर्शवाद विभिन्नता में एकता (Unity in diversity) का सिद्धान्त भी मानता है।
(9) मानव परम आत्मा (Absolute self) का अंश है -और शिक्षा व्यक्ति को यह आभास कराती है कि वह उस परम आत्मा का ही अंश है और उस आध्यात्मिक पूर्णता का ज्ञान उसे हो जाये। ऐसा प्रयत्न शिक्षा के द्वारा ही क्योंकि “मानव की आध्यात्मिक प्रकृति उसमें जोड़ी गयी कोई वस्तु नहीं है बल्कि वह तो उसके अस्तित्व का सार ही है।” विवेकानन्द ने कहा है कि “शिक्षा अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति मात्र है।” आदर्शवाद के अनुसार यह जगत परमात्मा की प्रतिच्छाया (Shadow) है।